ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 29
From जैनकोष
अथानंतर आषाढ़ शुक्ल अष्टमी से आष्टाह्निक महापर्व आया । सो राजा दशरथ जिनेंद्र भगवान् की महिमा करने के लिए उद्यत हुआ ॥1॥ उस समय उसकी समस्त स्त्रियाँ, पुत्र तथा बांधवजन जिन-प्रतिमाओं के विषय में निम्नांकित कार्य करने के लिए तत्पर हुए ॥2॥ कोई मंडल बनाने के लिए बड़े आदर से पाँच रंग के चूर्ण पीसने लगा, तो नाना प्रकार की रचना करने में निपुण कोई मालाएं गूंथने लगा ।।3।। कोई जल को सुगंधित करने लगा, कोई पृथिवी को सींचने लगा, कोई नाना प्रकार के उत्कृष्ट सुगंधित पदार्थ पीसने लगा ॥4॥ कोई अत्यंत सुंदर वस्त्रों से जिनमंदिर के द्वार की शोभा करने लगा और कोई नाना धातुओं के रस से दीवालों को अलंकृत करने लगा ।। 5 ।। इस प्रकार उत्कृष्ट भक्ति को धारण करने वाले एवं आनंद से परिपूर्ण भक्तजनों ने जिनेंद्रदेव की पूजा कर उत्तम पुण्य का संचय किया ॥6॥
तदनंतर सब प्रकार को उत्तमोत्तम सामग्रियों को एकत्र कर राजा दशरथ ने जिसमें तुरही का विशाल शब्द हो रहा था ऐसा जिनेंद्र भगवान् का अभिषेक किया ॥7॥ आठ दिन का उपवास कर उत्कृष्ट अभिषेक किया तथा सहज अर्थात् स्वाभाविक और कृत्रिम अर्थात् स्वर्ण, रजत आदि से बनाये हुए पुष्पों से महापूजा की ।।8॥ जिस प्रकार इंद्र देवों के साथ नंदीश्वर द्वीप में जिनेंद्र पूजा करता है उसी प्रकार राजा दशरथ ने भी सब परिवार के साथ जिनेंद्र पूजा की ॥9॥ तदनंतर जब रानियाँ घर पहुंच गयीं तब बुद्धिमान् राजा दशरथ ने सबके लिए महापवित्र, शांतिकारक गंधोदक पहुँचाया ॥10॥ सो तीन रानियों के लिए तो वह गधोदक तरुण स्त्रियां ले गयीं इसलिए जल्दी पहुँच गया और उन्होंने पाप को नष्ट करने वाला वह गंधोदक शीघ्र ही बड़ी श्रद्धा से मस्तक पर धारण कर लिया ॥11॥ परंतु सुप्रभा के लिए वृद्ध कंदुकी के हाथ भेजा था इसलिए उसे शीघ्र नहीं मिला अतः वह अत्यधिक क्रोध और शोक को प्राप्त हुई ॥12॥ वह विचार करने लगी कि राजा की यह बुद्धि ठीक नहीं है जिससे उन्होंने मुझे गंधोदक भेजकर सम्मानित नहीं किया ॥13॥ अथवा इसमें राजा का क्या दोष है ? प्रायः कर मैंने पूर्वभव में पुण्य का संचय नहीं किया होगा जिससे मैं ऐसे तिरस्कार को प्राप्त हुई हूँ ॥14॥ ये तीनों पुण्यवती तथा महासौभाग्य से संपन्न हैं जिनके लिए राजा ने प्रेमपूर्वक पवित्र एवं उत्तम गंधोदक भेजा है ॥15॥ अपमान से जले हुए मेरे इस हृदय के लिए इस समय मरण ही शूरण हो सकता है ऐसा मैं मानती हूँ । अन्य प्रकार से मेरा संताप शांत नहीं हो सकता ॥16॥ यह विचार कर उसने विशाख नामक एक भांडारी से कहा कि हे भद्र ! तुम यह बात किसी से कहना नहीं ॥17॥ मुझे विष की अत्यंत आवश्यकता आ पड़ी है । इसलिए यदि तेरी मुझमें भक्ति है तो शीघ्र ही ला दे ॥18॥ विष के नाम से अत्यंत शंकित होता हुआ भांडारी उसे खोजता हुआ जब तक कुछ विलंब करता है तब तक वह शयनगृह में जाकर तथा शरीर को शिथिल कर पड़ रही ॥19॥ इतने में ही राजा आ गये और उसके बिना तीन प्रियाओं को देखकर खोज करते हुए शीघ्र ही उसके समीप जा पहुँचे ॥20॥ उन्होंने देखा कि मन को चुराने वाली सुप्रभा वस्त्र से शरीर ढंककर शय्या पर अनादर से इंद्रधनुष के समान पड़ी है ॥21॥
इसी समय उस भांडारी ने आकर कहा कि हे देवि ! यह विष लो । भांडारी के इस शब्द को वहाँ जाकर राजा ने सुन लिया ॥22॥ सुनते ही राजा ने कहा कि हे देवि ! यह क्या है ? मूर्खे ! यह क्या प्रारंभ कर रखा है ? ऐसा कहते हुए राजा ने उस भांडारी को वहाँ से दूर हटाया और स्वयं सुप्रभा की शय्यापर बैठ गये ॥23॥ राजा को आया जान वह लजाती हुई सहसा उठी और पृथिवी पर बैठना चाहती थी कि उन्होंने उसे गोद में बैठा लिया ॥24॥ राजा ने कहा कि प्रिये ! तुम इस प्रकार के क्रोध को क्यों प्राप्त हुई हो जिससे कि सबसे अधिक प्रिय अपने जीवन से भी निःस्पृह हो रही हो ॥25॥ मरण का दुःख सब दुःखों से अधिक दुःख है । सो जिस अन्य दुःख से दुःखी होकर तुमने मरण को उसका प्रतिकार बनाया है वह दुःख कैसा है यह तो बताओ ।। 26 ।। हे दयिते ! तुम मेरे हृदय की सर्वस्व हो, अतः हे सुमुखि ! शीघ्र ही वह कारण बताओ जिससे मैं उसका प्रतिकार कर सकूँ ।। 27 ।। सुगति और दुर्गति के कारणों का निरूपण करने वाले जिनशास्त्र को तुम जानती हो फिर भी तुम्हारी ऐसी बुद्धि क्यों हो गयी ? इस प्रगाढ़ अंधकार स्वरूप क्रोध को धिक्कार हो ॥28॥ हे देवि ! प्रसन्न होओ । इस समय भी क्या तुम्हारे क्रोध का कोई अवसर है क्योंकि जो महास्त्रियाँ होती हैं उनका क्रोध प्रसाद शब्द सुनने तक ही रहता है ।। 29।।
सुप्रभा ने कहा कि हे नाथ ! आप पर मेरा क्या क्रोध हो सकता है ? पर मुझे ऐसा दुःख उत्पन्न हुआ है कि जो मरण के बिना शांत नहीं हो सकता ॥30॥ राजा ने पूछा कि हे देवि ! वह कौन-सा दुःख है ? इसके उत्तर में सुप्रभा ने कहा कि आपने अन्य रानियों के लिए तो गंधोदक भेजा पर मुझे क्यों नहीं भेजा सो कहिए ? ॥31।। आपने ऐसा कौन-सा कार्य देखा है जिससे मुझे हीन समझ लिया है । हे सुविज्ञ ! जिसे पहले कभी धोखा नहीं दिया उसे आज क्यों धोखा दिया गया ? ।।32॥ सुप्रभा जब तक यह सब कह रही थी कि तब तक वृद्ध कंचुकी आकर यह कहने लगा कि हे देवि ! राजा ने तुम्हें यह गंधोदक दिया है ।। 33 ।। इसी बीच में दूसरी रानियाँ आकर उससे कहने लगी कि अरी भोली ! तू प्रसन्नता के स्थान को प्राप्त है फिर क्या कह रही है ? ॥34॥ देख, हम लोगों के लिए तो निंदनीय दासियाँ गंधोदक लायी हैं पर तेरे लिए यह श्रेष्ठ एवं पवित्र कंचुकी लाया है ॥35॥ तेरे प्रति स्वामी की ऐसी उत्तम प्रीति है इसी से यह भेद हुआ है फिर असमय में क्यों कुपित हो रही है ? ॥36।। फिर स्वामी तेरे पीछे बड़े प्रयत्न से लग रहे हैं । अतः इन पर प्रसन्न हो क्योंकि स्नेह के कारण स्त्रियाँ अपराध होने पर भी संतुष्ट ही रहती हैं ॥37॥ हे कठोर हृदये ! जब तक पति पर क्रोध किया जाता है तब तक हे शोभने ! सांसारिक सुख में विघ्न हो जानना चाहिए ॥38॥ वास्तव में तो हम लोगों का मरना उचित था पर हमें तो गंधोदक से प्रयोजन था । इसलिए सब अपमान सहन कर लिया ॥39।। इस प्रकार सपत्नियों ने भी जब उसे सांत्वना दी तब उसका शरीर रोमांच से सुशोभित हो गया और उसने गंधोदक मस्तक पर धारण किया ॥40॥
तदनंतर राजा ने कुपित होकर उस कंचुकी से कहा कि हे नीच कंचुकी ! बता तुझे यह विलंब कहाँ हुआ ? ॥41॥ भय से जिसका समस्त शरीर विशेषकर कांपने लगा था ऐसा कंचुकी पृथिवी पर घुटने और शिर पर अंजलि रखकर किसी तरह बोला ॥42 ।। उसके हृदय में जो अक्षर थे वे मुख तक बड़ी कठिनाई से आये और जो ओठों पर रखे गये थे वे बार-बार वहीं के वहीं विलीन हो गये ꠰꠰43꠰꠰ वह बार-बार खकारता था, बार-बार ओंठ चलाता था, और बड़ी कठिनाई से उठाकर पास ले जाये गये हाथ से हृदय का स्पर्श करता था ॥44॥ उसके मस्तक के पिछले भाग में चंद्रमा की किरणों के समान सफेद बाल स्थित थे तथा सफेद चरम के समान उसकी दाढ़ी के बाल मंद-मंद वायु से हिल रहे थे ॥45॥ मक्खी के पंख के समान पतली त्वचा से उसकी हड्डियाँ ढँकी हुई थीं, उसके लाल-लाल नेत्र सफेद-सफेद भ्रकुटियों की वलि से आच्छादित थे ॥46॥ उसका चंचल शरीर स्पष्ट दिखाई देने वाली नसों के समूह से वेष्टित था, मिट्टी के अधबने खिलौने के समान उसकी आभा थी । वह वस्त्र भी बड़ी कठिनाई से धारण कर रहा था, हिम से ताड़ित हुए के समान दोनो शिथिल कपोलों को कंपित कर रहा था, बोलने की इच्छा से लड़खड़ाती जिह्वा को तालु आदि स्थानों पर बड़ी कठिनाई से ले जा रहा था, यदि एक अक्षर का भी उच्चारण कर लेता था तो उसे महान् उत्सव मानता था । कुछ वणं बोलना चाहता था पर उसके बदले कुछ दूसरे ही वणं बोल जाता था, जिनके बोलने का विचार ही नहीं था ऐसे बहुत भारी श्रम को करने वाले टूटे-फूटे वर्गों को वह जीर्ण-शीर्ण काँटे के समान बड़ी कठिनाई से छोड़ता था अर्थात् उसका उच्चारण करता था ।। 49-50॥
हे भृत्यवत्सल, स्वामिन् ! मुझ बुड्ढे का क्या अपराध है ? जिससे कि विज्ञानरूपी आभूषण को धारण करने वाले हे देव ! आप क्रोध को प्राप्त हुए हो ॥51॥ पहले मेरे शरीर की भुजाएं हाथी की सूंड़ के समान थीं, शरीर अत्यंत कठोर और ऊँचा था । सीना विशाल था, जंघाएँ आलान अर्थात् हाथी बाँधने के खंभे के समान थीं, मेरा यह शरीर सुमेरु के शिखर के समान आकृति वाला था, तथा अनेक अद्भुत कार्यों का सशक्त कारण था ।। 52-53॥ हे देव ! हमारे ये हाथ पहले सुदृढ़ किवाड़ों के चूर्ण करने में समर्थ थे, हमारे पैर की ठोकर पर्वत के भी टुकड़े कर डालती थी, ऊँची-नीची भूमि को मैं वेग से लाँघ जाता था, हे स्वामिन् ! मैं राजहंस पक्षी के समान मनचाहे स्थान को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता था ।। 54-55 ।। हे राजन् ! मेरी दृष्टि में इतना बल था कि जिससे मैं राजा को भी तृण के समान तुच्छ समझता था ॥56॥ अत्यंत स्थविर और सुंदर विलास से युक्त मेरा यह शरीर स्त्रीजनों की दृष्टि और मन को बाँधने के लिए आलान के समान था ।।57।। आपके पिता के प्रसाद से मैंने इस शरीर का उत्तमोत्तम भोगों से लाड़-प्यार किया था पर इस समय कुमित्र के समान यह विघट गया है ।। 58।। मेरा जो हाथ पहले शत्रुओं को विदारण करने की शक्ति रखता था अब उसी हाथ से लाठी पकड़कर चलता हूँ ॥59।। मेरी पीठ की हड̖डी शूरवीर मनुष्य के द्वारा खींचे हुए धनुष के समान झुक गयी है और मेरा शिर यमराज के पैर से आक्रांत हुए के समान नम्र हो गया है ॥60॥ दाँतों के स्थान से उच्चरित होने वाले मेरे वर्ण (ल तवर्ग ल और स ) कहीं चले गये हैं सो ऐसा जान पड़ता है मानो ऊष्मवर्णों ( श ष स ह ) की ऊष्मा अर्थात् गरमी से उत्पन्न संताप को सहने में असमर्थ होकर ही कहीं चले गये हैं ॥61 ।। यदि मैं प्राणों से भी अधिक प्यारी इस लाठी का सहारा न लेऊँ तो यह पका हुआ अधम शरीर पृथ्वी पर गिर जावे ॥62॥
शरीर में बलि अर्थात् सिकुड़नों की वृद्धि हो रही है और उत्साह का ह्रास हो रहा है । हे राजन् ! इस शरीर से मैं साँस ले रहा हूँ यही आश्चर्य की बात है ॥63।। हे नाथ ! आजकल में नष्ट हो जाने वाले इस जरा जर्जरित शरीर को ही धारण करने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ फिर दूसरी बाह्य वस्तु की तो कथा ही क्या है ? ॥64॥ पहले मेरी इंद्रियाँ अत्यंत सामर्थ्य को प्राप्त थीं पर इस समय नाम मात्र को ही स्थित हैं । मेरा मन भी जड़रूप हो गया है ॥65।। पैर अन्य स्थान पर रखता हूँ पर सँभल नहीं सकने के कारण अन्य स्थान पर जा पड़ता है । मैं समस्त पृथ्वीतल को अपनी दृष्टि से काला ही काला देखता हूँ ॥66 ।। चूंकि यह राजकुल मेरी वंश-परंपरा से चला आ रहा है इसलिए ऐसी दशा को प्राप्त होकर भी इसे छोड़ने के लिए समर्थ नहीं हूँ ॥67॥ मेरा यह शरीर पके हुए फल के समान है सो यमराज सूखे पत्र के समान इसे अपना आहार बना लेगा ॥68।। हे स्वामिन् ! मुझे निकटवर्ती मृत्यु से वैसा भय नहीं उत्पन्न होता है जैसा कि भविष्य में होने वाली आपके चरणों की सेवा के अभाव से हो रहा है ॥69॥ आपकी सम्माननीय आज्ञा ही जिसके जीवित रहने का कारण है ऐसे इस शरीर को धारण करते हुए मुझे विलंब अथवा कार्यांतर में आसंग कैसे हो सकता है ? ।।70॥ इसलिए हे नाथ ! मेरे शरीर को जरा के अधीन जानकर आप क्रोध करने के योग्य नहीं हैं । हे धीर ! प्रसन्नता को धारण करो ॥71॥
कंचुकी के वचन सुनकर राजा कुंडल से सुशोभित कपोल को वाम करतल पर रखकर इस प्रकार विचार करने लगे ॥72 ।। कि अहो, बड़े कष्ट की बात है कि यह अधम शरीर पानी के बबूले के समान निःसार है और अनेक विभ्रमों― विलासों से भरा यह यौवन संध्या के प्रकाश के समान भंगुर है ।। 73 ।। बिजली के समान नष्ट हो जा ने वाले इस शरीर के पीछे मनुष्य न जाने अत्यंत दुःख के कारणभूत क्या-क्या कार्य प्रारंभ नहीं करते हैं ? ॥74।। ये भोग अत्यंत मत्त स्त्री के कटाक्षों के समान ठगने वाले हैं, साँप के फन के समान भयंकर हैं और संताप की वृद्धि करने वाले हैं ।। 75 ।। कठिनाई से प्राप्त होने योग्य विनाशी विषयों में जो दुःख प्राप्त होता है वह मूर्ख प्राणियों के लिए सुख जान पड़ता है ॥76 ।। ये जो विषयादिक हैं वे प्रारंभ में ही मनोहर सुखरूप जान पड़ते हैं फिर भी आश्चर्य है कि लोग किंपाक फल के समान इन सुखों की चाह रखते हैं ॥77॥ जो सज्जन इन विषयों को विष के समान देखकर तपस्या करते हैं वे पुण्यात्मा महोत्साहवान् तथा परम प्रबोध को प्राप्त हैं ऐसा समझना चाहिए ।। 78॥ मैं कब इन विषयों को छोड़कर तथा स्नेह रूपी कारागृह से छूटकर मोक्ष के कारणभूत जिनेंद्र-प्रोक्त तप का आचरण करुंगा ॥79।। सुख से पृथिवी का पालन किया, यथायोग्य भोग भोगे, और शूरवीर पुत्र उत्पन्न किये फिर अब किस बात की प्रतीक्षा की जा रही है ॥80॥
यह हमारा वंशपरंपरागत व्रत है कि हमारे धीर-वीर वंशज विरक्त हो पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर तपोवन में प्रवेश कर जाते हैं ॥81॥ राजा दशरथ ने इस प्रकार विचार भी किया और भोगों में आसक्ति कुछ शिथिल भी हई तो भी कर्मों के प्रभाव से वे घर में ही प्रीति को प्राप्त होते रहे अर्थात् गृहत्याग करने के लिए समर्थ नहीं हो सके ॥82 ।। सो ठीक ही है क्योंकि जिस समय जहाँ जिससे जो और जितना कार्य होना होता है उस समय वहाँ उससे वह और उतना ही कार्य प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है ।। 83॥
अथानंतर गौतमस्वामी कहते हैं कि हे मगध देश के आभूषण ! कितना ही काल व्यतीत होने पर बड़े भारी संघ से आवृत, सर्व प्राणियों का हित करने वाले, तथा मनःपर्यय ज्ञान के धारक सर्वभूतहित नामा मुनि, विधिपूर्वक पृथिवी में विहार करते हुए अयोध्या नगरी में आये ।। 84-85 ।। जिनके मन-वचन-काय की चेष्टा समीचीन थी और जो पिता की तरह संघ का पालन करते थे ऐसे उन मुनिराज ने अपने थके हुए संघ को सरयू नदी के किनारे ठहराया ॥86॥ संघ के कितने ही मुनि, आचार्य महाराज की आज्ञा प्राप्त कर वन के सघन प्रदेशों में, कितने ही गुफाओं में, कितने ही शून्य गृहों में, कितने ही जिनमंदिरों में और कितने ही वृक्षों की कोटरों में ठहरकर यथाशक्ति तपश्चरण करने लगे ॥87-88।। तथा आचार्य एकांत स्थान के अभिलाषी थे इसलिए उन्होंने नगरी की उत्तर पश्चिम दिशा अर्थात् वायव्य कोण में जो महेंद्रोदय नाम का उद्यान था उसमें यूथ सहित गजराज के समान प्रवेश किया । उस महेंद्रोदय नामा उद्यान में तप के योग्य अनेक स्थान थे, तथा वह विशाल, अत्यंत सुंदर और अनेक बड़े-बड़े वृक्षों से सहित था । आचार्य के साथ अधिक भीड़ नहीं थी । अपने आपको मिलाकर कुल दस ही मुनिराज थे । वह उद्यान पशुओं, स्त्रियों और नपुंसकों के लिए दुर्गम था, द्वेषी मनुष्यों से रहित था तथा सूक्ष्म जंतुओं से शून्य था । ऐसे उस उद्यान में जिसकी शाखाएँ दूर-दूर तक फैल रही थीं ऐसे एक नाग वृक्ष के नीचे सुंदर, विशाल, निर्मल एवं समान शिलातल पर विराजमान हुए ॥89-92॥ आचार्य महाराज सूर्यबिंब के समान देदीप्यमान, गंभीर, प्रिय-दर्शन और उदारहृदय थे तथा कर्मों का क्षय करने के लिए वर्षायोग लेकर वहाँ विराजमान हुए थे॥93 ।।
तदनंतर जो विदेश में जा ने वाले मनुष्यों को भय उत्पन्न करने वाला था, चमकती हुई बिजली से उग्र था तथा जिसमें आठों दिशाओं के मेघों की कठोर गर्जना हो रही थी ऐसा वर्षाकाल आ पचा । वह वर्षाकाल ऐसा जान पड़ता था मानो लोगों को संताप पहुंचाने वाले सूर्य को डाँट हो रहा हो और बड़ी मोटी धाराओं के अंधकार से भयभीत हो कहीं भाग गया हो ॥94-95 ।। पृथिवीतल ऐसा दिखाई देने लगा मानो उसने अच्छी तरह कंचुक ही धारण कर रखी हो । तरंगों से तटों को गिराने वाली बड़ी-बड़ी नदियाँ बढ़ने लगीं ॥96।। और जिन्हें कँपकँपी छूट रही थी ऐसे प्रवासी मनुष्यों के चित्त में भ्रांति उत्पन्न होने लगी । ऐसे वर्षाकाल में जैनी लोग निरंतर खड̖गधारा के समान कठोर व्रत धारण करते हैं ॥97॥ जो पृथिवी पर विहार करते थे तथा जिन्हें आकाश में चलने की ऋद्धि प्राप्त हुई थी ऐसे मुनिराज उस समय अनेक प्रकार के नियम धारण करते थे । गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मगधेश्वर ! ये सब मुनिराज तुम्हारी रक्षा करें ॥98॥
अथानंतर प्रातःकाल होने पर शंख के शब्द से सुशोभित भेरी के नाद से राजा दशरथ सूर्य के समान जागृत हुए ॥19॥ स्त्री-पुरुषों का वियोग करने वाले मुर्गे तथा सरोवर और नदियों में विद्यमान सारस और चक्रवाक पक्षी जोर-जोर से शब्द करने लगे ॥100॥ भेरी, पणव तथा वीणा आदि के मनोहर गीतों से आकर्षित हो बहुत से मनुष्य जिनमंदिरों में उपस्थित होने लगे ॥101॥ जिस प्रकार लज्जा से युक्त मनुष्य प्रिया को छोड़ता है इसी प्रकार जिसके नेत्र घूम रहे थे तथा समस्त नेत्र लाल-लाल हो रहे थे ऐसा मनुष्य निद्रा को छोड़ रहा था ॥102॥ दीपक पांडुवर्ण हो गये थे और चंद्रमा फी का पड़ गया । कमल विकास को प्राप्त हुए और कुमद निमीलित हो गये ॥ 103 ꠰। जिस प्रकार जिनशास्त्र के ज्ञाता मनुष्य से वादी परास्त हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्य की किरणों से समस्त ग्रह परास्त हो गये अर्थात् छिप गये ॥104॥ इस प्रकार अत्यंत निर्मल प्रभात काल होने पर राजा दशरथ ने शरीर-संबंधी कार्य कर पूजनीय जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार किया । तदनंतर मनोहर झूल से सुशोभित हस्तिनी पर सवार हो वह मुनिराज की वंदना के लिए चला । देवों के समान कांति को धारण करने वाले हजार राजा उसकी सेवा कर रहे थे ॥105-106॥ इस प्रकार छत्र से सुशोभित राजा दशरथ जगह-जगह मुनियों और जिनचैत्यालयों को नमस्कार करता हुआ महेंद्रोदय नामा उद्यान में पहुँचा ॥107॥ गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उस समय राजा दशरथ की लोक को आनंदित करने वाली जो विभूति थी वह एक वर्ष में भी नहीं कही जा सकती है ।। 108॥ गुणरूपी रत्नों के सागर मुनिराज जब देश में पधारे थे तभी उसके कानों में यह समाचार आ पहुँचा था ॥109 ।। तदनंतर हस्तिनी से उतरकर अपरिमित वैभव के धारक एवं महान् हर्ष से परिपूर्ण राजा ने उद्यान की भूमि में प्रवेश किया ॥110॥ तत्पश्चात् भक्ति से युक्त हो चरणों में पुष्पांजलि बिखेरकर उसने सर्वभूत आचार्य को शिर से नमस्कार किया ॥111 ।। सिद्धांत से संबंध रखने वाली कथा सुनी, अतीत अनागत महापुरुषों के चरित सुने, लोक, द्रव्य, युग, कुलकरों को स्थिति, अनेक वंश, जीवादिक समस्त पदार्थ और पुराणों को बड़े आदर से सुना । तदनंतर संघ के स्वामी सर्वभूतहित आचार्य को नमस्कार कर राजा ने नगर में वापस प्रवेश किया ॥112-114॥
तदनंतर मंत्रियों और राजाओं को क्षण भर के लिए स्थान देकर अर्थात् उनके साथ वार्तालाप कर जिनराज संबंधी गुणों की कथा कर आश्चर्य से भरे हुए राजा ने अंतःपुर में प्रवेश किया । वहाँ विपुल वैभव तथा प्रजापति की शोभा धारण करने वाले राजा ने बड़ी प्रसन्नता से स्नानादि क्रियाएँ कीं ॥115॥ तदनंतर जो उत्कृष्ट कांति से युक्त थीं, चंद्रमा के समान सुंदर मुखों को धारण कर रही थीं, नेत्र और हृदय को हरने में निपुण विभ्रमों से सुशोभित थीं, लक्ष्मी के तुल्य थीं और परम विनय को धारण कर रही थीं ऐसी स्त्रियों को, कमलिनियों को सूर्य की भाँति आनंद उपजाता हुआ वह उसी अंतःपुर में ठहर गया ॥116 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में राजा दशरथ के वैराग्य और सर्वमत आचार्य के आगमन का वर्णन करने वाला उंतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥29॥