ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 48
From जैनकोष
अड़तालीसवां पर्व
अथानंतर श्रीराम को प्रसन्न करने को इच्छा करती हुई वे उत्तम कन्याएं नाना प्रकार को क्रियाएँ करने लगीं । वे कन्याएं ऐसी जान पड़ती थीं मानो स्वर्गलोक से ही आयी हों ॥1॥ वे कन्याएँ कभी वीणा आदि वादित्र बजाती थी, कभी अत्यंत मनोहर गीत गाती थीं और कभी नृत्यादि ललित क्रीडाएँ करती थीं फिर भी उनकी इन चेष्टाओं से राम का मन नहीं हरा गया ॥2॥ यद्यपि उन्हें सब प्रकार की पुष्कल सामग्री प्राप्त थी तो भी सीता की ओर आकर्षित मन को उन्होंने भोगों में नहीं लगाया ॥3॥ जिस प्रकार मुनि मुक्ति का ध्यान करते हैं उसी प्रकार राम अन्य सब चेष्टाओं को छोडकर अनन्यचित्त हो आदर के साथ सीता का ही ध्यान करते थे ॥4॥ वे न तो उन कन्याओं के शब्दों को सुनते थे और न उनके रूप को ही देखते थे । उन्हें सब संसार सीतामय ही जान पड़ता था ॥5॥
वे एक सीता की ही कथा करते थे और दूसरी कथा ही नहीं करते थे । यदि पास में खड़ी किसी दूसरी स्त्री से बोलते भी थे तो उसे सीता समझकर ही बोलते थे ॥6॥ वे कभी मधुरवाणी में कौए से इस प्रकार पूछते थे कि हे भाई ! तू तो समस्त देश में भ्रमण करता है अतः तूने कहीं सीता को तो नहीं देखा ॥7॥ खिले हुए कमल आदि पुष्पों की पराग से जिसका जल अलंकृत था ऐसे सरोवर में क्रीड़ा करते चकवा-चकवी के युगल को देखकर वे कुछ सोच-विचार में पड़ जाते तथा क्रोध करने लगते ।।8।। कभी नेत्र बंद कर बड़े सम्मान के साथ वायु का यह विचार कर आलिंगन करते कि संभव है कभी इसने सीता का स्पर्श किया हो ॥9॥ इस पृथिवी पर सीता बैठी थी । यह सोचकर उसे धन्य समझते और चंद्रमा को यह सोचकर ही मानो देखते थे कि यह उसके द्वारा अपनी आभा से तिरस्कृत किया गया था ॥10॥ वे कभी यह विचार करने लगते कि सीता मेरी वियोगरूपी अग्नि से जलकर कहीं उस अवस्था को तो प्राप्त नहीं हो गयी होगी जो विपत्तिग्रस्त प्राणियों की होती है ॥11॥ क्या यह सीता है ? मंद-मंद वायु से हिलती हुई लता नहीं है ? क्या यह उसका वस्त्र है, चंचल पत्रों का समूह नहीं है ? ॥12॥ क्या ये उसके नेत्र हैं, भ्रमर सहित पुष्प नहीं हैं ? और क्या यह उसका चंचल हाथ है नूतन पल्लव नहीं है ? ॥13॥ मैं उसका सुंदर केशपाश मयूरियों में, ललाट की शोभा अर्धचंद्र में, नेत्रों की शोभा तीन रंग के कमलों में, मंद मुस्कान की शोभा लाल-लाल पल्लवों के मध्य में स्थित पुष्प में, स्तनों की शोभा कांति संपन्न उत्तम गुच्छों में, मध्यभाग को शोभा जिनाभिषेक की वेदिकाओं के मध्यभाग में, नितंब की स्थूल आकृति उन्हीं वेदिकाओं के ऊर्ध्वभाग में, ऊरुओं की अनुपम शोभा केले के सुंदर स्तंभों में, और चरणों की शोभा स्थल कमलों अर्थात् गुलाब के पुष्पों में देखता हूँ परंतु इन सबके समुदाय स्वरूप सीता की शोभा किसी में नहीं देखता हूँ॥14-18॥
वह सुग्रीव भी बिना कारण क्यों देर कर रहा है ? शुभ पदार्थों को देखने वाले उसने क्या किसी से सीता का समाचार पूछा होगा ? ॥19॥ अथवा वह शीलवती मेरे वियोग से संतप्त होकर नष्ट हो गयी है ऐसा वह जानता है तो भी कहने में असमर्थ होता हुआ ही क्या दिखाई नहीं देता है ? ॥20॥ अथवा वह विद्याधर अपना राज्य पाकर कृतकृत्यता को प्राप्त हो गया है तथा मेरा दुःख भूलकर अपने आनंद में निमग्न हो गया है ॥21॥ इस प्रकार विचार करते-करते जिनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त हो गये थे तथा जिनका शरीर ढीला और आलस्य युक्त हो गया था ऐसे राम के अभिप्राय को लक्ष्मण समझ गये ।। 22 ।।
तदनंतर जिनका चित्त क्षोभ से युक्त था, नेत्र क्रोध से लाल थे, और जिनका हाथ नंगी तलवार पर सुशोभित हो रहा था ऐसे लक्ष्मण सुग्रीव को लक्ष्य कर चले ॥23॥ उस समय जाते हुए लक्ष्मण की जंघाओंरूपी स्तंभों से उत्पन्न वायु के द्वारा समस्त नगर ऐसा कंपायमान हो गया मानो महान् उत्पात से आकुल होकर ही कंपायमान हो गया हो ।। 24 । राजा के समस्त अधिकारी मनुष्यों को अपने वेग से गिराकर वे सुग्रीव के घर में प्रविष्ट हो सुग्रीव से इस प्रकार कहने लगे ॥25 ।। अरे पापी ! जब कि परमेश्वर-राम स्त्री के दुःख में निमग्न हैं तब रे दुर्बुद्धे ! तू स्त्री के साथ सुख का उपभोग क्यों कर रहा है ? ॥26॥ अरे दुष्ट ! नीच विद्याधर ! मैं तुझ भोगासक्त को वहाँ पहुँचाता हैं जहाँ कि राम ने तेरी आकृति को धारण करने वाले कृत्रिम सुग्रीव को पहुँचाया है ॥27॥ इस प्रकार क्रोधाग्नि के कणों के समान उग्र वचन छोड़ने वाले लक्ष्मण को सुग्रीव ने नमस्कार कर शांत किया ॥28॥ और कहा कि हे देव ! मेरी एक भूल क्षमा की जाये क्योंकि मेरे जैसे क्षुद्र मनुष्यों की खोटी चेष्टा होती ही है ।।29।। जिनके शरीर काँप रहे थे ऐसी सुग्रीव की घबड़ायी हुई स्त्रियाँ हाथ में अर्घ ले-लेकर बाहर निकल आयीं और उन्होंने अच्छी तरह प्रणाम कर लक्ष्मण के समस्त क्रोध को नष्ट कर दिया ॥30॥ सो ठीक ही है क्योंकि मनुष्यरूपी अरणि से उत्पन्न हुई क्रोधाग्नि, सज्जनरूपी मेघ संबंधी वचनरूपी जल धाराओं के साथ मिलकर शीघ्र ही कहीं विलीन हो जाती है ॥31॥ निश्चय से महापुरुषों के चित्त को शांति प्रणाम मात्र से सिद्ध हो जाती है जबकि दुर्जन बड़े-बड़े दानों से भी शांत नहीं होते ॥32॥ लक्ष्मण ने प्रतिज्ञा का स्मरण कराते हुए सुग्रीव का उस तरह परम उपकार किया जिस तरह कि योगी अर्थात् मुनि ने यक्षदत्त की माता का किया था ।। 33 ।।
इसी बीच में राजा श्रेणिक ने गौतमस्वामी से पूछा कि हे नाथ ! मैं यक्षदत्त का वृत्तांत जानना चाहता हूँ ॥34॥ तदनंतर गणधर भगवान ने कहा कि हे श्रेणिक भूपाल ! मुनि ने जिस प्रकार यक्षदत्त की माता को स्मरण कराया था वह कथा कहता हूँ सो सुनो ॥35।। एक क्रौंचपुर नाम का नगर है उसमें यक्ष नाम का राजा था और राजिला नाम से प्रसिद्ध उसकी स्त्री थी ।। 36 ।। उन दोनों के यक्षदत्त नाम का पुत्र था । एक दिन उसने नगर के बाहर सुखपूर्वक भ्रमण करते समय दरिद्रों की बस्ती में स्थित एक परम सुंदरी स्त्री देखी ॥37॥ देखते ही काम के बाणों से उसका हृदय हरा गया सो वह रात्रि के समय उसके उद्देश्य से जा रहा था कि अवधिज्ञान से युक्त मुनिराज नेमा अर्थात् हीन इस प्रकार उच्चारण किया ॥38॥ तदनंतर उसी समय बिजली चमकी सो उसके प्रकाश में हाथ में तलवार धारण करने वाले यक्षदत्त ने एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए अयन नामक मुनिराज को देखा ॥39॥ उसने बड़ी विनय से उनके पास जाकर तथा नमस्कार कर उनसे पूछा कि हे भगवन् ! आपने ‘मा’ शब्द का उच्चारण कर निषेध किसलिए किया । इसका मुझे बड़ा कौतुक है ? ॥40 ।। इसके उत्तर में मुनिराज ने कहा कि आप कामी होकर जिसके उद्देश्य से जा रहे थे वह आपकी माता है इसलिए मत जाओ यह कहकर मैंने रो का है ।। 4 ।। यक्षदत्त ने फिर पूछा कि वह मेरी माता कैसे है ? इसके उत्तर में मुनिराज ने प्रकृत वार्ता कही सो ठीक ही है क्योंकि मुनियों के मन अनुकंपा से युक्त होते ही हैं ॥42॥ उन्होंने कहा कि सुनो, मृत्तिकावती नामक नगरी में एक कनक नाम का वणिक् रहता था, उसकी धुर् नाम की स्त्री में एक बंधुदत्त नाम का पुत्र हुआ था ॥43॥ बंधुदत्त की स्त्री का नाम मित्रवती था जो कि लतादत्त की पुत्री थी । एक बार बंधुदत्त अज्ञातरूप से मित्रवती को गर्भधारण कराकर जहाज से अन्यत्र चला गया ॥44 ।। तदनंतर सास श्वसुर ने गर्भ का ज्ञान होने पर उसे दुश्चरिता समझकर नगर से निकाल दिया, सो गर्भवती मित्रवती, उत्पलिका नामक दासी को साथ ले एक बड़े बनजारों के संघ के साथ अपने पिता के घर की ओर चली । परंतु जंगल के बीच उत्पलिका को सांप ने डंस लिया जिससे वह मर गयी ।। 45-46 ।। तब वह सखी से रहित, एक शीलव्रत रूपी सहायिका से युक्त हो महाशोक से व्याकुल होती हई इस क्रौंचपूर नगरी में आयी ।। 47॥ यहाँ स्फीत नामक देवार्चक के उपवन में उसने पुत्र उत्पन्न किया । तदनंतर पुत्र को रत्नकंबल में लपेट कर जब तक वह समीपवर्ती सरोवर में वस्त्र धोने के लिए गयी तब तक एक कुत्ता उस पुत्र को उठा ले गया ।। 48 ।। वह कुत्ता राजा का पालतू प्यारा कुत्ता था इसलिए उगने रत्नकंबल में लिपटे हुए उस पुत्र को अच्छी तरह ले जाकर राजा यक्ष के लिए दे दिया ॥49 ।। राजा ने वह पुत्र अपनी पुत्र रहित राजिला नाम की रानी के लिए दे दिया तथा उसका यक्षदत्त यह सार्थक नाम रखा क्योंकि यक्ष कुत्ता का नाम है और वह पुत्र उसके द्वारा दिया गया था । वही यक्षदत्त तू है ॥50॥ जब मित्रवती लौटकर आयो और उसने अपना पुत्र नहीं देखा तब वह दुःख से चिरकाल तक बहुत विलाप करती रही ।। 51 ।। तदनंतर उपवन के स्वामी देवार्चक ने उसे देखकर दया पूर्वक सांत्वना दी और यह कह कर कि तू हमारी बहन है अपनी कुटी में रक्खी ॥52 ।। सहायक न होने से, लज्जा से अथवा अपकीर्ति के भय से वह फिर पिता के घर नहीं गयी और वहीं रहने लगी ॥53॥ वह अत्यंत शीलवती तथा जिनधर्म के धारण करने में तत्पर रहती हुई दरिद्र देवार्चक की कुटी में बैठी थी सो भ्रमण करते हुए तुमने उसे देखा ॥54॥ उसके पति बंधुदत्त ने परदेश को जाते समय उसे जो रत्नकंबल दिया था वह आज भी राजा यक्ष के घर में सुरक्षित रखा है ।। 55॥ इस प्रकार कहने पर उसने हितकारी मुनिराज को नमस्कार कर उनकी बहुत स्तुति की । तदनंतर वह तलवार लिये ही शीघ्रता से राजा यक्ष के पास गया ॥56॥ और बोला कि यदि तू मेरे जन्म का सच-सच कारण स्पष्ट नहीं बताता है तो मैं इसी तलवार से तेरा मस्तक काट डालूंगा ॥57॥ इतना कहने पर राजा यक्ष ने सब कारण ज्यों-का-त्यों बतला दिया और साथ ही वह रत्नकंबल दिखलाते हुए कहा कि यह अब भी जरायु के लेप से लिप्त है ॥58॥ तदनंतर उसका अपने पूर्व माता-पिता के साथ समागम हो गया और महावैभव से आश्चर्य में डालने वाला बड़ा उत्सव हुआ ॥59॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि है राजन् ! प्रकरण आ जाने से यह वृत्तांत मैंने तुझ से कहा अब फिर प्रकृत बात कहता हूँ सो सावधान होकर श्रवण कर ॥60॥
तदनंतर सुग्रीव, लक्ष्मण को आगे कर शीघ्र ही राम के समीप आया और नमस्कार कर खड़ा हो गया ॥61॥ तत्पश्चात् उसने पराक्रम के गर्व से सदा स्पष्ट चेष्टाओं के करने वाले एवं उच्च कुलों में उत्पन्न समस्त किंकरों को बुलाकर जिन महाभोगी किंकरों ने यह वृत्तांत नहीं सुना था उन्हें राम का अद्भुत कार्य बतलाकर आश्चर्य से चकित किया ॥62-63 ।। तथा जो इस वृत्तांत को जानते थे प्रभु का कार्य करने में तत्पर रहने वाले उन किंकरों का वचन द्वारा सम्मान करते हुए उनसे राम का प्रत्युपकार करने के लिए यह कहा ॥64॥ कि हे उत्तम विभ्रमों को धारण करने वाले श्री संपन्न समस्त पुरुषो ! तुम लोग शीघ्र ही सीता का पता चलाओ कि वह कहां है ? ॥65॥ तुम लोग नाना प्रकार की विद्याओं और पराक्रम से युक्त हो अतः इस समस्त भूतल में, पाताल में, आकाश में, जल में, थल में, जंबूद्वीप में, समुद्र में, घातकीखंडद्वीप में, कुलाचलों के निकुंजों में, वन के अंत भागों में, सुमेरु पर्वतों में, विद्याधरों के चित्र-विचित्र मनोहर नगरों में, समस्त दिशाओं में और भूमि के विवरों अर्थात् कंदराओं में सीता का पता चलाओ ॥66-68॥
तदनंतर हर्ष से भरे अहंकारी वानर शेषाक्षत की तरह सुग्रीव की आज्ञा को शिर पर धारण कर शीघ्र ही उड़कर समस्त दिशाओं में चले गये ।। 69॥ एक तरुण विद्याधर के द्वारा विधिपूर्वक पत्र भेजकर भामंडल के लिए भी समस्त वृत्तांत से अवगत कराया गया ॥70॥ तदनंतर बहन के दुःख से भामंडल अत्यंत दुखी हुआ और सुग्रीव के समान राम का अतिशय आज्ञाकारी हुआ ॥71॥ सुग्रीव, स्वयं भी सीता की खोज करने के लिए ताराओं के समूह के साथ आकाशमार्ग से चला ॥72॥ वह दृष्ट विद्याधरों के अनेक नगरों के बीच सीता की खोज करने में तत्पर हुआ भ्रमण कर रहा था । तदनंतर हवा से हिलती हुई ध्वजा को दूर से देखकर वह जंबूद्वीप के एक पर्वत के शिखर से उपलक्षित आकाश में पहुंचा । उस समय उसके वस्त्र का अंचल हवा से हिल रहा था ।। 73-74॥ उस पर्वत पर रत्नकेशी विद्याधर रहता था, सो वह आकाश से उतरते हुए सूर्य के समान देदीप्यमान सुग्रीव के विमान को देखकर उत्पात की आशंका से युक्त हो गया ॥75॥ विमान को देखकर वह अत्यंत विह्वल हो गया और जिस प्रकार गरुड़ से भयभीत हो सर्प संकुचित होकर रह जाता है उसी प्रकार रत्नकेशी भी उस विमान से भयभीत हो संकुचित होकर रह गया ॥76॥ जब सुग्रीव बिलकुल निकट आ गया तब उसे उसकी ध्वजा से वानरवंशी जानकर रत्नकेशी मृत्यु के भय से व्याकुल होता हुआ इस प्रकार को चिंता को प्राप्त हुआ ।। 77॥ जान पड़ता है कि मैंने लंकाधिपति-रावण का अपराध किया था अतः कुपित होकर उसके द्वारा मुझे नष्ट करने के लिए भेजा हुआ यह सुग्रीव आया है ॥78।। हाय मैं भय उत्पन्न करनेवाले लवण समुद्र में गिरकर शीघ्र ही क्यों नहीं मर गया । मुझे धिक्कार है जिसे इस अन्य द्वीप में मरण प्राप्त हुआ है-मरने का अवसर प्राप्त हो रहा है ॥79॥ मैं विद्याबल से रहित होकर भी इच्छाओं को आगे कर जीवित रहने की इच्छा से युक्त हूँ सो देखूं अब क्या प्राप्त करता हूँ ? ॥80 । इस प्रकार रत्नकेशी विचार कर ही रहा था कि इतने में द्वितीय सूर्य के समान द्वीप को प्रकाशित करता हुआ सुग्रीव वहाँ शीघ्र ही जा पहुँचा ॥81॥ वन की धूलि से जिसका समस्त शरीर धूसर हो रहा था ऐसे उस रत्नकेशी को देखकर दया धारण करते हुए सुग्रीव ने पूछा ॥82॥ कि तू रत्नजटी तो पहले विद्याओं से समुन्नत था । हे भद्र ! अब ऐसी दशा को किस कारण प्राप्त हुआ है ? ॥83॥ इस प्रकार दया के धारक सुग्रीव ने उससे सुख समाचार पूछा तो भी भय के कारण उसका समस्त शरीर काँप रहा था तथा वह अत्यंत दोन जान पड़ता था ।। 84॥ तदनंतर सुग्रीव ने जब उससे बार-बार कहा कि हे भद्र ! भयभीत मत हो, भयभीत मत हो तब कहीं धैर्य धारण कर उसने नमस्कार किया और स्पष्ट अक्षरों में कहा कि हे सत्पुरुष ! दुष्ट रावण सीता के हरने में तत्पर था उस समय मैंने उसका विरोध किया जिससे उसने मेरी विद्याएं छीनकर मुझे ऐसा कर दिया ।। 85-86॥ हे कपिश्रेष्ठ ! दैवयोग से जीवित रहने को आशा से मैं यहाँ इस ध्वजा को ऊपर उठाकर किसी तरह स्थित हूँ-रह रहा हूँ ॥87॥ तदनंतर समाचार प्राप्त हो जाने से जो हर्षजन्य उद्वेग को धारण कर रहा था ऐसा सुग्रीव शीघ्र ही रत्नजटी को लेकर अपने नगर की ओर गया ।। 88 ꠰꠰
अथानंतर विनय से भरे रत्नजटी ने हाथ जोड़कर लक्ष्मण तथा अन्य बड़े-बड़े विद्याधरों के सामने राम से कहा कि हे देव ! अतिशय दुष्ट, लंकापुरी के राजा क्रूर रावण ने पतिव्रता सीतादेवी को तथा क्रोध करने वाले मुझ रत्नजटी की विद्या को हरा है ।। 89-90॥ जो चित्त को हरण करने वाली ध्वनि से महारुदन करती हुई मृगी के समान व्याकुल हो रही थी ऐसी सीता को वह बलवान् हरकर ले गया है ॥91।। जिसने भयंकर संग्राम में अत्यंत बलवान्, विद्याधरों के अधिपति इंद्र को जीतकर कारागार में डाला था ॥92॥ जो भरतक्षेत्र के तीन खंडों का अद्वितीय स्वामी है, जिसने कैलास पर्वत के उठाने में विशाल यश प्राप्त किया है, समुद्रांत पृथ्वी दासी के समान जिसकी आज्ञा की प्रतीक्षा करती है, सुर तथा असुर मिलकर भी जिसे जीतने के लिए समर्थ नहीं हैं, जो विद्वानों में श्रेष्ठ है तथा धर्म-अधर्म के विवेक से युक्त है, उसी रावण ने यह क्रूर कार्य किया है सो कहना पड़ता है कि पापी जीवों का मोह बड़ा प्रबल है ।। 93-95 ।। यह सुनकर नाना प्रकार के स्नेह को धारण करते हुए राम ने आदर के साथ रत्नजटी के लिए अपने शरीर का स्पर्श दिया अर्थात् उसका आलिंगन किया॥꠰꠰96꠰꠰ और देवोपगीत नामक नगर का स्वामित्व रत्नजटी के वंश परंपरा से चला आता था पर बीच में शत्रुओं ने छीन लिया था सो उसे उसका स्वामित्व प्रदान किया― वहाँ का राजा बनाया ॥97꠰꠰ राम, बार-बार आलिंगन कर उससे यह समाचार पूछते थे और वह हर्ष से स्खलित होते हुए अक्षरों में बार-बार उक्त समाचार सुनाता था ॥98॥
तदनंतर अत्यंत उत्सुकता से भरे राम ने शीघ्र ही पूछा कि हे विद्याधरो ! बतलाओ कि लंका कितनी दूर है ?॥99 ।। इस प्रकार राम के कहने पर सब विद्याधर मोह को प्राप्त हो गये । उनके शरीर निश्चल हो रहे तथा वे नम्र मुख, कांतिहीन और वचनों से रहित हो गये ॥100॥ तदनंतर जिनके हृदय भय से विशीर्ण हो रहे थे ऐसे उन विद्याधरों का अभिप्राय जानकर राम ने उनकी ओर अवज्ञा पूर्ण दृष्टि से देखा ॥101 ।। तत्पश्चात् हम श्रीराम की दृष्टि में भयभीत जाने गये हैं । इस विचार से जो लज्जित हो रहे थे ऐसे उन विद्याधरों ने हाथ जोड़ मस्तक से लगा मन को धीर कर कहा कि ॥102॥ हे देव ! किसी तरह उच्चारण किया हुआ जिसका नाम ही भय से ज्वर उत्पन्न कर देता है उसके विषय में हम आपके सामने क्या कहें ? ॥103 ।। क्षुद्र शक्ति के धारक हम लोग कहां और लंका का स्वामी रावण कहाँ ? अतः इस समय आप इस जानी हुई वस्तु की हठ छोड़िए ॥104।। अथवा हे प्रभो! यह सुनना आवश्यक ही है तो सुनिए कहने में क्या दोष है ? आपके समक्ष तो कुछ कहा जा सकता है ॥105॥ दष्ट मगरमच्छों से भरे हुए इस लवण से अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध राक्षसद्वीप है ॥106 ।। जो सब ओर से सात योजन विस्तृत है तथा कुछ अधिक इक्कीस योजन उसकी परिधि है ॥107॥ उसके बीच में सुमेरु पर्वत के समान त्रिकूट नाम का पर्वत है जो नो योजन ऊंचा और पचास योजन चौड़ा है ॥108 ।। सुवर्ण तथा नाना प्रकार के मणियों से देदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है । राक्षसों के इंद्र भीम ने मेघवाहन के लिए वह दिया था ॥109॥ तट पर उत्पन्न हुए नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वृक्षों से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखर पर लंका नाम की नगरी है जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ग के विमानों के समान मनोहर महलों एवं क्रीड़ा आदि के योग्य सुंदर प्रदेशों से अत्यंत शोभायमान है ।। 110-11।। जो सब ओर से तीस योजन चौड़ी है तथा बहुत बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथिवी के समान जान पड़ती है ॥112।। लंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश हैं जो रत्न, मणि तथा स्वर्ण से निर्मित हैं ॥113।। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त हैं, राक्षसों की क्रीड़ा-भूमि हैं तथा महाभोगों से युक्त विद्याधरों से सहित हैं ॥114।। संध्याकार, सुवेल, कांचन, लादन, योधन, हंस, हरिसागर और अर्द्धस्वर्ग आदि अन्य द्वीप भी वहाँ विद्यमान हैं जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगों को देने वाले हैं, वन-उपवन आदि से विभूषित हैं तथा स्वर्ग प्रदेशों के समान जान पड़ते हैं ॥115-116।। लंकाधिपति रावण भृत्य वर्ग से आवृत हो मित्रों, भाइयों, पुत्रों, स्त्रियों तथा अन्य इष्टजनों के साथ उन प्रदेशों में क्रीड़ा किया करता है ॥117॥ क्रीड़ा करते हुए उस विद्याधरों के अधिपति को देखकर मैं समझता हूँ कि इंद्र भी आशंका को प्राप्त हो जाता है ।।118॥ जिसका भाई विभीषण लोक में अत्यधिक बलवान् है, युद्ध में बड़े-बड़े लोगों के द्वारा भी अजेय है और राजाओं में श्रेष्ठ है ॥119॥ बुद्धि द्वारा उसकी समानता करने वाला देव भी नहीं है फिर मनुष्य तो निश्चित ही नहीं है । जगत् प्रभु रावण को उसी एक भाई का संसर्ग प्राप्त होना पर्याप्त है ।।120॥ उसका गुणरूपी आभूषणों से सहित एक छोटा भाई भी है जो कुंभकर्ण इस नाम से प्रसिद्ध है तथा त्रिशूल नामक महाशस्त्र से सहित है ।꠰121।। युद्ध में यमराज की कुटी के समान जिसकी भयंकर कुटिल भ्रकुटी को देव भी देखने के लिए समर्थ नहीं हैं फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? ॥122।। युद्ध में ख्याति को प्राप्त होने वाला इंद्रजित्, उसी का पुत्र है ऐसा पुत्र कि जिसके हाथ में सारा संसार जान पड़ता है ।। 123 ।। इन सबको आदि लेकर रावण के ऐसे अनेक किंकर हैं जो नाना प्रकार की विद्याओं के आश्चर्य से सहित हैं तथा प्रताप से जिन्होंने शत्रुओं को नम्रीभूत बना दिया है ।।124॥ पूर्णचंद्र के समान आभा वाले जिसके छत्र को देखकर शत्रु युद्ध में अपना चिरसंचित अहंकार छोड़ देते हैं ॥125॥ सहसा दृष्टि में आया इसका पुतला, अथवा चित्र अथवा उच्चारण किया हुआ नाम भी शत्रुओं को भय उत्पन्न करने में समर्थ है ॥126।। इस प्रकार के इस रावण को युद्ध में जीतने के लिए कौन बलवान् समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं । इसलिए यह कथा ही छोड़िए, कोई दूसरा उपाय सोचिए ॥127॥
तदनंतर अनादर से उनमें प्रत्येक की ओर देखकर मेघ के समान गंभीर शब्द को धारण करनेवाले लक्ष्मण ने इस प्रकार बलपूर्ण वचन कहे कि यदि रावण सचमुच ही ऐसा प्रसिद्ध बलवान् है तो जिसका नाम भी श्रवण करने योग्य नहीं रहता ऐसा स्त्री का चोर क्यों होता? ॥128-129 ।। वह तो कपटी, भीरु, मोही, पापकर्मा नीच राक्षस है उसमें थोड़ी भी शूरवीरता कहाँ है ? ॥130 ।। राम ने भी कहा कि इस विषय में अधिक कहने से क्या ? जिस समाचार का मिलना भी दुष्कर था वह समाचार दैव की अनुकूलता से हमने प्राप्त कर लिया है ॥131॥ इसलिए अब दूसरी बात सोचने की आवश्यकता नहीं है, अब तो उस नीच राक्षस को क्षोभित किया जाये । कर्मरूपी वायु से प्रेरित हुआ उचित ही फल होगा ॥132 ।।
अथानंतर क्षण-भर ठहर कर वृद्ध लोगों ने आदर पूर्वक कहा कि पद्माभ ! शोक छोड़ो, हमारे स्वामी होओ, गुणों से अप्सराओं की समानता करने वाली विद्याधर कुमारियों के भर्ता होओ तथा सब दुःख छोड़कर आनंद से लोक में भ्रमण करो ॥133–134॥ राम ने उत्तर दिया कि मुझे अन्य स्त्रियों से प्रयोजन नहीं है भले ही वे स्त्रियाँ इंद्राणी की महालीला को जीतती हों ।। 135॥ हे विद्याधरो ! यदि आप लोगों की मुझ पर कुछ भी प्रीति अथवा दया है तो शीघ्र ही सीता को दिखाओ ॥136 ।। तदनंतर जांबूनद ने कहा कि हे प्रभो! इस मूर्ख हठ को छोड़ो जिस प्रकार कृत्रिम मयूर के विषय में क्षुद्रनामा मनुष्य दुःखी हुआ था उस तरह तुम दुःखी मत होओ ॥137 ।। मैं यह कथा कहता हूँ सो सुनो वेणातट नामक नगर में सर्व रुचि नाम का एक गृहस्थ रहता था । उसके गुणपूर्णा नामक स्त्री से उत्पन्न विनयदत्त नाम का पुत्र था ।। 138॥ विनयदत्त का एक विशालभूति नामक अत्यंत प्यारा मित्र था सो वह पापी, विनयदत्त को स्त्री गृहलक्ष्मी में आसक्त हो गया ।। 132 ।। एक दिन उसी स्त्री के कहने से विशालभूति विनयदत्त को भ्रमण करने के छल से वन में ले गया और उसे वृक्ष के ऊपर बाँध आया ॥140॥ दुष्ट अभिप्राय को धारण करनेवाला क्रूरकर्मा विशालभूति घर आकर कृतकृत्य की तरह आनंद से रहने लगा तथा पूछने पर विनयदत्त के विषय में कुछ इधर-उधर का उत्तर देकर चुप हो जाता ॥141 ।। इसी बीच में क्षुद्र नाम का एक मनुष्य दिशा भूलकर मार्ग से च्युत हो भ्रमण करता हुआ खेदखिन्न हो वहाँ से निकला और उसने उस वृक्ष को देखा ॥142 ।। वृक्ष की सघन छाया देखकर विश्राम करने की इच्छा से वह वृक्ष के नीचे गया । वहाँ उसने विनयदत्त के कराहने का मंद-मंद शब्द सुन ऊपर को मुख उठाकर देखा ॥143॥ तो उसे अत्यंत ऊँची शाखा के अग्रभाग पर मजबूत रस्सियों से बँधा हुआ निश्चेष्ट शरीर का धारक विनयदत्त दिखा ॥144।। जिसका चित्त दया में आसक्त था ऐसे क्षुद्र नामक पुरुष ने ऊपर चढ़कर उसे बंधन मुक्त किया । तदनंतर विनयदत्त नीचे उतर उस क्षुद्र को साथ ले अपने घर चला गया ॥145॥ विनयदत्त के लाने से उसके घर में महान् आनंद से युक्त उत्सव हुआ और विशालभूति उसे देख दूर भाग गया ॥146॥ क्षुद्र, विनयदत्त के घर रहने लगा उसके पास मयूरपत्र का बना हुआ एक मयूर का खिलौना था सो वह खिलौना एक दिन हवा में उड़ गया और राजा के पुत्र को मिल गया ॥147॥ उस कृत्रिम मयूर के निमित्त बहुत भारी शोक करता हुआ क्षुद्र, अपने मित्र से बोला कि हे मित्र! यदि मुझे जीवित चाहते हो तो मेरा वह कृत्रिम मयूर मुझे देओ ॥148॥ मैंने तुझे उस तरह वृक्ष पर बँधा हुआ छोड़ा था सो इस मुख्य उपकार का बदला मेरे लिए देओ ॥149 ।। तब विनयदत्त ने उससे कहा कि तुम उसके बदले दूसरा मयूर ले लो अथवा मणि या रत्न ले लो तुम्हारा वह मयूर कहाँ से दूँ ॥150 ।। इसके उत्तर में वह बार-बार यही कहता था कि नहीं, मेरे लिए तो वहीं मयूर देओ । सो क्षुद्र तो मूर्ख होकर उस प्रकार हठ करता था पर आप तो नरोत्तम होकर भी ऐसो हठ कर रहे हैं ॥151 ।। आप ही कहो कि राजपुत्र के हाथ में पहुँची कृत्रिम मयूरी कैसे प्राप्त हो सकती थी । राजपुत्र से तो केवल मांगने वालों को मृत्यु ही मिल सकती थी ॥152 ।। इसलिए हे रघुनंदन ! सीता की इच्छा छोड़ो और जिनके नेत्र सफेद, काले तथा लाल रंग के हैं, जिनकी कांति सुवर्ण के समान है, जिनके स्तनकलश अत्यंत स्थूल हैं, जिनके जघन की शोभा विशाल है, जिन्होंने मुख को कांति से चंद्रमा को जीत लिया है तथा जो अनेक सुंदर गुणों से युक्त हैं ऐसी कन्याओं के पति होकर महाभोग भोगो, प्रसन्न होओ ॥153-154 ।। इस हास्यजनक दुःखवर्धक हठ को छोड़ो और हे विद्वन् ! क्षुद्र के समान मयूररूपी तृण के शोक से पीड़ित नहीं होओ ॥155।। मयूररूपी तृण के समान स्त्रियां पुरुष को सदा सुलभ हैं इसलिए हे राघव ! मैं आप से कह रहा हूँ । बुद्धिमान मनुष्य कभी शोक धारण नहीं करते ॥156꠰।
तदनंतर वचनों के मार्ग में अतिशय निपुण लक्ष्मण ने कहा कि हे जांबूनद ! यह बात ऐसी नहीं है किंतु ऐसी है सो सुनो ॥157।। कुसुमपुर नामक नगर में एक प्रभव नाम का प्रसिद्ध गृहस्थ रहता था । उसकी स्त्री का नाम यमुना था ॥158।। उन दोनों के धनपाल, बंधुपाल, गृहपाल, क्षेत्रपाल और पशुपाल नाम के पांच पुत्र थे ॥159॥ ये सभी पुत्र सार्थक नाम वाले थे और कुटुंब के पालन के लिए सदा तत्पर रहते थे तथा क्षणभर के लिए भी अपने कार्य से विश्राम नहीं लेते थे ॥160॥ इनमें सबसे छोटा आत्मश्रेय नाम कुमार था सो वह पुण्योदय से देवकुमार के समान भोग भोगता था ॥16॥
कुछ करता नहीं था इसलिए भाई तथा माता-पिता निरंतर कटुक अक्षरों द्वारा उसका तिरस्कार करते रहते थे । एक दिन वह मानी घर से निकलकर नगर के बाहर चला गया ॥162 ।। अत्यंत सुकुमार शरीर का धारक था इसलिए कुछ कर सकने के लिए समर्थ नहीं था अतः परम निर्वेद को प्राप्त हो आत्मघात करने की इच्छा करने लगा ॥163 ।। उसी समय पूर्व कर्मोदय से प्रेरित हुआ एक पथिक उसके पास आकर बोला कि हे मनुष्य ! सुन ॥164 ।। मैं पृथुस्थान नगर के राजा का पुत्र सुभानु हूँ । निमित्तज्ञानी के आदेश का पालन करता हुआ मैं अब तक अनेक देशो में भ्रमण करता रहा हूँ ।।165 ।।
इस पृथ्वी पर भ्रमण करता हुआ मैं दैवयोग से कूर्मपुर नामा नगर में पहुंचा । वहाँ एक उत्तम आचार्य के साथ समागम को प्राप्त हुआ ॥166 ।। मैं मार्ग के दुःख से दुःखी था इसलिए दयालु चित्त के धारक उन आचार्य ने मुझे यह लोहे का कड़ा दिया था ॥167॥ यह कड़ा समस्त रोगों को शांत करने वाला तथा बुद्धि को बढ़ानेवाला है और ग्रह, उरग, पिशाच आदि का उत्तम वशीकरण है ॥168॥ निमित्तज्ञानी ने मुझे भ्रमण करने के लिए जो समय बताया था अब उसकी अवधि आ गयी है इसलिए मैं अपना राज्य करने के लिए अपने नगर को जाता हूँ ॥169।। राज्यकार्य में स्थिर रहने वाले पुरुष के अगणित प्रमाद होते रहते हैं और किसी प्रमाद को पाकर यह कड़ा निश्चित हो नाश का कारण बन सकता है ॥170।। इसलिए यदि तू उपसर्गरहित जीवन चाहता है तो इस उत्तम कड़े को ले ले मैं तुझे देता हूँ ॥171 ।। अपने लिए प्राप्त हुई वस्तु का दूसरे के लिए दे देना महाफल कारक है, उससे यश प्राप्त होता है और लोग उसकी पूजा करते हैं ॥172॥ तदनंतर उससे ऐसा ही हो इस प्रकार कहकर तथा लोहे का कड़ा लेकर आत्मश्रेय अपने घर चला गया और सुभानु भी अपने नगर चला गया ॥173 ।। इतने में ही राजा की पत्नी को सांप ने डंस लिया था जिससे वह निश्चेष्ट हो गयी थी तथा जलाने के लिए श्मशान में लायी गयी थी । आत्मश्रेय ने उसे देखा ॥174 । और देखते ही उस लोह निर्मित कड़े के प्रसाद से उसे जिलाकर उसने राजा से बहुत सन्मान प्राप्त किया ॥175 ।। अब पुण्य कर्म के प्रभाव से उसके लिए समस्त बंधुओं के साथ-साथ परम सुख देने वाले बड़े-बड़े भोग प्राप्त हो गये ॥176 ।। एक बार उसने उस कड़े को उत्तरीय वस्त्र के ऊपर रखकर जब तक सरोवर में प्रवेश किया तब तक एक उद्दंड गुहेरा उसे लेकर चला गया ।। 177॥ वह गुहेरा एक महावृक्ष के नीचे बने हुए अपने बड़े बिल में घुस गया । उसका वह बिल शिलाओं के समूह से आच्छादित, प्रवेश करने के अयोग्य तथा भयंकर शब्द से युक्त था ॥178॥ वह गुहेरा उस बिल में बैठकर निरंतर शब्द करता रहता था जिससे उस बिल को देख मन में प्रलय की आशंका होती थी ॥179॥ तदनंतर आत्मश्रेय ने शिलाओं से सघन उस वृक्ष के मूल को उखाड़कर तथा गुहेरे को मारकर कड़े के साथ-साथ उसका सब खजाना ले लिया ॥180 ।। सो राम तो आत्मश्रेय के समान हैं, सीता कड़े के समान है लाभ की इच्छा प्रमाद के समान है, शत्रु का शब्द गुहेरे के शब्द के समान है, लंका महानिधान के समान है, रावण गुहेरे के समान है, इसलिए हे विद्याधरो! तुम सब इस समय निर्भय होओ ॥181-182॥
इस प्रकार जांबूनद के कथन को खंडित करने वाला लक्ष्मण का उपाख्यान सुन बहुत लोग आश्चर्य को प्राप्त हो मंद हास्य करने लगे ॥183॥ तत्पश्चात् जांबूनद आदि सभी विद्याधर परस्पर में विचार कर राम से यह कहने लगे कि हे राजन् ! एकाग्रचित्त होकर सुनिए ॥184॥ पहले बार रावण ने हर्ष पूर्वक अनंतवीर्य नामा योगींद्र को नमस्कार कर उनसे अपनी मृत्यु का कारण पूछा था सो उन योगींद्र ने कहा था कि जो देवों के द्वारा पूजित, अनुपम, पुण्यमयी निर्वाण शिला कोटिशिला को उठावेगा वही तेरी मृत्यु का कारण होगा ।।185-186॥ सर्वज्ञ के यह वचन सुन रावण ने विचार किया कि ऐसा कौन पुरुष होगा जो उसे चलाने के लिए समर्थ होगा ॥187।। भगवान् के कहने का तात्पर्य यह है कि मेरे मरण का कोई भी कारण नहीं है सो ठीक ही है क्योंकि अर्थ के प्रकट करने में विद्वानों की वचन योजना विचित्र होती है ॥188॥
तदनंतर लक्ष्मण ने कहा कि हम लोग अभी चलते हैं विलंब करना हितकारी नहीं है, अन्य जीवों को आनंद देने वाली सिद्धशिला के अभी दर्शन करेंगे ॥189॥ तत्पश्चात् सब लोग परस्पर में मंत्रणा कर तथा सब ओर से निश्चय कर प्रमाद छोड़ लक्ष्मण के साथ जाने के लिए उद्यत हुए ॥190 ।। महा बुद्धिमान् जांबूनद, किष्किंधा का स्वामी-सुग्रीव, विराधित, अर्कमाली, अतिशय विद्वान् नल और नील, सम्मान के साथ राम और लक्ष्मण को विमान पर बैठाकर रात्रि के सघन अंधकार में शीघ्र ही आकाशमार्ग से चले ॥191-192॥ और जहाँ वह अत्यंत मनोहर परम गंभीर एवं सुर-असुरों के द्वारा नमस्कृत सिद्धशिला पास में थी वहाँ उतरे ॥193 ।। तदनंतर सावधान चित्त होकर आगे गये हुए दिशा रक्षकों को नियुक्त कर वे सब हाथ जोड़ मस्तक से लगा उस सिद्धशिला के समीप गये ॥194 ।। वहाँ जाकर उन्होंने अत्यंत सुगंधित तथा पूर्ण चंद्रमा के बिंब के समान सुशोभित बड़े-बड़े कमलों तथा नाना प्रकार के अन्य पुष्पों से उस शिला की पूजा की ॥195॥
जिसके ऊपर सफेद चंदन का लेप लगाया गया था, जो केशर रूप वस्त्र को धारण कर रही थी, तथा जो नाना अलंकारों से अलंकृत थी ऐसा वह शिला उस समय इंद्राणी के समान मनोहर जान पड़ती थी ।।196।। उस शिला से जो सिद्ध हुए थे उन्हें नमस्कार कर जिन्होंने हाथ जोड़ मस्तक से लगाये थे तथा जो सब प्रकार की विधि-विधान में निपुण थे ऐसे उन सब लोगों ने भक्तिपूर्वक क्रम से उस शिला की प्रदक्षिणा दी ॥197।।
तदनंतर विनय को धारण करनेवाले, नमस्कार करने में तत्पर एवं भक्ति से भरे लक्ष्मण कमर कस कर स्तुति करने के लिए उद्यत हुए ॥198 ।। हर्ष से भरे वानरध्वज राजा, जय-जय शब्द का उच्चारण कर सिद्ध भगवान के निम्नांकित स्तोत्र को पढ़ने लगे ॥199 ।। स्तोत्र पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि हम उन सिद्ध परमेष्ठियों को नमस्कार करते हैं कि जो अतिशय देदीप्यमान तीन लोक के शिखर पर स्वयं विराजमान हैं, आत्मा की स्वरूपभूत स्थिति से युक्त हैं तथा पुनर्जन्म से रहित हैं ॥200।। जो संसार सागर से पार हो चुके हैं, परमकल्याण से युक्त हैं, मोक्ष सुख के आधार हैं तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन से सहित हें ॥201 ।। जो अनंत बल से युक्त हैं, आत्मस्वभाव में स्थित हैं, श्रेष्ठता से युक्त हैं, और जिनके समस्त कर्म क्षीण हो चुके हैं ॥202॥ जो अवगाहन गुण से युक्त हैं, अमूर्तिक हैं, सूक्ष्मत्व गुण से सहित हैं, गुरुता और लघुता से रहित तथा असंख्यात प्रदेशो हैं ।। 203 ।। जो अपरिमित-अनंतगुणों के आधार हैं, क्रम आदि से रहित हैं, आत्मस्वरूप की अपेक्षा सब समान हैं और जो आत्म प्रयोजन को अंतिम सीमा को प्राप्त हैं-कृतकृत्य हैं ।। 204॥ जिनके भाव सर्वथा शुद्ध हैं, जिन्होंने जानने योग्य समस्त पदार्थों को जान लिया है, जो निरंजन कर्म कालिमा से रहित हैं और निर्मल ध्यान शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा जिन्होंने कर्मरूपी महाअटवी को भस्म कर दिया है ।। 205 ।। संसार से भयभीत तथा तेजरूपी पट से परिवृत इंद्र तथा चक्रवर्ती आदि महापुरुष जिनकी स्तुति करते हैं ॥206॥ जो संसाररूप धर्म से रहित हैं, सिद्धरूप धर्म को प्राप्त हैं तथा जो सब प्रकार की सिद्धियों को धारण करनेवाले हैं ऐसे समस्त सिद्ध परमेष्ठियों को हम नमस्कार करते हैं ।। 207।। शील को धारण करने वाले जो भी पुरुष इस शिला से सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, पुराणों में जिनका कथन है, जो सर्व कर्मों से रहित हैं, जिनेंद्र देव की समानता को प्राप्त हुए हैं, कृतकृत्य हैं तथा जो महाप्रताप के धारक हैं उन सबको हम भक्तिपूर्वक मंगल स्मरण करते हुए बार-बार वंदना करते हैं ॥208-209 ।। इस प्रकार चिरकाल तक स्तुति कर एकाग्रचित्त के धारण उन विद्याधरों ने लक्ष्मण को लक्ष्य कर कहा कि इस शिला से जो सिद्ध हुए हैं तथा अन्य जिन पुरुषों ने पाप कर्म नष्ट किये हैं वे सब विघ्न विनाशक तुम्हारे लिए मंगलस्वरूप हों ॥210-211॥ अरहंत भगवान् तुम्हारे लिए मंगलस्वरूप हों, सिद्ध परमेष्ठी मंगलरूप हों । सर्व साधु परमेष्ठी मंगलस्वरूप हों और जिनशासन मंगलरूप हो ॥212।। इस प्रकार विद्याधरों की मंगल ध्वनि के साथ, महातेज को धारण करने वाले लक्ष्मण ने शीघ्र ही उस शिला को हिलादिया॥213।। तदनंतर लक्ष्मण कुमार ने कुलवधू के समान नाना अलंकारों से सुशोभित उस शिला को बाजूबंदों से सुशोभित अपनी भुजाओं से ऊपर उठा लिया ॥214॥ उसी समय आकाश में देवों का महाशब्द हुआ और सुग्रीव आदि राजा परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥215 ।।
तदनंतर हर्ष से भरे सब लोग भय से रहित सिद्धपरमेष्ठियों, सम्मेदशिखर पर विराजमान श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेंद्र की तथा ऋषभ आदि तीर्थंकरों के निर्वाण स्थान कैलास आदि को विधिपूर्वक पूजा कर समस्त भरत क्षेत्र में घूमे ॥216-217॥ तदनंतर वंदना करने के बाद सौम्य शरीर के धारक तथा महावैभव से संपन्न सब लोगों से सायंकाल के समय मन के समान वेगशाली दिव्य विमानों द्वारा जयनंद आदि शब्दों के साथ महापराक्रमी राम-लक्ष्मण को घेरकर किष्किंधनगर में प्रवेश किया ॥218-219।। सबने यथास्थान शयन किया । तदनंतर आश्चर्यचकित चित्त से एकत्रित हो सब बड़ी प्रसन्नता से परस्पर इस प्रकार कहने लगे ॥220॥ कि तुम लोग परम शक्ति को धारण करने वाले इन दोनों का कुछ ही दिनों में पृथिवी पर समस्त कंटकों अर्थात् शत्रुओं से रहित राज्य देखोगे ॥221॥ जिसने उस निर्वाण शिला को चलाकर उठा लिया ऐसा यह लक्ष्मण शीघ्र ही रावण को मारेगा इसमें संशय नहीं है ॥222॥ कुछ लोग इस प्रकार कहने लगे कि उस समय जिसने कैलास उठाया था ऐसा रावण क्या इस शिला उठाने वाले के समान है ? ॥223।।
कुछ अन्य लोग कहने लगे कि यदि रावण ने कैलास पर्वत उठाया था तो इससे क्या हुआ क्योंकि विद्याबल के रहते हुए उसके इस कार्य में किसे आश्चर्य हो सकता है ? ॥224॥ कुछ लोग यह भी कहने लगे कि इन व्यर्थ के विवादों से क्या लाभ है ? जगत्का कल्याण करने के लिए संधि का उपाय क्यों नहीं बताया जाता है ? ॥225॥ इसलिए रावण की पूजा कर सीता को लाया जावे उसे हम राम के लिये सौंप देंगे फिर युद्ध का क्या प्रयोजन है ? ॥226॥ संग्राम में तारक, महा बलवान् मेरुक और बड़ी-बड़ी सेनाओं से सहित कृतवीर्य के पुत्र आदि मारे गये हैं ॥227 ।। ये सभी तीन खंड के स्वामी महाभागवान् तथा महाप्रतापी थे । इनके सिवाय और भी अनेक राजा रण में सब ओर नष्ट हुए हैं ॥228 ।। इस प्रकार विद्याओं के प्रयोग करने में निपुण सब लोग परस्पर सलाह कर विनय सहित आदरपूर्वक मिलकर राम के पास आये ।। 229 ।। नेत्रों को आनंद उत्पन्न करनेवाले राम के चारों ओर बैठे हुए सुग्रीव आदि राजा उस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि अमरेंद्र के चारों ओर देव सुशोभित होते हैं ॥230॥ तदनंतर राम ने कहा कि अब और किसकी अपेक्षा की जा रही है ? दूसरे द्वीप में सीता मेरे बिना दुःखी होती होगी ॥231॥ शीघ्र ही दीर्घ सूत्रता को छोड़कर आज ही आप लोग त्रिकूटाचल पर चलने के लिए उद्यम क्यों नहीं करते हैं ?॥232॥ तब नीति के विस्तार में निपुण वृद्ध मंत्रियों ने कहा कि हे देव ! इस विषय में संशय को क्या बात है ? निश्चय बताइए कि ॥233 ।। आप सीता को चाहते हैं या राक्षसों के साथ युद्ध? यदि युद्ध चाहते हैं तो विजय कठिनाई से प्राप्त होगी क्योंकि राक्षसों का और आपका यह युद्ध सदृश युद्ध-बराबरी वालों का युद्ध नहीं है ।। 234 ।। क्योंकि रावण द्वीप और सागरों में प्रसिद्ध, तीन खंड भरत का शत्रुरहित एक-अद्वितीय ही प्रभु है ।। 235 ।। धातकीखंड नामा दूसरा द्वीप भी उससे शंकित रहता है, वह ज्योतिषी देवों को भी भय उत्पन्न करनेवाला है तथा जंबूद्वीप में परम महिमा को प्राप्त अद्वितीय विद्याधरों का स्वामी है ॥236 ।। जो समस्त संसार के लिए शल्य स्वरूप है, तथा जिसने अनेक अद्भुत कार्य किये हैं ऐसा राक्षस हे राम ! तुम्हारे द्वारा कैसे जीता जा सकता है ? ॥237 ।। इसलिए हे देव ! रण की भावना छोड़ हम लोग जो कह रहे हैं वही कीजिए, प्रसन्न होइए और शांति के लिए उद्योग कीजिए ॥238॥ उसके कुपित होनेपर यह संसार महाभय से युक्त न हो, प्राणियों के समूह का विध्वंस न हो तथा समस्त उत्तम क्रियाएँ नष्ट न हों ॥239॥ रावण का भाई विभीषण अत्यंत प्रसिद्ध है, मानो स्वयं ब्रह्मा ही है । वह दुष्टता पूर्ण कार्यों से सदा दूर रहता है और अणुव्रतों का दृढ़ता से पालन करता है ॥240॥ उसके वचन अलंघ्य हैं वह जो कहता है रावण वही करता है । यथार्थ में उन दोनों में निर्वाध परम प्रेम है ।।241॥ विभीषण उसे समझावेगा इसलिए, अथवा उदारता से, अथवा कीर्ति रक्षा के अभिप्राय से अथवा लज्जा के कारण रावण सीता को भेज देगा ॥242॥ इसलिए शीघ्र ही किसी ऐसे पुरुष को खोज की जाये जो निवेदन करने वाले वचनों की योजना में कुशल हो, नीतिनिपुण हो और रावण को प्रसन्न करने वाला हो ॥243।।
तदनंतर महोदधि नाम से प्रसिद्ध विद्याधरों के राजा ने कहा कि क्या यह वृत्तांत आप लोगों के श्रवण में नहीं आया ॥244॥ कि लंका अनेक जनों का विघात करने वाले यंत्रों से निरंतर अगम्य कर दी गयी है, उसका देखना भी कठिन है तथा अत्यंत भयंकर गंभीर गर्तों से युक्त हो गयी है ॥245।। इन सबके बीच में महाविद्याओं के धारक एक भी ऐसे विद्याधर को नहीं देखता हूँ कि जो लंका जाकर शीघ्र ही पुनः लौटने के लिए समर्थ हो ॥246॥ हाँ, पवनंजय राजा का पुत्र श्रीशैल विद्या, सत्त्व और प्रताप से सहित है तथा अतिशय बलवान् है सो उससे याचना की जाये ॥247।। इसका दशानन के साथ उत्तम संबंध भी है इसलिए यदि इसे भेजा जाये तो यह श्रेष्ठ पुरुष निर्विघ्नरूप से शांति स्थापित कर सकता है ।।248।। तदनंतर सब विद्याधरों ने एवमस्तु कहकर महोदधि विद्याधर का प्रस्ताव स्वीकृत कर श्रीशैल (हनुमान्) के पास शीघ्र ही श्रीभूति नाम का दूत भेजा ॥249।। गौतम स्वामी कहते हैं कि परम शक्ति के धारक राजा को भी प्रारंभ करने योग्य कार्य के विषय में परमविवेक को प्राप्त कर नीतिज्ञ होना चाहिए क्योंकि ऐसा राजा ही सूर्य के समान समय आने पर अभ्युदय को प्राप्त होता है ।। 250 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में कोटिशिला उठाने का वर्णन करने वाला अड़तालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥48॥