ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 87 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स । (87)
हवदि गदी स्स प्पसरो जीवाणं पोग्गलाणं च ॥95॥
अर्थ:
धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता है, अन्य द्रव्य को गमन नहीं कराता है, जीव और पुद्गलों की गति का प्रसर / उदासीन निमित्त मात्र होता है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
((धर्मास्ति करता गमन न, परद्रव्य को न कराता
निरपेक्ष हेतु मात्र ही है जीव पुद्गल गति का ॥९५॥))
[ण य गच्छदि] नहीं जाता है । वह कौन नहीं जाता है ? [धम्मत्थी] धर्मास्तिकाय नहीं जाता है । [गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स] अन्य द्रव्य का गमन नहीं करता है; [हवदि] तथापि होती है । वह क्या होती है ? [पसरो] प्रसर, प्रवृत्ति होती है । किसकी प्रवृत्ति होती है ? [गदिस्स य] गति की प्रवृत्ति होती है । किनकी गति की प्रवृत्ति होती है ? [जीवाणं पोग्गलाणं च] जीवों और पुद्गलों की गति की प्रवृत्ति होती है ।
वह इसप्रकार -- जैसे स्वयं चलता हुआ घोडा अपने आरोहक / अश्वारोही के गमन का कारण होता है, उस प्रकार धर्मास्ति-काय नहीं है । धर्मास्ति-काय ऐसा क्यों नहीं है ? निष्क्रिय होने से वह ऐसा नहीं है; अपितु जैसे स्वयं स्थायी रहता हुआ जल उदासीन-रूप से चलती हुई मछलियों की गति का निमित्त होता है; उसी प्रकार स्वयं स्थिर रहता हुआ धर्मास्ति-काय भी अपने उपादान कारण से चलते हुए जीव-पुद्गलों की गति का अप्रेरक / उदासीन रूप से बहिरंग निमित्त होता है । यद्यपि जीव-पुद्गल की गति के विषय में धर्मास्ति-काय उदासीन है; तथापि मछलियों को जल के समान, अपने उपादान बल से होती हुई जीव-पुद्गलों की गति का वह कारण है । अधर्म भी स्वयं स्थिर रहता हुआ ठहरते हुए घोडों को पृथ्वी के समान, पथिकों को छाया के समान, अपने उपादान कारण से ठहरते हुए जीव-पुद्गलों की स्थिति का बहिरंग कारण है ऐसा 'श्री भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव' का अभिप्राय है ॥९५॥