ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 9 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
दवियदि गच्छदि ताइं ताइं सब्भावपज्जयाइं जं ।
दवियं तं भण्णंति हि अणण्णभूदं तु सत्तादो ॥9॥
अर्थ:
उन-उन सद्भाव पर्यायों को जो द्रवित होता है, प्राप्त होता है, उसे द्रव्य कहते हैं; जो कि सत्ता से अनन्यभूत है।
समय-व्याख्या:
अत्र सत्ताद्रव्ययोरर्थान्तरत्वं प्रत्याख्यानाम् । द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुव: सहभुवश्च सद᳭भावपर्यायान् स्वभावविशेषानित्यनुगतार्थया निरुक्त्या द्रव्यं व्याख्यातम् । द्रव्यं च लक्ष्यलक्षणभावादिभ्य: कथञ्चिद᳭भेदेऽपि वस्तुन: सत्ताया अपृथग्भूतमेवेति मन्तव्यम् । ततो यत्पूर्वं सत्त्वमसत्त्वं त्रिलक्षणत्वमत्रिलक्षणत्वमेकत्वमनेकत्वं सर्वपदार्थस्थितत्वमेकपदार्थस्थितत्वं विश्वरूपेत्वमेकरूपत्वमनन्तपर्यायत्वमेकपर्यायत्वं च प्रतिपादितं सत्तायास्तत्सर्वं तदनर्थान्तरभूतस्य द्रव्यस्यैव द्रष्टव्यम् । ततो न कश्चिदपि तेषु सत्ताविशेषोऽवशिष्येत य: सत्तां वस्तुतो द्रव्यात्पृथक् व्यवस्थापयेदिति ॥९॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ सत्ता को और द्रव्य को अर्थान्तरपना (भिन्न-पदार्थ-पना) होने का खण्डन किया है ।
'उन-उन क्रमभावी और सहभावी सद्भाव-पर्यायों को अर्थात स्वभाव-विशेषों को जो द्रवित होता है, प्राप्त होता है, सामान्य-रूप स्वरूप से व्याप्त होता है, वह द्रव्य है' -- इसप्रकार अनुगत अर्थवाली निरुक्ति से द्रव्य की व्याख्या की गई । और यद्यपि लक्ष्य-लक्षण-भावादिक द्वारा द्रव्य को सत्ता से कथंचित भेद है तथापि वस्तुत: (परमार्थत:) द्रव्य सत्ता से अपृथक ही है ऐसा मानना । इसलिए पहले (८वीं गाथा में) सत्ता को जो सत्पना, असत्पना, त्रिलक्षणपना, अत्रिलक्षणपना, अनेकापना, सर्व-पदार्थ-स्थितपना, एक-पदार्थ-स्थितपना, विश्व-रूपपना, एक-रूपपना, अनन्त-पर्याय-मयपना, एक-पर्याय-मयपना, कहा गया वह सर्व सत्ता से अनर्थांतरभूत (अभिन्न-पदार्थ-भूत, अनन्य-पदार्थ-भूत) द्रव्य ही देखना (सत्पना, असत्पना, त्रिलक्षणपना, अत्रिलक्षणपना आदि समस्त सत्ता के विशेष द्रव्य के ही हैं ऐसा मानना) । इसलिए उनमें (उन सता विशेषों में) कोई सत्ता-विशेष शेष नहीं रहता जो की सत्ता को वस्तुत: (परमार्थत:) द्रव्य से पृथक स्थापित करे ॥९॥