ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 103
From जैनकोष
एक सौ तीसरा पर्व
अथानंतर गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे मगधराजेंद्र ! सावधान चित्त होओ अब मैं तेरे लिए युद्ध का विशेष वर्णन करता हूँ ॥1॥ अनंगलवण रूपी सागर का सारथि वज्रजंघ था, मदनांकुश का प्रसिद्ध पराक्रमी राजा पृथु, लक्ष्मण का चंद्रोदर का पुत्र विराधित और राम रूपी इंद्र का सारथि कृतांतवक्त्र रूपी सूर्य था ।।2-3॥ विशाल गर्जना करने वाले रामने गंभीर वाणी द्वारा वज्रावर्त नामक धनुष उठा कर कृतांतवक्त्र सेनापति से कहा ॥4॥ कि हे कृतांतवक्त्र ! शत्रु की ओर शीघ्र ही रथ बढ़ाओ । इस तरह शरीर के भार को शिथिल करते हुए क्यों अलसा रहे हो ? ।।5।। यह सुन कृतांतवक्त्र ने कहा कि हे देव ! इस नर वीर के द्वारा अत्यंत तीक्ष्ण बाणों से जर्जर हुए इन घोड़ों को देखो ॥6॥ वे शरीर को दूर करने वाली निद्रा को ही मानो प्राप्त हो रहे है अथवा विकार से निर्मुक्त हो वेग रहित हो रहे हैं ? ॥7॥ अब ये न तो सैकड़ों मीठे शब्द कहने पर और न हथेलियों से ताड़ित होने पर शरीर को लंबा करते हैं― शीघ्रता से चलते हैं किंतु अत्यधिक शब्द करते हुए स्वयं ही लंबा शरीर धारण कर रहे हैं ।।8।। ये रुधिर की धारा से पृथिवीतल को लाल लाल कर रहे हैं सो मानों आपके लिए अपना महान अनुराग ही दिखला रहे हों ॥9॥ और इधर देखो, ये मेरी भुजाएं कवच को भेदन करने वाले बाणों से फूले हुए कदंब पुष्पों की माला के सादृश्य को प्राप्त हो रही हैं ॥10॥ यह सुन रामने भी कहा कि इसी तरह मेरा भी धनुष शिथिल हो रहा है और चित्रलिखित धनुष की तरह क्रिया शून्य हो रहा है ॥11॥ यह मुशल रत्न कार्य से रहित हो गया है और सूर्यावर्त धनुष के कारण भारी हुए भुजदंड को पीड़ा पहुँचा रहा है ॥12॥ जो दुर्वार शत्रु रूपी हाथियों को वश करने के लिए अनेकों बार अंकुशपने को प्राप्त हुआ था ऐसा यह मेरा हल रत्न निष्फल हो गया है ॥13॥ शत्रुपक्ष को नष्ट करने में समर्थ एवं अपने पक्ष की रक्षा करने वाले अमोघ महा शस्त्रों की भी ऐसी दशा हो रही है ॥14॥ इधर लवणांकुश के विषय में जिस प्रकार राम के शस्त्र निरर्थक हो रहे थे उधर उसी प्रकार मदनांकुश के विषय में लक्ष्मण के शस्त्र भी निरर्थक हो रहे थे ॥15॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि इधर लवणांकुश को तो राम लक्ष्मण के साथ अपने जाति संबंध का ज्ञान था अतः वे उनको अपेक्षा रखते हुए युद्ध करते थे ― अर्थात् उन्हें घातक चोट न लग जावे इसलिए बचा बचा कर युद्ध करते थे पर उधर राम लक्ष्मण को कुछ ज्ञान नही था इस लिए वे निरपेक्ष हो कर युद्ध कर रहे थे ॥16॥ यद्यपि इस तरह लक्ष्मण के शस्त्र निरर्थक हो रहे थे तथापि वे दिव्यास्त्र से सहित होने के कारण विषाद से रहित थे। अबकी बार उन्होंने अंकुश के ऊपर भाले सामान्य चक्र तथा बाणों की जोरदार वर्षा की सो उसने वज्रदंड तथा बाणों के द्वारा उस वर्षा को दूर कर दिया। इसी तरह अनंगलवण ने भी राम के द्वारा छोड़ा अस्त्र-वृष्टि को दूर कर दिया था ।।17-18॥
तदनंतर इधर लवण ने वक्षःस्थल के समीप राम को प्राप्त नामा शस्त्र से घायल किया और उधर चातुर्य से युक्त वीर मदनांकुश ने भी लक्ष्मण के ऊपर प्रहार किया ॥19॥ उसकी चोट से जिसके नेत्र और हृदय घूमने लगे थे ऐसे लक्ष्मण को देख विराधित ने घबड़ा कर रथ उलटा अयोध्या की ओर फेर दिया ।।20।। तदनंतर चेतना प्राप्त होने पर जब लक्ष्मण ने रथ को दूसरी ओर देखा तब लक्ष्मण ने क्रोध से लाल-लाल नेत्र करते हुए कहा कि हे बुद्धिमन् ! विराधित ! तुमने यह क्या किया ? शीघ्र ही रथ लौटाओ । क्या तुम नहीं जानते कि युद्ध में पीठ नहीं दी जाती है ? ॥21-22॥ बाणों से जिसका शरीर व्याप्त है ऐसे शूर वीर का शत्रु के सन्मुख खड़े-खड़े मर जाना अच्छा है पर यह घृणित कार्य अच्छा नहीं है ।।23।। जो मनुष्य, पुरुषों के मस्तक पर स्थित हैं अर्थात् उनमें प्रधान हैं वे देवों और मनुष्यों के बीच परम आपत्ति को प्राप्त हो कर भी कातरता को कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? ॥24॥ मैं दशरथ का पुत्र, राम का भाई और पृथिवी पर नारायण नाम से प्रसिद्ध हूँ उसके लिए यह काम कैसे योग्य हो सकता है ? ॥25।। इस प्रकार कह कर लक्ष्मण ने शीघ्र ही पुनः रथ लौटा दिया और पुनः जिसमें सैनिक लौट कर आये थे ऐसा भयंकर युद्ध हुआ ॥26॥
तदनंतर कोप वश लक्ष्मण ने संग्राम का अंत करने की इच्छा से देवों और असुरों को भी भय उत्पन्न करने वाला अमोघ चक्ररत्न उठाया ॥27।। और ज्वालावली से व्याप्त, दुष्प्रेक्ष्य एवं सूर्य के सदृश वह चक्ररत्न क्रोध से देदीप्यमान लक्ष्मण ने अंकुश को मारने के लिए चला दिया ॥28॥ परंतु वह चक्र अंकुश के समीप जा कर निष्प्रभ हो गया और लौट कर पुनः लक्ष्मण के ही हस्ततल में आ गया ॥29।। तीव्र क्रोध के कारण वेग से युक्त लक्ष्मण ने कई बार वह चक्र अंकुश के समीप फेंका परंतु वह बार-बार लक्ष्मण के ही समीप लौट जाता था ॥30॥
अथानंतर परम विभ्रम को धारण करने वाले रणशाली, सुधीर अंकुश कुमार ने अपने धनुष दंड को उस तरह घुमाया कि उसे वैसा देख रण में जितने लोग उपस्थित थे उन सबका चित्त आश्चर्य से व्याप्त हो गया तथा सबके यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि अब यह परम शक्तिशाली दूसरा चक्रधर नारायण उत्पन्न हुआ है जिसके कि घूमते हुए चक्र ने सबको संशय में डाल दिया है ॥31-33।। क्या यह चक्र स्थिर है अथवा भ्रमण को प्राप्त है ? अत्यधिक गर्जना सुनाई पड़ रही है ।।34।। चक्ररत्न कोटिशिला आदि लक्षणों से प्रसिद्ध है सो यह मिथ्या जान पड़ता है क्योंकि इस समय यह चक्र यहाँ दूसरे को ही उत्पन्न हो गया है ॥35॥ अथवा मुनियों के वचनों में अन्यथापन कैसे हो सकता है ? क्या जिनेंद्र भगवान के भी शासन में कही हुई बातें व्यर्थ होती हैं ? ॥36।। यद्यपि वह धनुष दंड घुमाया गया था तथापि जिनकी बुद्धि मारी गई थी ऐसे लोगों के मुख से व्याकुलता से भरा हुआ यही शब्द निकल रहा था कि यह चक्ररत्न है ।।37।। उसी समय परम शक्ति को धारण करने वाले लक्ष्मण ने भी कहा कि जान पड़ता है ये दोनों बलभद्र और नारायण उत्पन्न हुए ॥38॥
अथानंतर लक्ष्मण को लज्जित और निश्चेष्ट देख नारद की संमति से सिद्धार्थ लक्ष्मण के पास जा कर बोला कि हे देव ! नारायण तो तुम्हीं हो, जिन शासन में कही बात अन्यथा कैसे हो सकती है ? वह तो मेरु पर्वत से भी कहीं अधिक निष्कंप है ॥36-40॥ ये दोनों कुमार जानकी के लवणांकुश नामक वे पुत्र हैं जिनके कि गर्भ में रहते हुए वह वन में छोड़ दी गई थी ॥41॥ मुझे यह ज्ञात है कि आप सीता-परित्याग के पश्चात् दुःखरूपी सागर में गिर गये थे अर्थात् आपने सीता परित्याग का बहुत दुःख अनुभव किया था और आपके दुःखी रहते रत्नों की सार्थकता नहीं थी ।॥42॥
तदनंतर सिद्धार्थ से लवणांकुश का माहात्म्य जान कर शोक से कृश लक्ष्मण ने कवच और शस्त्र छोड़ दिये ॥43॥ अथानंतर इस वृत्तांत को सुन जो विषाद के भार से पीड़ित थे, जिन्होंने धनुष और कवच छोड़ दिये थे, जिनके नेत्र घूम रहे थे, जिन्हें पिछले दुःख का स्मरण हो आया था, जो बड़े वेग से रथ से उतर पड़े थे तथा मूर्च्छा के कारण जिनके नेत्र निमीलित हो गये थे ऐसे राम पृथिवीतल पर गिर पड़े ।।44-45।। तदनंतर चंदन मिश्रित जल के सींचने से जब सचेत हुए तब स्नेह से आकुल हृदय होते हुए शीघ्र ही पुत्रों के समीप चले ॥46॥ ।
तदनंतर स्नेह से भरे हुए दोनों पुत्रों ने रथ से उतर कर हाथ जोड़ शिर से पिता के चरणों को नमस्कार किया ॥47॥ तत्पश्चात् जिनका हृदय स्नेह से द्रवीभूत हो गया था और जिनका मुख आंसुओं से दुर्दिन के समान जान पड़ता था ऐसे राम दोनों पुत्रों का आलिंगन कर विलाप करने लगे ॥48। वे कहने लगे कि हाय पुत्रो ! जब तुम गर्भ में स्थित थे तभी मुझ मंदबुद्धि ने तुम दोनों निर्दोष बालकों को सीता के साथ भीषण वन में छोड़ दिया था ॥49॥ हाय पुत्रो ! बड़े पुण्य के कारण मुझसे जन्म लेकर भी तुम दोनों ने उदरस्थ अवस्था में वन में परम दुःख कैसे प्राप्त किया ? ।।50।। हाय पुत्रो ! यदि उस समय उस वन में यह वज्रजंघ नहीं होता तो तुम्हारा यह मुखरूपी पूर्ण चंद्रमा किस प्रकार देख पाता ? ॥51॥ हाय पुत्रो ! जो तुम इन अमोघ शस्त्रों से नहीं हने गये हो सो जान पड़ता है कि देवों ने अथवा परम अभ्युदय से युक्त पुण्य ने तुम्हारी रक्षा की है ॥52।। हाय पुत्रो ! बाणों से विधे और युद्धभूमि में पड़े तुम दोनों को देखकर जानकी क्या करती यह मैं नहीं जानता ॥53॥ निर्वासन-परित्याग का दुःख तो अन्य मनुष्यों को भी दुःसह होता है फिर आप जैसे सुपुत्रों के द्वारा छोड़ी गुणशालिनी सीता की क्या दशा होती ? ॥54।। आप दोनों पुत्रों का मरण जान शोक से विह्वल सीता निश्चित ही जीवित नहीं रहती ॥55॥
जिनके नेत्र अश्रुओं से पूर्ण थे, तथा जो संभ्रांत हो शोक से विह्वल हो रहे थे ऐसे लक्ष्मण ने भी विनय से नम्रीभूत दोनों पुत्रों का बड़े स्नेह के साथ आलिंगन किया ॥56॥ शत्रुघ्न आदि राजा भी इस वृत्तांत को सुन उस स्थान पर गये और सभी उत्तम आनंद को प्राप्त हुए ॥57।। तदनंतर जब दोनों सेनाओं के स्वामी समागम होने पर सुख और आश्चर्य से पूर्ण हो गये तब दोनों सेनाओं का परस्पर समागम हुआ ॥58।। सीता भी पुत्रों का माहात्म्य तथा समागम देख निश्चिंत हृदय हो विमान द्वारा पौंडरीकपुर वापिस लौट गई ॥59॥
तदनंतर संभ्रम से भरे भामंडल ने आकाश से उतर कर घाव रहित दोनों भानेजों को साश्रुदृष्टि से देखते हुए उनका आलिंगन किया ॥60॥ प्रीति प्रकट करने में तत्पर हनुमान ने भी 'बहुत अच्छा हुआ' इस शब्द का बार-बार उच्चारण कर उन दोनों का आलिंगन किया ॥61।। विराधित तथा सुग्रीव भी इसी तरह सत्समागम को प्राप्त हुए और विभीषण आदि राजा भी कुमारों से वार्तालाप करने में तत्पर हुए ॥62॥
अथानंतर देवों के समान भूमिगोचरियों तथा विद्याधरों का वह समागम अत्यधिक महान् आनंद का कारण हुआ ॥63।। अत्यंत सुंदर पुत्रों का समागम पाकर जिनका हृदय धैर्य से भर गया था ऐसे राम ने उत्कृष्ट लक्ष्मी धारण की ॥64॥ किसी अनिर्वचनीय भाव को प्राप्त हुए श्रीराम ने उन सुपुत्रों के लाभ को तीनलोक के राज्य से भी कहीं अधिक सुंदर माना ॥65।। विद्याधरों की स्त्रियाँ बड़े हर्ष के साथ आकाशरूपी आँगन में और भूमिगोचरियों की स्त्रियाँ उन्मत्त संसार की नाई पृथ्वी पर नृत्य कर रही थीं ॥66॥ हर्ष से जिनके नेत्र फूल रहे थे ऐसे नारायण ने अपने आपको कृतकृत्य माना और समस्त संसार को जीता हुआ समझा ॥67॥ मैं सगर हूँ और ये दोनों वीर भीम तथा भगीरथ हैं इस प्रकार बुद्धि से उपमा को करते हुए लक्ष्मण परम दीप्ति को धारण कर रहे थे ॥68।। परमप्रीति को धारण करते हुए राम ने वज्रजंघ का खूब सम्मान किया और कहा कि सुंदर हृदय से युक्त तुम मेरे लिए भामंडल के समान हो ॥69॥
तदनंतर वह अयोध्या नगरी स्वर्ग के समान तो पहले ही की जा चुकी थी उस समय और भी अधिक सुंदर की गई थी ।।70।। जो स्त्री कला और ज्ञान की विशेषता से स्वभावतः सुंदर है उसका आभूषण संबंधी आदर पद्धति मात्र से किया जाता है अर्थात् वह पद्धति मात्र से आभूषण धारण करती है ॥71॥ तदनंतर जो गजघटा के पृष्ठ पर स्थित सूर्य के समान कांति संपन्न था ऐसे पुष्पक विमान पर राम अपने पुत्रों सहित आरूढ हो सूर्य के समान सुशोभित होने लगे ॥72॥ जिस प्रकार बिजली से सहित महामेघ, सुमेरु के शिखर पर आरूढ होता है उसी प्रकार उत्तम अलंकारों से सहित लक्ष्मण भी उसी पुष्पक विमान पर आरूढ हुए ॥73॥ इस प्रकार वे सब नगरी के बाहर के उद्यान, मंदिर और ध्वजाओं से व्याप्त कोट को देखते हुए नाना प्रकार के वाहनों से धीरे-धीरे चले ॥4॥ जिनके तीन स्थानों से मद भर रहा था ऐसे हाथी, घोड़ों के समूह, रथ तथा पैदल सैनिकों से व्याप्त नगर के मार्ग, धनुष, ध्वजा और छत्रों के द्वारा अंधकार युक्त हो रहे थे ।।75॥ महलों के झरोखे, लवणांकुश को देखने के लिए महा कौतूहल से युक्त उत्तम स्त्रियों के समूह से परिपूर्ण थे ॥76॥ नयन रूपी अंजलियों के द्वारा लवणांकुश का पान करने के लिए प्रवृत्त उदार हृदया स्त्रियाँ संतोष को प्राप्त नहीं हो रहीं थीं ॥77॥ उन्हीं एक में जिनका चित्त लग रहा था ऐसी देखने वाली स्त्रियों के पारस्परिक धक्का धूमी के कारण हार और कुंडल टूट कर गिर गये थे पर उन्हें पता भी नहीं चल सका था ॥78॥ हे मातः ! जरा मुख यहाँ से दूर हटा, क्या मुझे कौतुक नहीं है ? हे अखंडकौतुके ! तेरी यह स्वार्थपरता कितनी है ? ॥79।। हे सखि ! प्रसन्न होकर मस्तक कुछ नीचा कर लो, इतनी तनी क्यों खड़ी हो । यहाँ से चोटी को हटा लो ॥80॥ हे प्राणहीने ! हे क्षिप्त हृदये ! इस तरह दूसरे को क्यों पीड़ित कर रही है ? क्या आगे इस पीड़ित लड़की को नहीं देख रही है ? ॥81।। जरा हटकर खड़ी होओ, मैं गिर पड़ी हूँ, इस तरह तू क्या निश्चेतनता को प्राप्त हो रही है ? अरे कुमार को क्यों नहीं देखती है ? ॥82॥ हाय मातः ! कैसी स्त्री है ? यदि मैं देखती हूँ तो तुझे इससे क्या प्रयोजन ? हे दुर्बले ! मेरी इस प्रेरणा देने वाली को क्यों मना करती है ? ॥83।। जो ये दो कुमार श्रीराम के दोनों ओर बैठे हैं ये ही अर्धचंद्रमा के समान ललाट को धारण करने वाले लवण और अंकुश हैं ॥84।। इनमें अनंग लवण कौन है और मदनांकुश कौन है ? अहो ! ये दोनों ही कुमार अत्यंत सदृश आकार के धारक हैं ॥85॥ जो यह महारजत के रंग से रंगे-लाल रंग के कवच को धारण करता है वह लवण है और जो तोता के पंख के समान हरे रंग के वस्त्र पहने है वह अंकुश है ।।86॥ अहो ! सीता बड़ी पुण्यवती है जिसके कि ये दोनों उत्तम पुत्र हैं। अहो ! वह स्त्री अत्यंत धन्य है जो कि इनकी स्त्री होगी ॥87।। इस प्रकार उन्हीं एक में जिनके नेत्र लग रहे थे ऐसी उत्तमोत्तम स्त्रियों के बीच मन और कानों को हरण करने वाली अनेक कथाएँ चल रही थीं ॥88॥
उनमें जिसका चित्त लग रहा था ऐसी किसी स्त्री ने उस समय अत्यधिक धक्काधूमी के कारण कुंडल रूपी साँप की दाँढ़ से विमान-घायल हुए अपने कपोल को नहीं जानती थी ।।89।। अन्य स्त्री की भुजा के उत्पीड़न से बंद चोली के भीतर उठा हुआ किसी का स्तन मेघ सहित चंद्रमा के समानसुशोभित हो रहा था ॥90॥ किसी एक स्त्री की मेखना शब्द करती हुई नीचे गिर गई फिर भी उसे पता नहीं चला किंतु लौटते समय उसी करधनी से पैर फंस जाने के कारण वह गिर पड़ी ।।91।। किसी स्त्री की चोटी में लगी मकरी की डाँढ़ से फटे हुए वस्त्र को देखकर कोई बड़ी बूढ़ी स्त्री किसी से कुछ कह रही थी ॥92।। जिसका मन ढीला हो रहा था ऐसे किसी दूसरे मनुष्य के शरीर के शिथिलता को प्राप्त करने पर उसकी नीचे की ओर लटकती हुई बाहुरूपी लता के अग्रभाग से कड़ा नीचे गिर गया ॥93।। किसी एक स्त्री के कर्णाभरण में उलझा हुआ हार टूटकर गिर गया और ऐसा जान पड़ने लगा मानो फूलों की अंजलि ही बिखेर दी गई हो ।।94॥ उन दोनों कुमारों को देखकर किन्हीं स्त्रियों के नेत्र निर्निमेष हो गये और उनके दूर चले जाने पर भी वैसे ही निर्निमेष रहे आये ॥95॥ इस प्रकार उत्तमोत्तम भवनरूपी पर्वतों पर विद्यमान स्त्री रूपी लताओं के द्वारा छोड़े हुए फूलों के समूह से निकली धूली से जिन्होंने आकाश के प्रदेशों को धूसर वर्ण कर दिया था तथा जो परम वैभव को प्राप्त थे ऐसे श्रीराम आदि अत्यंत सुंदर राजाओं ने मंगल से परिपूर्ण महल में प्रवेश किया ॥96।। गौतमस्वामी कहते हैं कि पुण्यरूपी सूर्य के द्वारा जिसका उत्तम मनरूपी कमल विकसित हुआ है ऐसा मनुष्य इस प्रकार के अचिंतित तथा उत्तम प्रियजनों के समागम से उत्पन्न आनंद को प्राप्त होता है ॥97॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में राम तथा लवणांकुश के समागम का वर्णन करने वाला एक सौ तीसरा पर्व समाप्त हुआ ॥103॥