ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 89 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पोग्गलाणं च । (89)
जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आगासं ॥97॥
अर्थ:
लोक में जीवों, पुद्गलों और उसीप्रकार शेष सभी द्रव्यों को जो सम्पूर्ण अवकाश देता है, वह आकाश है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[सव्वेसिं जीवाणं] सभी जीवों को । [सेसाणं तह य] और उसी प्रकार शेष धर्म, अधर्म, काल को, [पोग्गलाणं च] और पुद्गलों को, [जं देदि] कर्ता रूप जो देता है । क्या देता है ? [विवर] विवर, छिद्र, अवकाश, अवगाह देता है, [अखिलं] समस्त, [तं] उस पूर्वोक्त, [लोगे] लोक विषय में, [हवदि आगासं] आकाश है । यहाँ शिवकुमार नामक महाराज कहते हैं -- हे भगवन् ! लोक तो मात्र असंख्यात प्रदेशी है, उस लोक में निश्चय-नय से नित्य, निरंजन, ज्ञानमय, परमानन्द एक लक्षण वाले अनन्तानन्त जीव; उनसे भी अनन्तगुणे पुद्गल, लोकाकाश के बराबर प्रदेश प्रमाण कालाणु, धर्म और अधर्म ये सभी अवकाश / स्थान कैसे प्राप्त करते हैं?
भगवान कहते हैं -- एक अपवरक / कमरे में अनेक प्रदीपों के प्रकाश समान, एक गूढ नाग रस गद्याणक में बहुत सुवर्ण के समान, उष्ट्री (ऊँटनी) के दूध से भरे एक घट में मधुघट के समान, एक भूमिगृह में जय-घंटा आदि शब्दों के समान विशिष्ट अवगाह-गुण के कारण असंख्य-प्रदेश होने पर भी लोक में अनन्त संख्या वाले जीवादि भी अवकाश / स्थान प्राप्त करते हैं, ऐसा अभिप्राय है ॥९७॥