ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 70-71 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणों हवदि । (70)
चदुसंकमणो य भणिदो पंचग्गगुणप्पहाणो य ॥77॥
उछक्कावक्कमजुत्तो वजुत्तो सत्तभंगसव्भावों । (71)
अट्ठासवो णवत्थो जीवो दह ठाणिओ भणिओ ॥78॥
अर्थ:
वह महात्मा एक ही है, दो भेदवाला है, तीनलक्षणमय है, चार चंक्रमण युक्त और पाँच मुख्य गुणों से प्रधान कहा गया है। वह उपयोग स्वभावी जीव छह अपक्रम युक्त, सात भंगों से सद्भाव वाला है, आठ का आश्रयभूत, नौपदार्थ रूप और दशस्थानगत कहा गया है।
समय-व्याख्या:
अथ जीवविकल्पा उच्यन्ते ।
स खलु जीवो महात्मा नित्यचैतन्योपयुक्त त्वादेक एव, ज्ञानदर्शनभेदाद्दिव-विकल्पः, कर्मफ लकार्यज्ञानचेतनाभेदेन लक्ष्यमाणत्वात्र्रिलक्षणः ध्रौव्योत्पादविनाशभेदेन वा, चतसृषु गतिषु चङ्क्रमणत्वाच्चतुश्चङ्क्रमणः, पञ्चभिः पारिणामिकौदयिकादिभिरग्रगुणैः प्रधानत्वात्पञ्चाग्रगुणप्रधानः, चतसृषु दिक्षूर्ध्वमधश्चेति भवान्तरसङ्क्रमणषटकेनापक्रमेण युक्त त्वात्षटकापक्रमयुक्त :, अस्तिनास्त्यादिभिः सप्तभंगैः सद्भावो यस्येति सप्तभङ्गसद्भावः, अष्टानां कर्मणां गुणानां वा आश्रयत्वादष्टाश्रयः, नवपदार्थरूपेण वर्तनान्नवार्थः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिसाधारणप्रत्येकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियरूपेषु दशसु स्थानेषु गतत्वाद्दशस्थानग इति ॥७०-७१॥
समय-व्याख्या हिंदी :
वह जीव महात्मा
- वास्तव में नित्य-चैतन्य, उपयोगी होने से एक ही है;
- ज्ञान और दर्शन ऐसे भेदों के कारण दो भेद-वाला है;
- कर्म-फल-चेतना, कार्य-चेतना और ज्ञान-चेतना ऐसे भेदों द्वारा अथवा ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश ऐसे भेदों द्वारा लक्षित होने से त्रिलक्षण (तीन लक्षण-वाला) है;
- चार गतियों में भ्रमण करता है इसलिए चतुर्विध भ्रमण-वाला है;
- पारिणामिक, औदयिक इत्यादि पाँच मुख्य गुणों द्वारा प्रधानता होने से पाँच मुख्य गुणों से प्रधानता-वाला है;
- चार दिशाओं में, ऊपर और नीचे इस प्रकार षड्विध भावान्तर-गमन-रूप अपक्रम से युक्त होने के कारण (अर्थात् अन्य भव में जाते हुए उपरोक्त छह दिशाओं में गमन होता है इसलिए) छह अपक्रम सहित है;
- अस्ति, नास्ति आदि सात भंगों द्वारा जिसका सद्भाव है, ऐसा होने से सात भंग-पूर्वक सद्भाव-वान है;
- (ज्ञानावरणादि) आठ कर्मों के अथवा (सम्यक्त्वादि) आठ गुणों के आश्रय-भूत होने से आठ के आश्रय-रूप है;
- नव पदार्थ-रूप से वर्तता है इसलिए नव-अर्थ-रूप है;
- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, साधारण वनस्पति, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पन्चेंद्रिय दश स्थानों में प्राप्त होने से दश-स्थान-गत है ॥७०-७१॥