ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 123
From जैनकोष
एक सौ तेईसवां पर्व
अथानंतर सीतेंद्र, लक्ष्मण के गुणरूपी सागर का स्मरण कर उसे संबोधने की इच्छा करता हुआ बालुकाप्रभा की ओर चला ॥1॥ मनुष्यों के लिए अत्यंत दुर्गम मानुषोत्तर पर्वत को लाँघकर तथा क्रम से नीचे रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा की भूमि को भी उल्लंघन कर वह तीसरी बालुकाप्रभा भूमि में पहुँचा । वहाँ पहुँचकर उसने नारकियों की अत्यंत घृणित कष्ट की अधिकता से दुःसह एवं पाप कर्म से उत्पन्न अवस्था देखी ॥2-3॥ लक्ष्मण के द्वारा मारा गया जो शंबूक असुरकुमार हुआ था वह शिकारी के पुत्र के समान इस भूमि में हिंसापूर्ण क्रीड़ा कर रहा था ॥4॥ वह कितने ही नारकियों को ऊपर बाँधकर स्वयं मारता था, कितनों ही को सेवकों से मरवाता था और घिरे हुए कितने ही नारकियों को परस्पर लड़ाता था ॥5॥ विरूप शब्द करने वाले कितने ही नारकी बाँधकर अग्निकुंडों में फेंके जाते थे, और कितने ही जिनके अंग-अंग में काँटा लग रहे थे ऐसे सेमर के वृक्षों पर चढ़ाये-उतारे जाते थे ॥6॥ कितने ही सब ओर खड़े हुए नारकियों के द्वारा लोह-निर्मित मसलों से कूटे जाते थे और कितने ही को निर्दय देवों के द्वारा अपना मांस तथा रुधिर खिलाया जाता था ॥7॥ गाढ़ प्रहार से खंडित हो पृथिवी तल पर लोटने वाले नारकी कुत्ते, बिलाव, सिंह, व्याघ्र तथा अनेक पक्षियों के द्वारा खाये जा रहे थे ॥8॥ कितने ही शूली पर चढ़ा कर भेदे जाते थे, कितने ही घनों और मुद्गरों से पीटे जाते थे, कितने ही तांबा आदि के स्वरस रूपी जल से भरी कुंभियों में डाले जाते थे ॥9।। लकड़ियाँ बाँध देने से निश्चल खड़े हुए कितने नारकी करोंतों से विदारे जाते थे, और कितने ही नारकियों को जबरदस्ती ताम्र आदि धातुओं का पिघला द्रव पिलाया जाता था ॥10॥ कितने ही कोल्हुओं में पेले जाते थे, कितने ही बाणों से छेदे जाते थे, और कितने ही दाँत, नेत्र तथा जिह्वा के उपाड़ने का दुःख प्राप्त कर रहे थे ॥11॥ इस प्रकार नारकियों के दुःख देखकर सीतेंद्र को बहुत भारी दया उत्पन्न हुई ॥12॥
तदनंतर उसने अग्निकुंड से निकले और अन्य अनेक नारकियों के द्वारा सब ओर से घेरकर नाना तरह से दुःखी किये जाने वाले लक्ष्मण को देखा ॥13॥ वहीं उसने देखा कि, लक्ष्मण विक्रिया कृत मगर-मच्छों से व्याप्त वैतरणी के भयंकर जल में छटपटा रहा है और असिपत्र वन में शस्त्राकार पत्रों से छेदा जा रहा है ॥14॥ उसने यह भी देखा कि लक्ष्मण को मारने के लिए बाधा पहुँचाने वाला एक भयंकर नारकी कुपित हो हाथ में बड़ी भारी गदा लेकर उद्यत हो रहा है तथा उसे दूसरे नारकी मार रहे हैं ॥15॥ सीतेंद्र ने वहीं उस रावण को देखा कि जिसके नेत्र अत्यंत भयंकर थे, जिसके शरीर से मल-मूत्र झड़ रहे थे, जिसका मुख बहुत बड़ा था और शंबूक का जीव असुरकुमार देव जिसे लक्ष्मण के विरुद्ध प्रेरणा दे रहा था ॥16॥
तदनंतर इसी बीच में महातेजस्वी सीतेंद्र, भवनवासियों के उस दुष्ट समूह को डाँटे दिखाता हुआ पास में पहुँचा ॥17॥ उसने कहा कि अरे ! रे ! पापी शंबूक ! तूने यह क्या प्रारंभ कर रक्खा है ? तुझ निर्दय चित्त को क्या अब भी शांति नहीं है? ॥18॥ हे अधमदेव ! क्रूर कार्य छोड़, मध्यस्थ हो, अत्यंत अनर्थ के कारणभूत इस अभिमान से क्या प्रयोजन सिद्ध होना है ? ॥19॥ नरक के इस दुःख को सुनकर ही प्राणी को भय उत्पन्न हो जाता है, फिर तुझे प्रत्यक्ष देखकर भी भय क्यों नहीं उत्पन्न होता है ? ॥20॥ तदनंतर शंबूक के शांत हो जाने पर ज्यों ही सीतेंद्र संबोधने के लिए तैयार हुआ त्यों ही अत्यंत क्रूर काम करने वाले, चंचल एवं दुग्रह चित्त के धारक वे नारकी देव की प्रभा से तिरस्कृत हो शीघ्र ही इधर-उधर भाग गये ।।21-22॥ कितने ही दीन-हीन नारकी, धाराबद्ध पड़ते हुए आँसुओं से मुख को गीला करते हुए रोने लगे, कितने ही दौड़ते-ही-दौड़ते अत्यंत विषम गर्तों में गिर गये ॥23 ॥ तब सांत्वना देते हुए सीतेंद्र ने कहा कि 'अहो नारकियो ! भागो मत, भयभीत मत होओ, तुम लोग बहुत दुःखी हो, लौटकर आओ, भय मत करो, भय मत करो, खड़े रहो' इस प्रकार कहने पर भी वे भय से काँपते हुए गाढ़ अंधकार में प्रविष्ट हो गये ॥24-25॥ तदनंतर यही बात जब सीतेंद्र ने फिर से कही तब कहीं उनका कुछ-कुछ भय कम हुआ और बड़ी कठिनाई से वे चित्त की स्थिरता को प्राप्त हुए ॥26॥ शांत वातावरण होनेपर सीतेंद्र ने कहा कि महामोह से जिनकी आत्मा हरी गई है ऐसे हे नारकियो ! तुम लोग इस दशा से युक्त होकर भी आत्मा का हित नहीं जानते हो ? ॥27॥ जिन्होंने लोक का अंत नहीं देखा है, जो हिंसा, झूठ और परधन के हरण में तत्पर हैं, रौद्रध्यानी हैं तथा नरक में स्थित रहने वाले के प्रति जिनकी द्वेष बुद्धि है ऐसे लोग ही नरक में आते हैं ॥28।। जो भोगों के अधिकार में संलग्न हैं, तीन क्रोधादि कषायों से अनुरंजित हैं और निरंतर विरुद्ध कार्य करने में तत्पर रहते हैं ऐसे लोग ही इस प्रकार के दुःख को प्राप्त होते हैं ॥29॥
अथानंतर सुंदर विमान के अग्रभाग पर स्थित सुरेंद्र को देखकर लक्ष्मण और रावण के जीव ने सबसे पहले पूछा कि आप कौन हैं ? ॥30॥ तब सुरेंद्र ने उनके लिए श्रीराम का तथा अपना सब वृत्तांत कह सुनाया और साथ ही यह भी कहा कि कर्मानुसार यह सब विचित्र कार्य संभव हो जाते हैं ॥31॥ तदनंतर अपना वृत्तांत सुनकर जो प्रतिबोध को प्राप्त हुए थे तथा जिनकी आत्मा शांत हो गई थी ऐसे वे दोनों दीनतापूर्वक इस प्रकार शोक करने लगे ॥32॥ कि अहो ! हम लोगों ने उस समय मनुष्य जन्म में धर्म में रुचि क्यों नहीं की ? जिससे पाप कर्मों के कारण इस अवस्था को प्राप्त हुए हैं ॥33॥ हाय-हाय, आत्मा को दुःख देने वाला यह क्या विकट कार्य हम लोगों ने कर डाला ? अहो ! यह सब मोह की महिमा है कि जिसके कारण जीव आत्महित से भ्रष्ट हो जाता है ॥34॥ हे देवेंद्र ! तुम्हीं धन्य हो, जो विषयों की इच्छा छोड़ तथा जिनवाणीरूपी अमृत का पानकर देवों की ईशता को प्राप्त हुए हो ॥35॥
तदनंतर अत्यधिक करुणा को धारण करने वाले देवेंद्र ने कई बार कहा कि 'डरो मत, डरो मत, आओ, आओ, मैं तुम लोगों को नरक से निकालकर स्वर्ग लिये चलता हूँ' ॥36॥ तत्पश्चात् वह सुरेंद्र कमर कसकर उन्हें स्वयं ले जाने के लिए उद्यत हुआ परंतु वे पकड़ने में न आये। जिस प्रकार अग्नि में तपाने से नवनीत पिघलकर रह जाता है उसी प्रकार वे नारकी भी पिघलकर वहीं रह गये ॥37॥ इंद्र ने उन्हें उठाने के लिए सभी प्रयत्न किये पर वे उठाये नहीं जा सके। जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित ग्रहण में नहीं आते उसी प्रकार वे भी ग्रहण में नहीं आ सके ॥38॥ तदनंतर अत्यंत दुःखी होते हुए उन नारकियों ने कहा कि हे देव ! हम लोगों के जो पूर्वोपार्जित कर्म हैं, वे निःसंदेह भोगने के योग्य नहीं हैं ॥39॥ जो विषयरूपी आमिष के लोभी होकर नरक के दुःख को प्राप्त हुए हैं तथा जो अपने द्वारा किये हुए कर्मों के पराधीन हैं उनका देव लोग क्या कर सकते हैं ? ॥40॥ यतश्च अपने द्वारा किया हुआ कर्म नियम से भोगना पड़ता है इसलिए हे देव! तुम हम लोगों को दुःख से छुड़ाने में समर्थ नहीं हो ॥41॥ हे सीतेंद्र ! हमारी रक्षा करो, अब हम जिस कारण फिर नरक को प्राप्त न हों कृपा कर वह बात तुम हमें बताओ ॥42॥
तदनंतर देव ने कहा कि जो उत्कृष्ट है, नित्य है, आनंद रूप है, उत्तम है, मूढ़ मनुष्यों के लिए मानो रहस्यपूर्ण है, जगत्त्रय में प्रसिद्ध है, कर्मों को नष्ट करने वाला है, शुद्ध है, पवित्र है, परमार्थ को देने वाला है, जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है और यदि प्राप्त हुआ भी है तो प्रमादी मनुष्य जिसकी सुरक्षा नहीं रख सके हैं, जो अभव्य जीवों के लिए अज्ञेय है और दीर्घ संसार को भय उत्पन्न करने वाला है, ऐसा सबल एवं दुर्लभ सम्यग्दर्शन ही आत्मा का सबसे बड़ा कल्याण है ॥43-45।। यदि आप लोग अपना भला चाहते हैं तो इस दशा में स्थित होने पर भी सम्यक्त्व को प्राप्त करो। यह सम्यक्त्व समय पर बोधि को प्रदान करने वाला एवं शुभरूप है ॥46।। इससे बढ़कर दूसरा कल्याण न है, न था, न होगा। इसके रहते ही महर्षि सिद्ध होंगे, अभी हो रहे हैं और पहले भी हुए थे ॥47॥ महा उत्तम अरहंत जिनेंद्र भगवान् ने जीवादि पदार्थों का जैसा निरूपण किया है वह वैसा ही है । इस प्रकार भक्तिपूर्वक दृढ़ श्रद्धान होना सो सम्यग्दर्शन है ॥48॥
इत्यादि वचनों के द्वारा नरक में स्थित उन लोगों को यद्यपि सीतेंद्र ने सम्यग्दर्शन प्राप्त करा दिया था तथापि उत्तम भोगों का अनुभव करने वाला वह सीतेंद्र उनके प्रति शोक करने में लीन था ॥49॥ उसकी आँखों में उनका पूर्वभव झूल गया और उसे ऐसा लगने लगा कि देखो, जिस प्रकार अग्नि के द्वारा नवीन उद्यान जल जाता है उसी प्रकार इनका कांति और लावण्य पूर्ण सुंदर शरीर कर्म के द्वारा जल गया है ॥50॥ जिसे देख उस समय सारा संसार आश्चर्य में पड़ जाता था इनकी वह उदात्त तथा सुंदर क्रीड़ाओं से युक्त कांति कहाँ गई ? ॥51॥ वह उनसे कहने लगा कि देखो कर्मभूमि के उस क्षुद्र सुख के कारण आप लोग पाप कर इस दुःख के सागर में निमग्न हुए हैं ॥52॥ इस प्रकार सीतेंद्र के कहने पर अनादि भवों में क्लेश उठाने वाले उन लोगों ने वह उत्तम सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया जो कि उन्हें पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था ॥53।। उन्होंने कहा कि इस बीच में जिसका छूटना अशक्य है ऐसे इस दुःख को भोगकर जब यहाँ से निकलेंगे तब मनुष्य भव धारणकर श्री जिनेंद्र देव की शरण रहेंगे ।।54।। अहो देव ! तुमने हम सबका बड़ा हित किया जो यहाँ आकर उत्तम सम्यग्दर्शन में लगाया है ॥55॥ हे महाभाग ! सीतेंद्र ! जाओ-जाओ अपने आरणाच्युत कल्प को जाओ और शुद्ध धर्म का विशाल फल भोगकर मोक्ष को प्राप्त होओ ॥56॥ इस प्रकार उन सबके कहने पर यद्यपि वह सीतेंद्र शोक के कारणों से रहित हो गया था तथापि परम ऋद्धि को धारण करने वाला वह मन ही मन शोक करता जाता था ॥57।। तदनंतर महान पुण्य को धारण करने वाला वह धीर-वीर सुरेंद्र, उन सबके लिए बोधिदायक शुभ उपदेश देकर अपने स्थान पर आरूढ हो गया ॥58॥
नरक से निकलकर जिसकी आत्मा अत्यंत भयभीत हो रही थी ऐसा वह सीतेंद्र मन ही मन अरहंत सिद्ध साधु और केवलीप्रणीत धर्म इन चार की शरण को प्राप्त हुआ और अनेकों बार उसने मेरु पर्वत की प्रदक्षिणाएँ दी ॥59॥ नरकगति के उस दुःख को देखकर, स्मरण कर, तथा वहाँ के शब्द का ध्यान कर वह सुरेंद्र विमान में भी काँप उठता था ॥60॥ जिसका हृदय काँप रहा था तथा जिसका मुख शोभासंपन्न चंद्रमा के समान था, ऐसा वह बुद्धिमान् सुरेंद्र फिर से भरत क्षेत्र में उतरने के लिए उद्यत हुआ ॥61॥ उस समय वायु के समान वेगशाली घोड़े, सिंह तथा मदोन्मत्त हाथियों के समूह से युक्त, चलते हुए विमानों से और नाना रंग के वस्त्रों को धारण करने वाले, वानर तथा माला आदि के चिह्नों से युक्त मुकुटों से उज्ज्वल, नाना प्रकार के वाहनों पर आरूढ़, पताका तथा छत्र आदि से शोभित शतघ्नी, शक्ति, चक्र, असि, धनुष, कुंत और गदा को धारण करने वाले, सब ओर गमन करते हुए, अप्सराओं के समूह से सहित सुंदर देवों से और बाँसुरी तथा वीणा के शब्दों से सहित तथा जय जयकार, नंद, वर्धस्व आदि शब्दों से मिश्रित मृदंग और दुंदुभि के नाद से आकाश भर गया था ॥62-65।।
अथानंतर परम अभ्युदय को धारण करने वाला सीतेंद्र श्री राम केवली की शरण में गया। वहाँ जाकर उसने हाथ जोड़ भक्तिपूर्वक बार-बार प्रणाम किया ॥66।। तदनंतर सँसार-सागर से पार होने के उपाय जानने के लिए जिसका अभिप्राय दृढ़ था ऐसे उस विनयी सीतेंद्र ने श्री राम केवली की इस तरह स्तुति करना प्रारंभ किया ॥67।। वह कहने लगा कि हे भगवन् ! आपने ध्यानरूपी वायु से युक्त तथा तप के द्वारा की हुई देदीप्यमान ज्ञानरूपी अग्नि से संसाररूपी अटवी को दग्ध कर दिया है ॥68॥ आपने शुद्ध लेश्यारूपी त्रिशूल के द्वारा मोहनीय कर्मरूपी शत्रु का घात किया है, और दृढ़ वैराग्यरूपी वन के द्वारा स्नेहरूपी-पिंजड़ा चूर-चूर कर दिया है ।।69।। हे नाथ ! मैं संसाररूपी अटवी के बीच पड़ा जीवन-मरण के संशय में झूल रहा हूँ अतः हे मुनींद्र ! हे भवसूदन ! मेरे लिए शरण हूजिए ॥70॥ हे राम ! आप प्राप्त करने योग्य सब पदार्थ प्राप्त कर चुके हैं, सब पदार्थों के ज्ञाता हैं, कृतकृत्य हैं, और जगत के गुरु हैं अतः मेरी रक्षा कीजिए, मेरा मन अत्यंत व्याकुल हो रहा है ।।71॥ श्री मुनिसुव्रतनाथ के शासन की अच्छी तरह सेवा कर आप विशाल तप के द्वारा संसार-सागर के अंत को प्राप्त हुए हैं ॥72॥ हे राम ! क्या यह तुम्हें उचित है जो तुम मुझे बिलकुल छोड़ अकेले ही उन्नत निर्मल और अविनाशी पद को जा रहे हो ॥73॥
तदनंतर मुनिराज ने कहा कि हे सुरेंद्र ! राग छोड़ो क्योंकि वैराग्य में आरूढ मनुष्य की मुक्ति होती है और रागी मनुष्य का संसार में डूबना होता है ।।74॥ जिस प्रकार कंठ में शिला बाँधकर भुजाओं से नदी नहीं तैरी जा सकती उसी प्रकार रागादि से संसार नहीं तिरा जा सकता ॥7॥। जिसका चित्त निरंतर ज्ञान में लीन रहता है तथा जो गुरुजनों के कहे अनुसार प्रवृत्ति करता है ऐसा मनुष्य ही ज्ञान, शील आदि गुणों की आसक्ति से संसार-सागर को तैर सकता है ॥76॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! विद्वानों को यह समझ लेना चाहिए कि महाप्रतापी केवली आदि मध्य और अवसान में अर्थात् प्रत्येक समय सब पदार्थों के गुणों को ग्रस्त करते हैं जानते हैं ।।77॥ हे राजन् ! अब इसके आगे सीतेंद्र ने जो पूछा और केवली ने जो उत्तर दिया वह सब कहूंगा ॥78॥
सीतेंद्र ने केवली से पूछा कि हे नाथ ! हे सर्वज्ञ ! ये दशरथ आदि भव्य जीव कहाँ हैं ? तथा लवण और अंकुश की आपने कौन-सी गति देखी है ? अर्थात् ये कहाँ उत्पन्न होंगे ? ॥79॥ तब केवली ने कहा कि राजा दशरथ आनत स्वर्ग में देव हुए हैं। इनके सिवाय सुमित्रा, कैकयी, सुप्रजा (सुप्रभा) और अपराजिता (कौशल्या), जनक तथा कनक ये सभी सम्यग्दृष्टि अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार बँधे हुए कर्म से उसी आनत स्वर्ग में तुल्य विभूति के धारक देव हैं ॥80-81॥ ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा समानता रखने वाले लवण और अंकुश नामक दोनों महाभाग मुनि कर्मरूपी धूलि से रहित हो अविनाशी पद प्राप्त करेंगे ॥82॥ केवली के इस प्रकार कहने पर सीतेंद्र हर्ष से अत्यधिक संतुष्ट हुआ। तदनंतर उसने स्नेह वश भाई-भामंडल का स्मरण कर उसकी चेष्टा पूछी ॥83।। इसके उत्तर में तुम्हारा भाई भी, इतना कहते ही सीतेंद्र कुछ दुःखी हुआ। तदनंतर उसने हाथ जोड़कर पूछा कि हे मुनिराज, वह कहाँ उत्पन्न हुआ है ? ।।84॥ तदनंतर पद्मनाभ (राम) ने कहा कि हे अच्युतेंद्र ! तुम्हारा भाई जिस चेष्टा से जहाँ उत्पन्न हुआ है उसे कहता हूँ सो सुन ॥85॥
अयोध्या नगरी में अपने कुल का स्वामी अनेक करोड़ का धनी, तथा मकरी नामक प्रिया के साथ कामभोग करने वाला एक 'वज्रांक' नाम का सेठ था ॥86॥ उसके अनेक पुत्र थे तथा वह राजा के समान वैभव को धारण करने वाला था। सीता को निर्वासित सुन वह इस प्रकार की चिंता को प्राप्त हुआ कि 'अत्यंत सुकुमारांगी तथा दिव्य गुणों से अलंकृत सीता वन में किस अवस्था को प्राप्त हुई होगी' ? इस चिंता से वह अत्यंत दुःखी हुआ ॥87-88।। तदनंतर जिसके पास दयालु हृदय विद्यमान था, और जिसे संसार से द्वेष उत्पन्न हो रहा था ऐसा वह वज्रांक सेठ परम वैराग्य को प्राप्त हो द्युति नामक मुनिराज के पास दीक्षित हो गया । इसकी दीक्षा का हाल घर के लोगों को विदित नहीं था ॥89॥ उसके अशोक और तिलक नाम के दो विनयवान् पुत्र थे, सो वे किसी समय निमित्तज्ञानी द्युति मुनिराज के पास अपने पिता का हाल पूछने के लिए गये ॥90॥ वहीं पिता को देखकर स्नेह अथवा वैराग्य के कारण अशोक तथा तिलक भी उन्हीं द्युति मुनिराज के पादमूल में दीक्षित हो गये ॥91॥ द्युति मुनिराज परम तपश्चरण कर तथा आयु का क्षय प्राप्त कर शिष्यजनों को उत्कंठा प्रदान करते हुए उर्ध्व ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुए ॥92॥ यहाँ पिता और दोनों पुत्र मिलकर तीनों मुनि, गुरु के कहे अनुसार प्रवृत्ति करते हुए जिनेंद्र भगवान् की वंदना करने के लिए ताम्रचूडपुर की ओर चले ॥93।। बीच में पचास योजन प्रमाण बालू का समुद्र (रेगिस्तान) मिलता था सो वे इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच पाये, बीच में ही वर्षा काल आ गया ॥94॥ उस रेगिस्तान में जिसका मिलना अत्यंत कठिन था तथा जो पात्र दान से प्राप्त होने वाले अभ्युदय के समान जान पड़ता था एवं जो अनेक शाखाओं और उपशाखाओं से युक्त था ऐसे एक वृक्ष को पाकर उसके आश्रय उक्त तीनों मुनिराज ठहर गये ॥95॥
तदनंतर अयोध्यापुरी को जाते समय जनक के पुत्र भामंडल ने वे तीनों मुनिराज देखे। देखते ही इस पुण्यात्मा के मन में यह विचार आया कि ये मुनि, आचार की रक्षा के निमित्त इस निर्जन वन में ठहर गये हैं परंतु प्राण धारण के लिए आहार कहाँ करेंगे ? ॥96-97॥ ऐसा विचारकर सद्विद्या की उत्तम शक्ति से युक्त भामंडल ने बिलकुल पास में एक अत्यंत सुंदर नगर बसाया जो सब प्रकार को सामग्री से सहित था, स्थान-स्थान पर उसने घोष― अहीर आदि के रहने के ठिकाने दिखलाये । तदनंतर अपने स्वाभाविक रूप में स्थित हो उसने विनयपूर्वक मुनियों के लिए नमस्कार किया ॥98-99॥ वह अपने परिजनों के साथ वहीं रहने लगा तथा योग्य देश काल में दृष्टिगोचर हुए सत्पुरुषों को भावपूर्वक न्याय के साथ हर्ष सहित भोजन कराने लगा ॥100। इस निर्जन वन में जो मुनिराज थे उन्हें तथा पृथिवी पर उत्कृष्ट संयम को धारण करने वाले जो अन्य विपत्तिग्रस्त साधु थे उन सबको वह आहार आदि देकर संतुष्ट करने लगा ॥101॥ मुक्ति की भावना रख पुण्यरूपी सागर में वाणिज्य करने वाले मनुष्यों के जो सेवक हैं धर्मानुरागी भामंडल को उन्हीं का दृष्टांत देना चाहिए। अर्थात् मुनि तो पुण्यरूपी सागर में वाणिज्य करने वाले हैं और भामंडल उनके सेवक के समान हैं ॥102।।
किसी एक दिन भामंडल उद्यान में गया था वहाँ अपनी मालिनी नामक स्त्री के साथ वह शय्या पर सुख से पड़ा था कि अचानक वज्रपात होने से उसकी मृत्यु हो गई ॥103॥ तदनंतर मुनि-दान से उत्पन्न पुण्य के प्रभाव से वह मेरु पर्वत के दक्षिण में विद्यमान देवकुरु में तीन पल्य की आयु वाला दिव्य लक्षणों से भूषित उत्तम आर्य हुआ ॥104॥ इस तरह उत्तम दीप्ति को धारण करने वाला वह आर्य, अपनी सुंदर मालिनी स्त्री के साथ उस देवकुरु में महाविस्तार को प्राप्त हुए पात्रदान के फल का उपभोग कर रहा है ॥105॥ जो शक्तिसंपन्न मनुष्य, पात्रों के लिए अन्न देकर संतुष्ट करते हैं वे भोगभूमि पाकर परम पद को प्राप्त होते हैं ॥106।। भोगभूमि से च्युत हुए मनुष्य स्वर्ग में भोग भोगते हैं क्योंकि वहाँ के मनुष्यों का यह स्वभाव ही है। यथार्थ में दान से भोग की संपदाएँ प्राप्त होती हैं ॥107॥
दान से सुख की प्राप्ति होती है और दान स्वर्ग तथा मोक्ष का प्रधान कारण है। इस प्रकार भामंडल के दान का माहात्म्य सुनकर सीतेंद्र ने बालुकाप्रभा पृथिवी में पड़े हुए रावण और उसी अधोभूमि में पड़े लक्ष्मण के विषय में पूछा कि हे नाथ ! यह लक्ष्मण पाप का अंत होने पर नरक से निकलकर क्या होगा ? हे प्रभो! वह रावण का जीव कौन गति को प्राप्त होगा और मैं स्वयं इसके बाद क्या होऊँगा ? यह सब मैं जानना चाहता हूँ ॥108-110।। इस प्रकार प्रश्न कर जब स्वयंप्रभ नाम का सीतेंद्र उत्तर जानने के लिए उद्यत चित्त हो गया तब सर्वज्ञ देव ने उनके आगामी भवों की उत्पत्ति से संबंध रखने वाले वचन कहे ॥111॥
उन्होंने कहा कि हे सीतेंद्र ! सुन, स्वकृत कर्म के अभ्युदय से सहित रावण और लक्ष्मण, नरक संबंधी दुःख भोगकर तथा तीसरे नरक से निकलकर मेरुपर्वत से पूर्व की ओर विजयावती नामक नगरी में सुनंद नामक सम्यग्दृष्टि गृहस्थ की रोहिणी नामक स्त्री के क्रमशः अर्हद̖दास और ऋषिदास नाम के पुत्र होंगे। ये पुत्र सद्गुणों से प्रसिद्ध, अत्यधिक उत्सवपूर्ण चित्त के धारक और प्रशंसनीय क्रियाओं के करने में तत्पर होंगे ॥112-115॥ वहाँ गृहस्थ की विधि से देवाधिदेव जिनेंद्र भगवान की पूजा कर अणुव्रत के धारी होंगे और अंत में मरकर उत्तम देव होंगे ॥116॥ वहाँ चिरकाल तक पंचेंद्रियों के मनोहर सुख प्राप्त कर वहाँ से च्युत हो उसी महाकुल में पुनः उत्पन्न होंगे ॥117॥ फिर पात्रदान के प्रभाव से हरिक्षेत्र प्राप्त कर स्वर्ग जावेंगे। तदनंतर वहाँ से च्युत हो उसी नगर में राजपुत्र होंगे ॥118॥ वहाँ इनके पिता का नाम कुमारकीर्ति और माता का नाम लक्ष्मी होगा तथा स्वयं ये दोनों कुमार जयकांत और जयप्रभ नाम के धारक होंगे ।।119॥ तदनंतर तप करके लांतव स्वर्ग जावेंगे। वहाँ उत्तम देवपद प्राप्त कर तत्संबंधी सुख का उपभोग करेंगे ॥120।। हे सीतेंद्र ! तू आरणाच्युत कल्प से च्युत हो इस भरतक्षेत्र के रत्नस्थलपुर नामक नगर में सब रत्नों का स्वामी चक्ररथ नाम का श्रीमान् चक्रवर्ती होगा ॥121।। रावण और लक्ष्मण के जीव जो लांतव स्वर्ग में देव हुए थे वे वहाँ से च्युत हो पुण्य रस के प्रभाव से तुम्हारे क्रमशः इंद्ररथ और मेघरथ नामक पुत्र होंगे ॥122।। जो पहले दशानन नाम का तेरा महाबलवान् शत्रु था, जिसने भरतक्षेत्र के तीन खंड वश कर लिये थे, और जिसके यह निश्चय था कि जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी उसे मैं नहीं चाहूँगा । निश्चय ही नहीं, जिसने जीवन भले ही छोड़ दिया था पर इस सत्यव्रत को नहीं छोड़ा था किंतु उसका अच्छी तरह पालन किया था। वह रावण का जीव धर्मपरायण इंद्ररथ होकर तिर्यंच और नरक को छोड़ अनेक उत्तम भव पा मनुष्य होकर सर्व प्राणियों के लिए दुर्लभ तीर्थकर नाम कर्म का बंध करेगा। तदनंतर वह पुण्यात्मा अनुक्रम से तीनों लोकों के जीवों से पूजा प्राप्त कर मोहादि शत्रुओं के समूह को नष्ट कर अर्हंत पद प्राप्त करेगा ॥123-127॥ और तेरा जीव जो चक्ररथ नाम का चक्रधर हुआ था वह रत्नस्थलपुर में राज्य कर अंत में तपोबल से वैजयंत विमान में अहमिंद्र पद को प्राप्त होगा ॥128॥ वहीं तू स्वर्गलोक से च्युत हो उक्त तीर्थंकर का ऋद्धिधारी श्रीमान् प्रथम गणधर होगा ॥129।। और उसके बाद परम निर्वाण को प्राप्त होगा। इस प्रकार सुनकर सीता का जीव सुरेंद्र, भावपूर्ण अंतरात्मा से परमसंतोष को प्राप्त हुआ ॥130॥ सर्वज्ञ देव ने लक्ष्मण के जीव का जो निरूपण किया था, वह मेघरथ नाम का चक्रवर्ती का पुत्र होकर धर्मपूर्ण आचरण करता हुआ कितने ही उत्तम भवों में भ्रमण कर पुष्करद्वीप संबंधी विदेह क्षेत्र के शतपत्र नामा नगर में अपने योग्य समय में जन्माभिषेक प्राप्त कर तीर्थंकर और चक्रवर्ती पद को प्राप्त हो निर्वाण प्राप्त करेगा ॥131-133॥ और मैं भी सात वर्ष पूर्ण होते ही पुनर्जन्म से रहित हो वहाँ जाऊँगा जहाँ भरत आदि मुनिराज गये हैं ॥134॥
इस प्रकार आगामी भवों का वृत्तांत जानकर जिसका सब संशय दूर हो गया था, तथा जो महाभावना से सहित था ऐसा सुरेंद्र सीतेंद्र, श्री पद्मनाभ केवली की बार-बार स्तुति कर तथा नमस्कार कर उनके अभ्युदय युक्त रहते हुए चैत्यालयों की वंदना करने के लिए चला गया ॥135-136।। वह अत्यंत भक्त हो तीर्थंकरों के निर्वाण-क्षेत्रों की पूजा करता, नंदीश्वर द्वीप में जिन-प्रतिमाओं की अर्चा करता, देवाधिदेव जिनेंद्र भगवान् को निरंतर मन में धारण करता स्वयं केवली पद को प्राप्त हुए के समान परम सुख का अनुभव करता, पाप कर्म को भस्मीभूत मानता, हर्षित तथा सदाचार से युक्त होता और देवों के समूह से आवृत होता हुआ स्वर्गलोक चला गया ॥137-139।। उस समय उसने स्वर्ग जाते-जाते भाई के पुरातन स्नेह के कारण देवकुरु में भामंडल के जीच को देखा और उसके साथ प्रिय वार्तालाप किया ॥140॥ वह सीतेंद्र सर्व मनोरथों को पूर्ण करने वाले उस आरणाच्युत कल्प में हजारों देवियों के साथ रमण करता हुआ रहता था ॥141॥ राम की आयु सत्रह हजार वर्ष की तथा उनके और लक्ष्मण के शरीर की ऊँचाई सोलह धनुष की थी ॥142।। गौतम स्वामी कहते हैं कि इस तरह पुण्य और पाप का अंतर जान कर पाप को दूर से ही छोड़कर पुण्य का ही संचय करना उत्तम है ॥143।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! देखो जिनेंद्र देव के उत्तम शासन में धैर्य को प्राप्त हुए बलभद्र पद के धारी विभु रामचंद्र ने जन्म-जरा-मरण रूपी महाबलवान् शत्रु पराजित कर दिये ॥144॥ वे रामचंद्र, श्री जिनेंद्र देव के प्रसाद से जन्म-जरा-मरण का व्युच्छेद कर अत्यंत दुर्लभ, निर्दोष, अनुपम, नित्य और उत्कृष्ट कैवल्य सुख को प्राप्त हुए ॥145॥ मुनींद्र देवेंद्र और असुरेंद्रों के द्वारा जो स्तुत, महित तथा नमस्कृत हैं, जिन्होंने दोषों को नष्ट कर दिया है, जो सैकड़ों प्रकार के हर्ष से उपगीत हैं तथा विद्याधरों की पुष्प-वृष्टियों की अधिकता से जिनका देखना भी कठिन है ऐसे श्रीराम महामुनि, पच्चीस वर्ष तक उत्कृष्ट विधि से जैनाचार की आराधना कर समस्त जीव समूह के आभरणभूत, तथा सिद्ध परमेष्ठियों के निवास क्षेत्र स्वरूप तीन लोक के शिखर को प्राप्त हुए ॥146-147॥ हे भव्य जनो ! जिनके संसारके कारण-मिथ्या दर्शनादि भाव नष्ट हो चुके थे, जो उत्तम योग के धारक थे, शुद्ध भाव और शुद्ध हृदय के धारक थे, कर्मरूपी शत्रुओं के जीतने में वीर थे, मन को आनंद देने वाले थे और मुनियों में श्रेष्ठ थे उन भगवान राम को शिर से प्रणाम करो ॥148।। जिन्होंने तरुण सूर्य के तेज को जीत लिया था, जिन्होंने पूर्ण चंद्रमा के मंडल को नीचा कर दिया था, जो अत्यंत सुदृढ़ था, पूर्व स्नेह के वश अथवा धर्म में स्थित होने के कारण सीता के जीव प्रतींद्र ने जिनकी अत्यधिक पूजा की थी, तथा जो परम ऋद्धि को प्राप्त थे ऐसे मुनि प्रधान श्रीरामचंद्र को नमस्कार करो ॥149-150।। जो बलदेवों में आठवें बलदेव थे, जिनका शरीर अत्यंत शुद्ध था, जो श्रीमान् थे, अनंत बल के धारक थे, हजारों नियमों से भूषित थे और जिनके सब विकार नष्ट हो गये थे ॥151।। जो अनेक शील तथा लाखों उत्तरगुणों के धारक थे, जिनकी कीर्ति अत्यंत शुद्ध थी, जो उदार थे, ज्ञानरूपी प्रदीप से सहित थे, निर्मल थे और जिनका उज्ज्वल यश तीन लोक में फैला हुआ था उन श्रीराम को प्रणाम करो ॥152।। जिन्होंने कर्मपटल को जला दिया था, जो गंभीर गुणों के सागर थे, जिनका क्षोभ छूट गया था, जो मंदरगिरि के समान अकंप थे तथा जो मुनियों का यथोक्त चारित्र पालन करते थे उन श्री राम को नमस्कार करो ॥153॥ जिन्होंने कषायरूपी शत्रुओं को नष्ट कर सुख-दुःखादि.समस्त द्वंद्वों का त्याग कर दिया था, जो तीन लोक की परमेश्वरता को प्राप्त थे, जो जिनेंद्र देव के शासन में लीन थे, जिन्होंने पापरूपी रज उड़ा दी थी, जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से तन्मय हैं, संसार को नष्ट करने वाले हैं, तथा समस्त दुःखों का क्षय करने में तत्पर हैं ऐसे मुनिवर श्रीराम को प्रणाम करो ॥154-155॥
चेष्टित, अनघ, चरित, करण और चारित्र ये सभी शब्द यतश्च पर्यायवाचक शब्द हैं अतः राम को जो चेष्टा है वही रामायण कही गई है ॥156॥ जिसका हृदय आश्चर्य और हर्ष से आक्रांत है तथा जिसके अंतःकरण से सब शंकाएँ निकल चुकी हैं ऐसा जो मनुष्य प्रतिदिन भावपूर्ण मन से बलदेव के चरित्र को बाँचता अथवा सुनता है उसकी आयु वृद्धि को प्राप्त होती है, पुण्य बढ़ता है, तथा तलवार खींचकर हाथ में धारण करने वाला भी शत्रु उसके साथ वैर नहीं करता है, अपितु शांति को प्राप्त हो जाता है ।।157-158।। इसके सिवाय इसके बाँचने अथवा सुनने से धर्म का अभिलाषी मनुष्य धर्म को पाता है, यश का अभिलाषी परम यश को पाता है, और राज्य से भ्रष्ट हुआ मनुष्य पुनः राज्य को प्राप्त करता है इसमें कुछ भी संशय नहीं करना चाहिए ॥159।। इष्ट संयोग का अभिलाषी मनुष्य शीघ्र ही इष्टजन के संयोग को पाता है, धन का अर्थी धन पाता है। स्त्री का इच्छुक उत्तम स्त्री पाता है और पुत्र का अर्थी गोत्र को आनंदित करने वाला उत्तम पुत्र पाता है ॥160॥ लाभ का इच्छुक सरलता से सुख देने वाला उत्तम लाभ प्राप्त करता है, विदेश जाने वाला कुशल रहता है और स्वदेश में रहने वाले के सब मनोरथ सिद्ध होते हैं ॥161।। उसकी बीमारी शांत हो जाती है, ग्राम तथा नगरवासी देव संतुष्ट रहते हैं, था नक्षत्रों के साथ साथ सूर्य आदि कुटिल ग्रह भी प्रसन्न हो जाते हैं ॥162॥ राम की कथाओं से निश्चिंतित, तथा दुर्भावित सैकड़ों पाप नष्ट हो जाते हैं, तथा इनके सिवाय जो कुछ अन्य अमंगल हैं वे सब क्षय को प्राप्त हो जाते हैं ॥163॥ अथवा हृदय में जो कुछ उत्तम बात है राम कथा के कीर्तन में लीन मनुष्य उसे अवश्य पाता है, सो ठीक ही है क्योंकि सर्वज्ञदेव संबंधी सुदृढ़ भक्ति इष्टपूर्ति करती ही है ।।164॥ उत्तम भाव को धारण करने वाला मनुष्य, जिनेंद्रदेव की भक्ति से लाखों भावों में संचित पाप कर्म को नष्ट कर देता है, तथा दुःख रूपी सागर को पारकर शीघ्र ही अर्हंत पद को प्राप्त करता है ॥165॥
ग्रंथकर्ता श्री रविषेणाचार्य कहते हैं कि बड़ी सावधानी से जिसका समाधान बैठाया गया है, जो दिव्य है, पवित्र अक्षरों से संपन्न है, नाना प्रकार के हजारों जन्मों में संचित अत्यधिक क्लेशों के समूह को नष्ट करने वाला है, विविध प्रकार के आख्यानों-अवांतर कथाओं से व्याप्त है, सत्पुरुषों की चेष्टाओं का वर्णन करने वाला है, और भव्य जीवरूपी कमलों के परम हर्ष को करने वाला है ऐसा यह पद्मचरित मैंने भक्ति वश ही निरूपित किया है ॥166॥ श्री पद्ममुनि का जो चरित मूल में सब संसार से नमस्कृत श्रीवर्धमान स्वामी के द्वारा कहा गया, फिर इंद्रभूति गणधर के द्वारा सुधों और जंबू स्वामी के लिए कहा गया तथा उनके बाद उनके शिष्यों के शिष्य श्री उत्तरवाग्मी अर्थात् श्रेष्ठ वक्ता श्री कीर्तिधर मुनि के द्वारा प्रकट हुआ तथा जो कल्याण और साधुसमाधि की वृद्धि करने वाला है, ऐसा यह पदमचरित सर्वोत्तम माल स्वरूप ॥167॥ यह पदमचरित, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता उत्तम मुनियों के मन की सोपान परंपरा के समान नाना पाकी परंपरा से युक्त है, सुभाषितों से भरपूर है. सारपूर्ण है तथा अत्यंत आश्चर्यकारी है। इंद्र गुरु के शिष्य श्री दिवाकर यति थे, उनके शिष्य अर्हद̖यति थे, उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि थे और उनका शिष्य मैं रविषेण हूँ ॥168।। जो सम्यग्दर्शन की शुद्धता के कारणों से श्रेष्ठ है, कल्याणकारी है, विस्तृत है, अत्यंत स्पष्ट है, उत्कृष्ट है, निर्मल है, श्री संपन्न है, रत्नत्रय रूप बोधि का दायक है, तथा अद्भुत पराक्रमी पुण्य स्वरूप श्री राम के माहात्म्य का उत्तम कीर्तन करने वाला है ऐसा यह पुराण आत्मोपकार के इच्छुक विद्वज्जनों के द्वारा निरंतर श्रवण करने के योग्य है ॥169॥
बलभद्र नारायण और इनके शत्रु रावण का यह चरित्र समस्त संसार में प्रसिद्ध है। इसमें अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के चरित्रों का वर्णन है। इनमें बुद्धिमान् मनुष्य बुद्धि द्वारा विचार कर अच्छे अंश को ग्रहण करते हैं और बुरे अंश को छोड़ देते हैं ॥170॥ जो अच्छा चरित्र है वह गुणों को बढ़ाने वाला है और जो बुरा चरित्र है वह कष्टों की वृद्धि करने वाला है, इनमें से जिस मनुष्य को जिस विषय की इच्छा हो वह उसी के साथ मित्रता को करता है अर्थात गुणों को चाहने वाला अच्छे चरित्र से मित्रता बढ़ाता है और कष्ट चाहने वाला बुरे चरित्र से मित्रता करता है। इससे इतना सिद्ध है कि बुरा चरित्र कभी शांति के लिए नहीं होता ॥171। जब कि परस्त्री को आशा रखने वाला विद्याधरों का राजा-रावण कष्ट को प्राप्त होता हुआ अंत में मरण को प्राप्त हुआ तब साक्षात् रति-क्रीड़ा करने वाले अन्य काम रोगी की तो कथा ही क्या है? ॥172॥ हजारों उत्तमोत्तम स्त्रियाँ जिसकी निरंतर सेवा करती थीं ऐसा रावण भी जब अतृप्त बुद्धि होता हुआ मरण को प्राप्त हुआ तब अन्य मनुष्य तृप्ति को प्राप्त होगा यह कहना मोह ही है ।।173॥ अपनी स्त्री के हितकारी सुख को छोड़कर जो पापी पर-स्त्रियों में प्रेम करता है वह सूखी लकड़ी के समान दुःखरूपी बड़े सागर में नियम से प्रवेश करता है ॥174॥ अहो भव्य जनो ! तुम लोग जिन शासन की भक्तिरूपी रंग में रंगकर तथा शक्ति के अनुसार सुदृढ़ चारित्र को ग्रहणकर शीघ्र ही उस स्थान को जाओ जहाँ कि बलदेव आदि महापुरुष गये हैं ॥175।। पुण्य के फल से यह जीव उच्च पद तथा उत्तम संपत्तियों का भंडार प्राप्त करता है और पाप के फल से कुगति संबंधी दुःख पाता है यह स्वभाव है ॥176।। अत्यधिक क्रोध करना, परपीड़ा में प्रीति रखना, और रूक्ष वचन बोलना यह प्रथम कुकृत अर्थात् पाप है और विनय, श्रुत, शील, दया सहित वचन, अमात्सर्य और क्षमा ये सब सुकृत अर्थात् पुण्य है ।।177।। अहो ! मनुष्यों के लिए धन आरोग्य तथा सुखादिक कोई नहीं देता है। यदि यह कहा जाय कि देव देते हैं तो वे स्वयं अधिक संख्या में दुःखी क्यों हैं ? ॥178।। बहुत कहने से क्या ? हे विद्वज्जनो ! यत्नपूर्वक एक प्रमुख आत्म पद को तथा नाना प्रकार के विपाक से परिपूर्ण कर्मों के स्वरस को अच्छी तरह जानकर सदा उसी की प्राप्ति के उपायों में रमण करो ॥179॥ हे विद्वज्जनो ! हमने इस ग्रंथ में परमार्थ की प्राप्ति के उपाय कहे हैं सो उन्हें शक्तिपूर्वक काम में लाओ जिससे संसाररूपी सागर से पार हो
सको ॥180। इस प्रकार यह शास्त्र जीवों के लिए विशुद्धि प्रदान करने में समर्थ, सब ओर से अत्यंत रमणीय, और समस्त विश्व में सूर्य के प्रकाश के समान सब वस्तुओं को प्रकाशित करने वाला है ॥181।। जिनसूर्य श्री वर्धमान जिनेंद्र के मोक्ष जाने के बाद एक हजार दो सौ तीन वर्ष छह माह बीत जाने पर श्री पद्ममुनि का यह चरित्र लिखा गया है ॥182।। मेरी इच्छा है कि समस्त श्रुत देवता जिन शासन देव, निखिल विश्व को जिन-भक्ति में तत्पर करते हुए यहाँ अपना सांनिध्य प्रदान करें ॥183॥ वे सब प्रकार के आदर से युक्त, लोक स्नेही भव्य देव समस्त वस्तुओं के विषय में अर्थात् सब पदार्थों के निरूपण के समय अपने वचनों से आगम की रक्षा करें ॥184॥ इस ग्रंथ में व्यंजनांत अथवा स्वरांत जो कुछ भी कहा गया है वही अर्थ का वाचक शब्द है, और शब्दों का समूह ही वाक्य है, यह निश्चित है ॥185।। लक्षण, अलंकार, अभिधेय, लक्ष्य और व्यंगय के भेद से तीन प्रकार का वाच्य, प्रमाण, छंद तथा आगम इन सबका यहाँ अवसर के अनुसार वर्णन हुआ है सो शुद्ध हृदय से उन्हें जानना चाहिए ॥186॥ यह पद्मचरित ग्रंथ अनुष्टुप श्लोकों की अपेक्षा अठारह हजार तेईस श्लोक प्रमाण कहा गया है ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य प्रणीत पद्मपुराणमें बलदेव की सिद्धि-प्राप्ति का वर्णन करने वाला एक सौ तेईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥123।।