ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 85 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जह हवदि धम्मदव्वं तह जाणेह दव्वमधमक्खं । (85)
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ॥93॥
अर्थ:
जैसे धर्म द्रव्य है, उसीप्रकार अधर्म नामक द्रव्य भी जानो; परन्तु वह स्थिति-क्रिया-युक्त को पृथ्वी के समान कारणभूत है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
जैसा धर्म द्रव्य है; उसी प्रकार के प्रयोजन को करने के लिए हे शिष्य ! अधर्म नामक द्रव्य को जानो । वह और कैसा है ? पृथ्वी के समान स्थिति-क्रिया-युक्तों को कारण-भूत है ।
वह इस प्रकार -- जैसे पहले अरस आदि विशेषण विशिष्ट धर्म-द्रव्य का व्याख्यान किया था, उसी-रूप अधर्म-द्रव्य भी जानो; परंतु यह विशेष है कि वह मछलियों को जल के समान जीव-पुद्गलों की गति का बहिरंग सहकारी कारण है और यह जैसे पहले से ही स्थित पृथ्वी दूसरे ठहरते हुए तुरंग / घोडे आदि को स्थिति में / ठहरने में बहिरंग सहकारी कारण होती है उसी प्रकार; अथवा पथिकों को छाया के समान; स्वयं पहले से स्थित रहता हुआ, जीव पुद्गलों को स्थित होने में / ठहरने में उनका कारण है ।
अथवा जो शुद्धात्म-स्वरूप में स्थिति है, उसका निश्चय से वीतराग निर्विकल्प स्व-संवेदन कारण है तथा जैसे व्यवहार से अरहंत, सिद्ध आदि परमेष्ठियों के गुणों का स्मरण कारण है; उसी प्रकार निश्चय से जीव-पुद्गलों को अपना स्वरूप ही स्थिति का उपादान कारण है तथा व्यवहार से अधर्म-द्रव्य है -- ऐसा सूत्रार्थ है ॥९३॥
इस प्रकार अधर्म-द्रव्य के व्याख्यान-रूप से दूसरे स्थल में एक गाथा-सूत्र पूर्ण हुआ ।