ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 96 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा । (96)
मुत्तं पुग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु ॥104॥
अर्थ:
आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म मूर्तरहित अमूर्त हैं; पुद्गलद्रव्य मूर्त है; उनमें वास्तव में जीव चेतन है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाली मूर्ति से रहित होने के कारण अमूर्त हैं । अमूर्त वे कौन हैं ? आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म अमूर्त हैं; किन्तु जीव यद्यपि निश्चय से अमूर्त, अखण्ड, एक प्रतिभास-मय होने के कारण अमूर्त है; तथापि रागादि रहित सहजानन्द एक स्वभावी आत्म-तत्त्व की भावना से रहित जीव द्वारा जो उपार्जित मूर्त कर्म हैं, उनके संसर्ग की अपेक्षा व्यवहार से मूर्त भी है; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाला होने से पुद्गल द्रव्य मूर्त है। उनमें से संशय आदि से रहित स्व-पर परिच्छित्ति / जानकारी में समर्थ अनन्त चैतन्य-रूप से परिणत होने के कारण जीव वास्तव में चेतक है; स्व-पर प्रकाशक चैतन्य का अभाव होने से शेष अचेतन हैं, ऐसा भावार्थ है ॥१०४॥
इसप्रकार चेतन-अचेतन मूर्त-अमूर्त के प्रतिपादन की मुख्यता से गाथासूत्र पूर्ण हुआ ।