ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 37
From जैनकोष
अथानंतर एक दिन राजा पृथ्वीधर सभामंडप में सुख से विराजमान थे, पास ही में राम भी सभा को अलंकृत कर रहे थे तथा उन्हीं से संबंध रखने वाली कथा चल रही थी कि इतने में दूर मार्ग से आने के कारण जिसका शरीर खिन्न हो रहा था ऐसा एक पत्रवाहक आया और राजा को प्रणाम कर बैठने के बाद उसने शीघ्र ही एक पत्र समर्पित किया ॥1-2॥ वह पत्र जिसे दिया जा था उसके नाम से अंकित था । राजा ने पत्रवाहक से पत्र लेकर संधि विग्रह को अच्छी तरह जानने वाले लेखक (मुन्शी) के लिए सौंप दिया ॥3।। वह लेखक सब लिपियों के जानने में निपुण था, राजा के नेत्र द्वारा सम्मान प्राप्त कर उसने वह पत्र खोला । एक बार स्वयं बांचा और फिर उच्च स्वर से इस प्रकार बांचकर सुनाया ॥4॥ उसमें लिखा था कि जो इंद्र के समान उदार प्रभाव का धारक तथा बुद्धिमान् है, लक्ष्मीमान् है तथा नम्रीभूत राजाओं के लिए सुख देने वाला है ऐसा राजा अतिवीर्य स्वस्तिरूप है, मंगलरूप है ।। 5 ।। जो नागराज अर्थात् सुमेरु के समान (उदार) है, महायश का धारी है, शस्त्र में निपुण है, राजाधिराजपना से आलिंगित है, जिसने अपने प्रताप से शत्रुओं को वश कर लिया है, जिसने समस्त पृथिवी को अनुरंजित कर लिया है, उगते हुए सूर्य के समान जिसकी कांति है, जो अतिशय पराक्रमी है, समस्त कार्यों में महानीतिज्ञ है, और जिससे अनेक गुण शोभायमान हो रहे हैं ऐसा श्रीमान् अतिवीर्य राजा नंद्यावर्तपुर से विजयनगर में वर्तमान राजा पृथिवीधर को लेख में लिखित अक्षरों से कुशल समाचार पूछता हुआ आज्ञा देता है कि इस पृथिवीतल पर मेरे जो सामंत हैं वे खजाना और सेना के साथ मेरे पास हैं ॥6-10॥ जिनके हाथ में नाना प्रकार के शस्त्र देदीप्यमान है तथा जो एक सदृश विभूति के धारक हैं ऐसे मलेच्छ राजा अपनी-अपनी चतुरंग सेना के साथ यहाँ आ गये हैं ।। 11 ।। जो महाभोगी और महाप्रतापी हैं तथा जिसको मन हमारे गुणों से आकर्षित है ऐसा राजा विजयशार्दूल भी अंजनगिरि के समान आभा वाले आठ सौ-सौ हाथियों और वायु के पुत्र के समान चपल तीन हजार घोड़ों के साथ आज हमारे पास आ गया है ॥12-13।। बहुत भारी उत्साह के देने वाले तथा नीति-निपुण बुद्धि के धारक जो मृगध्वज, रणोमि, कलभ और केसरी नाम के अंग देश के राजा हैं वे भी प्रत्येक छह सौ हाथियों तथा पाँच हजार घोड़ों से समावृत हो आ पहुंचे हैं ॥14-15॥ जो छलपूर्ण युद्ध करने में निपुण है, नीतिशास्त्र का पारगामी है, प्रयोजन सिद्ध करने वाला है तथा युद्ध की सब गति विधियों का जानकार है ऐसे पंचाल देश के राजा को उत्साहित करता हुआ पौंड्र देश का परम प्रतापी राजा, दो हजार हाथियों और सात हजार घोड़ों के साथ आ गया है ॥16-17॥ जिस प्रकार रेवा नदी के प्रवाह में सैकड़ों नदियां आकर मिलती हैं इसी प्रकार जिसमें अन्य अनेक राजा आ-आकर मिल रहे हैं ऐसा मगधदेश का राजा भी पौंड्राधिपति से भी कहीं अधिक सेना लेकर आया है ॥18॥ वज्र को धारण करने वाला राजा सुकेश, मेघ के समान कांति को धारण करने वाले आठ हजार हाथियों और जिसका अंत पाना कठिन है ऐसी घोड़ों की सेना के साथ आ पहुँचा है ॥19॥ जो इंद्र के समान पराक्रम के धारी हैं, ऐसे सुभद्र, मुनिभद्र, साधु भद्र और नंदन नामक भवनों के राजा हैं वे भी आ गये हैं ॥20॥ जो अवार्य वीर्य से संपन्न है, ऐसा राजा सिंहवीर्य, तथा वंग देश का राजा सिंहरथ ये दोनों मेरे मामा हैं सो बहुत भारी सेना से सुशोभित होते हुए आये हैं ॥21॥ वत्सदेश का राजा मारिदत्त बहुत भारी पदाति, रथ, हाथी और उत्तमोत्तम घोड़ों के साथ आया है ॥22॥ अंबष्ठ देश का राजा प्रोष्ठिल और सुवीर देश का स्वामी धीर मंदिर ये दोनों असंख्यात सेना के साथ आ पहुँचे हैं ।। 23 ।। तथा इनके सिवाय जो और भी महापराक्रमी एवं देवों की उपमा धारण करने वाले अन्य राजा हैं वे मेरी आज्ञा श्रवण कर सेनाओं के साथ आ चुके हैं ॥24।। इन सब राजाओं को साथ लेकर मैंने अयोध्या के राजा भरत के प्रति प्रस्थान किया है, सो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, अतः तुम्हें पत्र देखने के बाद तुरंत ही यहाँ आना चाहिए । तुम्हारी मुझमें प्रीति ही ऐसी है कि जिससे आप दूसरे कार्य के प्रति दृष्टि भी नहीं डालेंगे । जिस प्रकार किसान वर्षा को बड़े आदर से देखते हैं, उसी प्रकार हम भी तुम्हें बड़े आदर से देखते हैं ।।25-26॥ इस प्रकार पत्र बाँचे जाने पर राजा पृथिवीधर जब तक कुछ नहीं कह पाये कि तब तक उसके पहले ही लक्ष्मण ने कहा कि हे भद्र ! हे समीचीन बुद्धि के धारक दूत ! तुझे मालूम है कि राजा अतिवीर्य के उस तरह रुष्ट होने में भरत की कैसी चेष्टा कारण है अर्थात् अतिवीर्य और भरत में विरोध होने का क्या कारण है ? ॥27-28॥ इस प्रकार लक्ष्मण के पूछने पर उस वायुगति नामक दूत ने कहा कि मैं चूंकि राजा का अत्यंत अंतरंग व्यक्ति हूँ अतः मुझे सब मालूम है ॥29॥ इसके उत्तर में लक्ष्मण ने कहा कि तो मैं सुनना चाहता हूँ । इस प्रकार कहे जाने पर वायुगति दूत बोला कि यदि आपको कुतूहल है तो चित्त स्थिर कर सुनिए मैं कहता हूँ ॥30॥ उसने कहा कि एक बार हमारे राजा अतिवीर्य ने श्रुतबुद्धि नाम का निपुण दूत भरत के पास भेजा, सो उसने जाकर भरत से कहा कि जो इंद्र के समान पराक्रमी है । जिसे समस्त राजा नमस्कार करते हैं तथा जो नय के प्रयोग करने में अत्यंत निपुण है ऐसे राजा अतिवीर्य का मैं दूत हूँ ॥31-32॥ जो मनुष्यों में सिंह के समान है तथा जिससे भयभीत होकर शत्रुरूप मृग अपनी वसतिकाओं में निद्रा को प्राप्त नहीं होते ॥33॥ चार समुद्र ही जिसकी कटि मेखला है, ऐसी समस्त पृथिवी स्त्री के समान बड़ी विनय से जिसकी आज्ञा का पालन करती है, जो उत्तम क्रियाओं का आचरण करने वाला है तथा सब ओर से जिसकी आत्मा अत्यंत बलिष्ठ है ऐसे राजा पृथिवी पर मेरे मुख में स्थापित किये हुए अक्षरों से आपको आज्ञा देते हैं कि हे भरत ! तू शीघ्र ही आकर मेरी दासता स्वीकृत कर अथवा अयोध्या छोड़कर समुद्र के उस पार भाग जा ॥34-36॥
तदनंतर जिसका शरीर क्रोध से व्याप्त हो रहा था तथा उठी हुई दावानल के समान जिसका प्रतिकार करना कठिन था ऐसा शत्रुघ्न तीक्ष्ण वाणी से बोला कि अरे दूत ! राजा भरत उसकी भृत्यता को उस तरह अभी हाल स्वीकृत करते हैं कि जिस तरह उसका यह कहना ठीक सिद्ध हो जाय ? अयोध्या छोड़ने की बात कही सो अभ्युदय को धारण करने वाले राजा भरत अयोध्या को मंत्रियों पर छोड़ क्षुद्र मनुष्यों को वश करने के लिए अभी हाल समुद्र के पार जाते हैं ॥37-39॥ परंतु मैं तुझसे कह रहा हूँ कि जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथी के प्रति गधे की गर्जना उचित नहीं जान पड़ती, उसी प्रकार भरत के प्रति तेरे स्वामी की यह गर्जना बिल्कुल ही उचित नहीं है ॥40॥ अथवा उसके यह वचन स्पष्ट ही उसकी मृत्यु को सूचित करते हैं । जान पड़ता है कि वह उत्पातरूपी भूत से ग्रस्त है अथवा वायुरोग के वशीभूत है ॥41॥ अथवा वैराग्य के योग से पिता राजा दशरथ के तपोवन के लिए चले जाने पर दुष्टों से घिरा तुम्हारा राजा ग्रह से आक्रांत हो गया है ॥42॥ यद्यपि मोक्ष की आकांक्षा से पितारूपी अग्नि शांत हो चुकी है तथापि मैं उस अग्नि से निकला हुआ एक तिलगा हूँ, सो तेरे राजा को अभी भस्म करता हूँ ॥43॥ बड़े-बड़े हाथियों के रुधिररूपी पंक से जिसकी गरदन के बाल लाल हो रहे थे ऐसे सिंह के शांत हो जाने पर भी उसका बच्चा हाथियों का विघात करता ही है ॥44॥ इस प्रकार जलते हुए बांसों के बड़े वन के समान भयंकर वचन कहकर तेज से समस्त सभा को ग्रसता हुआ शत्रुघ्न जोर से हंसा ॥45॥ और बोला कि बयाने के समान अल्पवीर्य (अतिवीर्य) के इस कुदूत का तिरस्कार शीघ्र ही किया जाये ॥46॥ शत्रु के इस प्रकार कहते ही क्रोध से भरे योद्धाओं ने उस दूत के दोनों पैर पकड़कर उसे घसीटना शुरू किया जिससे वह पीटे जानेवाले अपराधी कुत्ते के समान काय-काय करने लगा ॥47॥ इस तरह नगरी के मध्य तक घसीटकर उसे छोड़ दिया । तदनंतर दुःखी दुर्वचनों से जला और धूलि से धूसर हुआ वह दूत वहाँ से चला गया ।। 48।।
तदनंतर जो समुद्र के समान गंभीर थे, परमार्थ के जानने वाले थे तथा जो दूत के पूर्वोक्त अपूर्व वचन सुनकर कुछ क्रोध को प्राप्त हुए थे ऐसे श्रीमान् राजा भरत, शत्रुघ्न भाई और मंत्रियों को साथ ले, शत्रु का प्रतिकार करने के लिए नगरी से बाहर निकले ॥49-50॥ वह सुनकर मिथिला का राजा कनक बड़ी भारी सेना लेकर भरत से आ मिला तथा भक्ति में तत्पर रहने वाले सिंहोदर आदि राजा भी आ पहुँचे ।। 51 ।। इस प्रकार जो पिता के समान प्रजा की रक्षा करते थे, तथा जो न्याय-नीति में निपुण थे ऐसे राजा भरत बड़ी भारी सेना से युक्त हो नंद्यावर्त नगर की ओर चले ॥52॥
उधर अपने अपमान को दिखाने वाले दूत ने जिसे अत्यंत कुपित कर दिया था, जो क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान भयंकर था, जो अग्नि के समान दमक रहा था तथा अनेक बड़े-बड़े आश्चर्यपूर्ण कार्य करने वाले सामंत जिसे घेरे थे ऐसे राजा अतिवीर्य ने भी भरत के प्रति चढ़ाई करने का निश्चय किया ॥53-54 ।। तदनंतर ललाट से तरुण चंद्रमा की आकृति के धारण करने वाले राम ने वनमाला के पिता राजा पृथिवीधर को संकेत कर स्वेच्छानुसार कहा कि जिसने पिता के समान बड़े भाई को अपमानित किया है ऐसे भरत पर अतिवीर्य का ऐसा करना उचित ही है ॥55-56।। तदनंतर मैं अभी आता हूँ इस प्रकार कहकर राजा पृथिवीधर ने दूत को तो विदा किया और राम के साथ बैठकर इस प्रकार सलाह की कि अतिवीर्य का निराकरण करना सरल नहीं है इसलिए मैं छल से जाता हूँ । राजा पृथिवीधर के इस प्रकार कहने पर राम ने विश्वासपूर्वक कहा कि हम लोगों को यह कार्य अज्ञात रूप से चुपचाप करना योग्य है अतः हे राजन् ! बड़े आडंबर की आवश्यकता नहीं है ॥57-59॥ आप सुचारु रूप से अपना काम करते हुए यहीं रहिए में आपके पुत्र तथा जवाई के साथ शत्रु के सम्मुख जाता है ॥6॥ इस प्रकार कहकर राम, लक्ष्मण सीता के साथ रथ पर सवार हो श्रेष्ठ सेना सहित राजा पृथिवीधर के पुत्रों को साथ ले नंद्यावर्तपुरी की ओर चले तथा वेग से चलकर नगरी के निकट जाकर ठहर गये ॥61-62 ।। वहाँ स्नान, भोजन आदि शरीर संबंधी कार्य कर चुकने के बाद राम, लक्ष्मण तथा सीता की पृथिवीधर के पुत्रों के साथ निम्न प्रकार सलाह हुई ॥63॥ सलाह के बीच सीता ने राम से कहा कि हे नाथ ! यद्यपि आपके समीप मुझे कहने का अधिकार नहीं है क्योंकि सूर्य के रहते हुए क्या तारा शोभा देते हैं ? ॥64।। तथापि हे देव ! हित की इच्छा से प्रेरित हो कुछ कह रही हूँ सो ठीक ही है क्योंकि वंश की लता से उत्पन्न हुआ मणि भी तो ग्राह्य होता है ॥65॥ सीता ने कहा कि यह अतिवीर्य, अत्यंत बलवान, बड़ी भारी सेना से सहित तथा क्रूरतापूर्ण कार्य करने वाला है सो भरत के द्वारा कैसे जीता जा सकता है ? ॥66॥ अतः शीघ्र ही उसके जीतने का उपाय सोचिए क्योंकि सहसा प्रारंभ किया हुआ कार्य संशय में पड़ जाता है ॥67।। यद्यपि तीन लोक में भी ऐसा कार्य नहीं है जो आप तथा लक्ष्मण के असाध्य हो किंतु जो कार्य प्रकृत कार्य को न छोडकर प्रारंभ किया जाता है वही प्रशंसनीय होता है ।। 68।। तदनंतर लक्ष्मण ने कहा कि हे देवि ! ऐसा क्यों कहती हो, तुम कल ही अणुवीर्य ( अतिवीर्य) को रण में मेरे द्वारा मरा हुआ देख लेना ।। 69॥ राम की चरण-धलि से जिसका शिर पवित्र है ऐसे मेरे सामने देव भी खड़े होने के लिए समर्थ नहीं हैं फिर अणुवीर्य की तो बात ही क्या है ? ॥70॥ अथवा कुतूहल से भरा सूर्य जब तक अस्त नहीं होता है तब तक आज ही अणुवीर्य की मृत्यु देख लेना ॥71॥ तरुण लक्ष्मण के गर्व से फूले राजा पृथिवीधर के पुत्रों ने भी प्रतिध्वनि के समान यही जोरदार शब्द कहे ॥72॥
तदनंतर धैर्य से समुद्र को कुल्ले के समान तुच्छ करनेवाले महामना राम ने भृकुटि के भंग से पृथिवीधर के पुत्रों को रोककर लक्ष्मण से कहा कि हे तात ! सीता ने सब बात बिलकुल ठीक कही है केवल रहस्य खुल न जाये इससे भयभीत हो खुलासा नहीं किया है ꠰꠰ 73-74 ।। उसका जो अभिप्राय है वह सुनो । यह कह रही है कि चूंकि अतिवीर्य बल से उद्धत है अतः भरत के द्वारा रणांगण में वश करने के योग्य नहीं है ।। 75॥ भरत उसके दशवें भाग भी नहीं है वह दावानल के समान है अतः यह महागज उसका क्या कर सकता है ? ॥76 ।। यद्यपि भरत घोड़ों से समृद्ध है पर अतिवीर्य हाथियों से समृद्ध है अतः जिस प्रकार सिंह विंध्याचल का कुछ नहीं कर सकता उसी प्रकार भरत भी अतिवीर्य का कुछ नहीं कर सकता ॥77॥ वह भरत को जीत लेगा इसमें कुछ भी संशय नहीं है अथवा दो में से किसी की जीत होगी पर उससे प्राणियों का विनाश तो होगा ही ꠰꠰78॥ जब बिना कारण ही दो व्यक्तियों में परस्पर विरोध होता है तब दोनों पक्ष के मनुष्यों का विवश होकर क्षय होता ही है ॥79॥ और यदि दुष्ट अतिवीर्य ने भरत को वश कर लिया तो फिर देखो रघुवंश का कैसा अपयश उत्पन्न होता है ? ॥80॥ इस विषय में संधि भी होती नहीं दिखती क्योंकि मानी शत्रुघ्न ने लड़कपन के कारण अत्यंत उद्धत शत्रु के बहुत दोष अपराध किये हैं सुनो, रौद्रभूति के साथ मिलकर शत्रुघ्न ने अंधेरी रात में छापा मार-मारकर उसके बहुत से निद्रा निमग्न वीरों को तथा जिन पर चढ़ना कठिन था और जिनसे मद के निर्झर झर रहे थे ऐसे बहुत―से हाथियों को मारा । पवन के समान वेगशाली चौंसठ हजार घोड़े और अंजनगिरि के समान आभा वाले सात सौ हाथी जो कि इसके नगर के बाहर स्थित थे, तीन दिन तक चुराकर भरत के पास ले गया सो क्या लोगों के मुंह से तुमने सुना नहीं है ? ॥81-85॥
कलिंगाधिपति अतिवीर्य ने जब देखा कि बहुत से राजाओं को गहरी शल्य लगी हुई है तथा कितने ही राजा निष्प्राण हो गये हैं और साथ ही बहुत-सी सेना का अपहरण हुआ है तब वह परम क्रोध को प्राप्त हुआ । अब वह सब ओर से सावधान है और बुद्धि में वैरी से बदला लेने का विचार कर रण की प्रतीक्षा कर रहा है ।। 86-87॥ भरत मानियों में श्रेष्ठ है तथा बुद्धिमान् भी इसलिए वह उसके जीतने में एक युद्धरूपी उपाय को छोड़कर अन्य उपाय प्रयोग में नहीं लाना चाहता ।। 88 इसे ठीक कर सकते हो यह किसे प्रतीत नहीं है ? अथवा हे तात ! इसकी बात जाने दो तुझ में तो सूर्य को भी गिराने की शक्ति है किंतु भरत इसी प्रदेश में विद्यमान है अर्थात् यहाँ से बहुत ही निकट है सो इस समय उस तरह अयोध्या से निकलकर प्रकट होना उचित नहीं है ।। 89-90॥ जो लोग अज्ञात रहकर मनुष्यों को आश्चर्य में डाल देनेवाला भारी उपकार करते हैं वे चुपचाप बरसकर गये हुए रात्रि के मेघों के समान अत्यंत प्रशंसनीय हैं ॥11॥ इस प्रकार सलाह करते-करते राम को, अतिवीर्य के वश करने का उपाय सूझ आया और उसके बाद सलाह का काम समाप्त हो गया ।। 92॥
अथानंतर आत्मीय जनों के साथ मिले हुए राम ने, प्रमादरहित हो उत्तमोत्तम कथाएँ कहते हुए सुख से रात्रि व्यतीत की ॥93॥ दूसरे दिन डेरे से निकलकर राम ने आर्यिकाओं से सहित जिनमंदिर देखा सो हाथ जोड़कर बड़ी भक्ति से उसमें प्रवेश किया ॥94॥ भीतर प्रवेश कर जिनेंद्र भगवान् तथा आर्यिकाओं को नमस्कार किया । वहाँ आर्यिकाओं की जो वरधर्मा नाम की गणिनी थी उसके पास सीता को रखा तथा सीता के पास ही अपने सब शस्त्र छोड़े । तदनंतर अतिशय चतुर राम ने अपने आपका नृत्यकारिणी का वेश बनाया और साथ ही अत्यंत सुंदररूप को धारण करने वाले लक्ष्मण आदि ने भी स्त्रियों के वेष धारण किये ॥95-96 ।। तत्पश्चात् जिनेंद्र भगवान् की मंगलमयी पूजा कर सब लोगों के साथ राम ने लीला पूर्वक राजमहल के द्वार की ओर प्रस्थान किया ।। 97॥ इंद्र नर्तकी की तुलना करने वाली उन नर्तकियों को देखकर आश्चर्य से भरे समस्त नगरवासी उनके पीछे लग गये ॥98।। तदनंतर उत्तम चेष्टाओं और सुंदर आभूषणों को धारण करने वाली वे नृत्यकारिणी सब लोगों के नेत्र और मन को हरती हुईं राजमहल के द्वार पर पहुंचीं ॥99॥
तदनंतर जिनके नेत्रकमल विकसित थे तथा जो भारती की गंभीर तान खींचने में आसक्त थीं ऐसी उन नृत्यकारिणी स्त्रियों ने भक्ति में तत्पर रहने वाली हम सब चौबीस तीर्थंकरों को भक्ति पूर्वक नमस्कार करती हैं, यह कहकर सब प्रथम ‘तेवा-लेवा’ यह अव्यक्त ध्वनि की फिर पुराणों में प्रतिपादित वस्तुओं का गाना शुरू किया ॥100-101 ।। उन नृत्यकारिणियों की अश्रुतपूर्व ध्वनि सुनकर गुणों से खिंचा राजा अतिवीर्य उनके पास इस तरह आ गया जिस तरह कि पानी में गुण अर्थात् रस्सी से खिंचा काष्ठ का भार खींचने वाले के पास आता है ॥102।। तदनंतर फिर की लेकर सुंदर अंगों को मोड़ती हुए श्रेष्ठ नर्तकी राजा के सम्मुख गयी ॥103।। वहाँ उसका मंद-मंद मुसकान के साथ देखना, भौंहों का चलाना, विज्ञ मनुष्य ही जिसे समझ पाते थे ऐसे सुंदर स्तनों का कंपाना, धीमी-धीमी सुंदर चाल से चलना, स्थूल नितंब का मटकाना, भुजारूप लताओं का चलाना, उत्तम लीला के साथ हस्तरूपी पल्लवों का किराना, जिन में शीघ्रता से स्पर्श कर पृथिवीतल छोड़ दिया जाता था ऐसे पैर रखना, शीघ्रता से नृत्य की अनेक मुद्राओं का बदलना, केशपाश का चलाना, कटि की अस्थि का हिलाना, तथा नाभि आदि शरीर के अवयवों का दिखलाना आदि काम के बाणों से समस्त मनुष्य ताड़े गये थे॥104-107 । वह नर्तकी, जिनका यथास्थान प्रयोग किया गया था ऐसी मूच्छंनाओं, स्वरों तथा ग्रामों-स्वरों के समूह से सखियों के स्वर को अपने स्वर में मिलाकर बहुत सुंदर गा रही थी ॥108॥
वह नृत्यकारिणी जिस-जिस स्थान में ठहरती थी सारी सभा उसी-उसी स्थान में अपने नेत्र लगा देती थी ॥109।। सारी सभा के नेत्र उसके रूप से, कान मधुर स्वर से और मन, रूप तथा स्वर दोनों से मजबूत बंध गये थे ॥110॥ जिनके मुख कमल विकसित थे ऐसे सामंत लोग उन नर्तकियों को पुरस्कार देते-देते अलंकार रहित हो गये थे उनके शरीर पर केवल पहनने के वस्त्र ही बाकी रह गये थे ।।111।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! गायन-वादन से सहित उस नृत्यकारिणी का वह नृत्य देवों को भी वश कर सकता था फिर जिनका हरा जाना सरल बात थी ऐसे अन्य मनुष्यों की तो बात ही क्या थी ? ॥112॥ इस तरह संक्षेप से ऋषभ आदि तीर्थंकरों के चरित्र का कीर्तन कर जब उस नर्तकी ने समस्त सभा को अत्यंत वशीभूत कर लिया तब वह संगीत से परम दीप्ति को धारण करती हुई राजा को इस प्रकार का असह्य उलाहना देने के लिए तत्पर हुई ॥113-114॥ उसने कहा कि हे अतिवीर्य ! यह तेरी अतिशय दुष्ट चेष्टा क्या है ? तेरा यह कार्य नीति से रहित है, किसने तुझे इस कार्य में लगाया है ? ॥115 ।। जिस तरह शृंगाल सिंह को कुपित करता है उस तरह तूने शांत चित्त भरत को अपना नाश करने के लिए इस तरह क्यों कुपित किया है ? ॥116।। इतना सब होने पर भी यदि तुझे अपना जीवन प्यारा है तो शीघ्र ही परम विनय को धारण करता हुआ जाकर भरत को प्रसन्न कर ॥117॥ हे भद्र ! विशुद्ध कुल में उत्पन्न तथा उत्तम क्रीड़ा की भूमि स्वरूप तेरी ये स्त्रियाँ विधवा न हों ॥118 ।। तुझ से रहित होने पर जिनने समस्त आभूषण छोड़ दिये हैं ऐसी ये उत्तम स्त्रियाँ चंद्रमा से रहित ताराओं के समान निश्चित ही शोभित नहीं होंगी ॥119॥ इसलिए अशुभ ध्यान में जाने वाले अपने चित्त को शीघ्र ही लौटा, उठ, जा और मान रहित हो भरत को नमस्कार कर । तू बुद्धिमान् है ॥120।। अतः ऐसा कर । हे अधम पुरुष ! यदि तू ऐसा नहीं करता है तो आज ही नष्ट हो जायेगा इसमें संशय नहीं है ॥121।। अनरण्य के पोता भरत के जीवित रहते ही तू राज्य चाहता है सो सूर्य के देदीप्यमान रहते चंद्रमा की क्या शोभा है ? ॥122॥ जिस प्रकार कांति के लोभी तथा कमजोर पंखों वाले मूर्ख शलभ का मरण आ पहुँचता है उसी प्रकार हम लोगों के रूप पर आसक्त तथा खोटे सहायकों से युक्त तुझ मूढ़ का आज मरण आ पहुँचा है ।।123।। तू जल के साँप के समान तुच्छ होकर भी गरुड़ के समान जो महात्मा राजा भरत हैं उनके साथ ईर्ष्या करना चाहता है ।। 124।।
तदनंतर नृत्यकारिणी के मुख से अपना तर्जन और भरत की प्रशंसा सुनकर राजा अतिवीर्य सभा के साथ लाल-लाल नेत्रों का धारक हो गया अर्थात् क्रोधवश उसके नेत्र लाल हो गये ॥125 ।। जिसका मन अत्यंत रूक्ष हो गया था, जिसका प्रेम समाप्त हो चुका था और जो भ्रकुटिरूपी तरंगों से व्याकुल थी ऐसी सारी सभा समुद्र की वेला के समान क्षोभ को प्राप्त हुई ॥126।। क्रोध से काँपते हुए अतिवीर्य ने ज्यों ही तलवार उठायी त्यों ही नर्तकी ने विलासपूर्वक विभ्रम दिखाते हुए उछलकर तलवार छीन ली और सब राजाओं के देखते-देखते अतिवीर्य को जीवित पकड़कर मजबूती से उसके केश बाँध लिये ।।127-128॥ नर्तकी ने तलवार उठाकर राजाओं की ओर देखते हुए कहा कि यहाँ जो भी अविनय करेगा वह निःसंदेह मेरे द्वारा होगा ॥129।। यदि आप लोगों को अपना जीवन प्यारा है तो अतिवीर्य का पक्ष छोड़कर विनयरूपी आभूषण से युक्त हो शीघ्र ही भरत के चरणों में नमस्कार करो ॥130॥ जो लक्ष्मी से युक्त है, गुण ही जिसकी विस्तृत किरणों का समूह है, जो लोगों को परम आनंद का देने वाला है, जिसकी लक्ष्मीरूपी कुमुदिनी शत्रुरूपी सूर्य से निर्मुक्त होकर परम विकास को प्राप्त हो रही है तथा जो अत्यंत आश्चर्यजनक कार्य कर रहा है ऐसा दशरथ के वंश का चंद्रमा भरत जयवंत है ॥131-132॥
तदनंतर लोगों के मुख से इस प्रकार के शब्द निकलने लगे कि अहो ! यह बड़ा आश्चर्य है, यह तो बहुत भारी इंद्रजाल के समान है ॥133॥ जिसकी नृत्यकारिणियों की यह ऐसी चेष्टा है उस भरत की शक्ति का क्या ठिकाना ? वह तो इंद्र को भी जीत लेगा ॥134 ।। न जाने वह राजा भरत कुपित होकर हमारा क्या करेगा ? अथवा प्रणाम करने वालों पर वह अवश्य ही मार्दवभाव को प्राप्त होगा ॥135 ।। तदनंतर राम अतिवीर्य को पकड़ हाथी पर सवार हो अपने परिजन के साथ जिनमंदिर गये ॥136॥ वहाँ उन्होंने हाथी से उतरकर बड़े हर्ष से मंदिर के भीतर प्रवेश किया और मंगलमय शब्दों का उच्चारण कर बड़ी भारी पूजा की ॥137 ।। मंदिर में सर्व संघ के साथ जो वरधर्मा नाम की गणिनी ठहरी हुई थीं राम ने सीता के साथ संतुष्ट होकर उनकी भी उत्तम पूजा की ॥138 । यहाँ राम ने अतिवीर्य को लक्ष्मण के लिए सौंप दिया और वे उसका वध करने के लिए उद्यत हुए तब सीता ने कहा कि हे लक्ष्मीधर ! निष्ठुर अभिप्राय के धारी हो इसकी ग्रीवा मत छेदो और न जोर से इसके केश ही पकड़ो । हे कुमार ! सौम्यता को प्राप्त होओ ॥139-140 ।। इस बेचारे का क्या दोष है ? यद्यपि मनुष्य कर्मों की सामर्थ्य से आपत्ति को प्राप्त होते हैं तथापि सज्जनता को धारण करने वाले मनुष्य उनकी रक्षा ही करते हैं ॥141 ।।
जो सज्जन पुरुष हैं उन्हें साधारण मनुष्य को भी दुःखी करना उचित नहीं है फिर यह तो हजारों राजाओं का पूज्य है इसकी बात ही क्या है ? ॥142॥ हे भद्र ! इसे आपने वश कर ही लिया है अतः इसे छोड़ दो । अपनी सामर्थ्य को जानता हुआ यह अब कहाँ जायेगा ? ॥143 ।। प्रबल शत्रुओं को पकड़कर तदनंतर संधि के अनुसार सम्मान कर उन्हें छोड़ दिया जाता है यह चिरकाल की मर्यादा है ॥144॥
सीता के इस प्रकार कहने पर लक्ष्मण ने हस्तकमल जोड़ मस्तक पर लगाते हुए कहा कि हे देवि ! आप जो कह रही हैं वह वैसा ही है ॥145।। हे स्वामिनि, आपकी आज्ञा से इसका छोड़ना तो दूर रहा इसे आपके प्रसाद से ऐसा कर सकता हूँ कि यह देवताओं का भी पूज्य हो जाये ॥146॥
इस प्रकार शीघ्र ही लक्ष्मण के शांत होने पर प्रतिबोध को प्राप्त हुआ अतिवीर्य राम की स्तुति कर कहने लगा ॥147॥ कि आपने जो यह अद्भुत चेष्टा की सो बड़ा भला किया । मेरी जो बुद्धि कभी उत्पन्न नहीं हुई वह आज उत्पन्न हो गयी ॥148॥ इतना कह उसने हार और मुकुट उतार कर रख दिये । यह देख सौम्य आकार को धारण करने वाले दयालु राम ने विश्वास दिलाते हुए कहा कि हे भद्र ! तू दीनता को प्राप्त मत हो, पहले जैसा धैर्य धारण कर, विपत्तियों से सहित संपदाएं महापुरुषों को ही प्राप्त होती हैं ॥149-150।। अब मुझे कोई आपत्ति नहीं है ꠰ इस क्रमागत नंद्यावर्त नगर में भरत का आज्ञाकारी होकर इच्छानुसार राज्य कर ॥151॥
तदनंतर अतिवीर्य ने कहा कि अब मुझे राज्य की इच्छा नहीं है । राज्य ने मुझे फल दे दिया है । अब दूसरे ही अवस्था में लगना चाहता हूँ ॥152॥ उत्कट मान को धारण करते हुए मैंने हिमवान् से लेकर समुद्र तक की सारी पृथिवी जीतने की इच्छा की थी सो मैं अपने मान को उखाड़कर निःसार हो गया हूँ अब मैं पुरुषत्व को धारण करता हुआ अन्य को नमस्कार कैसे कर सकता हूँ ? ॥153-154॥ जिन महापुरुषों ने इस छह खंड की रक्षा की है वे भी संतोष को प्राप्त नहीं हुए फिर मैं इन पाँच गांवों से कैसे संतुष्ट हो सकता हूँ ? ॥155॥ जंमांतर में किये हुए इस कर्म की बलवत्ता तो देखो कि जिस प्रकार राह चंद्रमा को कांतिरहित कर देता है उसी प्रकार इसने मुझे कांति रहित-निस्तेज कर दिया ॥156 ।। जिस मनुष्य पर्याय के लिए देव भी चर्चा करते हैं औरों की तो बात ही क्या है उस मनुष्य पर्याय को मैंने अब तक निःसार खोया ॥157॥ अब मैं दूसरा जन्म धारण करने से भयभीत हो चुका हूँ इसलिए आप से प्रतिबोध पाकर यह चेष्टा करता हूँ कि जिससे मुक्ति प्राप्त होती है ।। 158 ।। इस प्रकार कहकर परिजन सहित राम से क्षमा कराकर सिंह के समान शूरवीरता को धारण करता हुआ अतिवीर्य श्रुतिधर मुनिराज के पास गया और अंजलि युक्त शिर से नमस्कार कर बोला कि हे नाथ ! मैं दैगंबरी दीक्षा धारण करना चाहता हूँ ॥159-160॥ एवमस्तु इस प्रकार आचार्य के कहते ही वह वस्त्रादि त्यागकर तथा केश लोंचकर महाव्रत का धारी हो गया ॥161॥ आत्मा के अर्थ में तत्पर, तथा राग-द्वेष आदि परिग्रह से रहित होकर वह धीर-वीर पृथिवी में विहार करने लगा । विहार करते-करते जहाँ सूर्य अस्त हो जाता था वहीं वह ठहर जाता था ॥162 ।। सिंह आदि दुष्ट जानवरों से युक्त सघन वनों तथा पर्वतों की गुफाओं में वह निर्भय होकर निवास करता था ॥163॥ जिसने समस्त परिग्रह की आशा छोड़ दी थी, जिसने चारित्र का भार धारण किया था, जो उत्तम शील से युक्त था, नाना प्रकार के तप से जिसने अपना शरीर सुखा दिया, तथा जो स्वयं शुभ रूप था उन महामुनि अतिवीर्य को नमस्कार करो ॥164॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूपी मनोहर आभूषणों से जो सहित थे, दिशाएँ हो जिनके अंबर-वस्त्र थे, मुनियों के अट्ठाईस मूल गुण ही जिनके आभरण थे, जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओं को हरने के लिए प्रस्थान किया था, और जो मुक्ति के योग्य वर थे उन महामुनि अतिवीर्य को नमस्कार करो ॥165 ।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अतिवीर्य मुनि के इस उत्कृष्ट चरित को जो बुद्धिमान् सुनता है अथवा पढ़ता है वह सभा के बीच बुद्धि को प्राप्त होता है तथा सूर्य के समान प्रभा को धारण करता हुआ कभी कष्ट नहीं पाता ॥166 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध , रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में राजा अतिवीर्य की
दीक्षा का वर्णन करनेवाला सैंतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥37॥