ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 78 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
सद्दो खंदप्पभवो खंदो परमाणुसंगसंघादो । (78)
पुट्ठेसु तेसु जायादि सद्दो उप्पादगो णियदो ॥86॥
अर्थ:
शब्द स्कन्ध-जन्य हैं । स्कन्ध परमाणुओं के समूह के संघात / मिलाप से बनता है । उन स्कन्धों के परस्पर स्पर्षित होने / टकराने पर शब्द उत्पन्न होते हैं; इस प्रकार वे नियम से उत्पन्न होने योग्य हैं ।
समय-व्याख्या:
शब्दस्य पुद्गलस्कन्धपर्यायत्वख्यापनमेतत् ।
इह हि बाह्यश्रवणेन्द्रियावलम्बितो भावेन्द्रियपरिच्छेद्यो ध्वनिः शब्दः । सखलु स्वरूपेणानन्तपरमाणूनामेकस्कन्धो नाम पर्यायः । बहिरङ्गसाधनीभूतमहास्कन्धेभ्यःतथाविधपरिणामेन समुत्पद्यमानत्वात् स्कन्धप्रभवः, यतो हि परस्पराभिहतेषु महास्कन्धेषु शब्दः समुपजायते । किञ्च स्वभावनिर्वृत्ताभिरेवानन्तपरमाणुमयीभिः शब्द-योग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समन्ततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरङ्गकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ताः शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमन्त इति शब्दस्य नियतमुत्पाद्यत्वात् स्कन्धप्रभवत्वमिति ॥७८॥
समय-व्याख्या हिंदी :
शब्द पुद्गल-स्कन्ध-पर्याय है ।
इस लोक में, बाह्य श्रवणेन्द्रिय द्वारा अवलंबित भावेंद्रिय द्वारा जानने-योग्य ऐसी जो ध्वनी वह शब्द है । वह (शब्द) वास्तव में स्वरूप से अनन्त परमाणुओं के एक-स्कन्ध-रूप पर्याय है । बहिरंग साधन-भूत (बाह्य कारण-भूत) महा-स्कन्धों द्वारा तथाविध परिणाम-रूप (शब्द-परिणाम-रूप) उत्पन्न होने से वह स्कन्ध-जानी है, क्योंकि महा-स्कन्ध परस्पर टकराने से शब्द उत्पन्न होता है । पुनश्च, यह बात विशेष समझाई जाती है -- एक दुसरे में प्रविष्ट होकर सर्वत्र व्याप्त होकर स्थित ऐसी जो स्वभाव-निष्पन्न ही (अपने स्वभाव से ही निर्मित), अनन्त-परमाणु-मयी शब्द-योग्य वर्गणाओं से समस्त लोक भरपूर होने पर भी जहां-जहां बहिरंग-कारण सामग्री उदित होती है वहां-वहाँ वे वर्गणाएं शब्द-रूप से स्वयं परिणमित होती हैं । इस प्रकार शब्द नित्य-रूप से (अवश्य) १उत्पाद्य है, इसलिए वह स्कन्ध-जन्य है ॥७८॥
१उत्पाद्य = उत्पन्न कराने योग्य; जिसकी उत्पत्ति में अन्य कोई निमित्त होता है ऐसा