ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 52
From जैनकोष
बावनवां पर्व
अथानंतर प्रताप से सहित महाबलवान् हनुमान् त्रिकूटाचल के सम्मुख इस प्रकार चला जिस प्रकार कि सुमेरु के सन्मुख सोम चलता है ।। 1 ।। तदनंतर आकाश में चलते हुए हनुमान को रोना अचानक रुककर किसी बड़े धनुष के समान हो गयी और ऐसो जान पड़ने लगी मानो कुटिल मेघों का समूह ही हो ।। 2 ।। यह देख, हनुमान ने कहा कि मेरी सेना की गति किसने रो की है ? अहो ! शीघ्र ही मालूम करो कि यह किसकी चेष्टा है ? ॥3 ।। क्या यहाँ असुरों का इंद्र चमर है, अथवा इंद्र है या शिखंडी है ? अथवा इनमें से यहाँ एक का भी होना उचित नहीं जान पड़ता ।।4।। किंतु हो सकता है कि इस पर्वत के शिखर पर जिनेंद्र भगवान की प्रतिमा हो, अथवा कोई ऐश्वर्यवान् चरम शरीरी मुनिराज विराजमान हों ।। 5 ।। तदनंतर हनुमान् के वितर्क पूर्ण वचन सुनकर पृथुमति मंत्री ने यह वचन कहे कि हे महाबुद्धिमान् श्रीशैल ! तुम शीघ्र ही लौट जाओ, तुम्हें इससे क्या प्रयोजन है ? यह आगे क्रूर यंत्रों से युक्त मायामयी कोट जान पड़ता है ॥6-7॥ तत्पश्चात् कमल लोचन हनुमान् ने स्वयं दृष्टि डालकर उक्त मायामयी महाकोट को देखा । वह कोट विरक्त स्त्री के मन के समान दुष्प्रवेश था ।। 8 । अनेक आकार के मुखों से सहित था, भयंकर पुतलियों से युक्त था, सबको भक्षण करनेवाला था, देदीप्यमान था और देवों के द्वारा भी दुर्गम्य था ।꠰9।। जिनके अग्रभाग संकट से उत्कट तथा अत्यंत तीक्ष्ण थे ऐसी करोंतों की श्रेणी से वह कोट वेष्टित था, तथा उसके तट रुधिर को उगलने वाली हजारों जिह्वाओं के अग्रभाग से सुशोभित थे । ॥10॥ चंचल सो के तने हुए फणाओं की शूत्कार से शब्दायमान था तथा जिनसे विषैला धूमरूपी अंधकार उठ रहा था ऐसे जलते हुए अंगारों से दुःसह था ॥11॥ शूरवीरता के अहंकार से उद्धत जो मनुष्य उस कोट के पास जाता है वह फिर उस तरह लौटकर नही आता जिस प्रकार कि साँप के मुख से मेढक ॥12॥ यह लंका के कोट का घेरा सूर्य के मार्ग तक ऊँचा है, दुर्लध्य है, दुनिरीक्ष्य है, सब दिशाओं में फैला है, प्रलयकालीन मेघसमूह की गर्जना के समान तीक्ष्ण गर्जना से भयंकर है, तथा हिंसामय शास्त्र के समान अत्यंत पापकर्मा जनों के द्वारा निर्मित है ।। 13-14॥ उसे देखकर हनुमान् ने विचार किया कि अहो ! मायामयी कोट का निर्माण करने वाले रावण ने अपनी पहले की सरलता छोड़ दी है ।। 15 ।। मैं विद्याबल से बलिष्ठ इस यंत्र को उखाड़ता हुआ इसके मान को उस तरह उखाड़ दूंगा, जिस तरह कि ध्यानी मनुष्य मोह को उखाड़ देता है ॥16॥
तदनंतर बुद्धिमान् हनुमान् ने युद्ध में मन लगाकर अर्थात् युद्ध का विचार कर अपनी गरजती हुई समुद्राकार सेना को तो संकेत देकर आकाश में खड़ा कर दिया और अपने स्वयं विद्यामय कवच धारण कर तथा गदा हाथ में ले पुतली के मुख में उस तरह घुस गया जिस तरह कि राहु के मुख में सूर्य प्रवेश करता है ॥17-18॥ तत्पश्चात् चारों ओर से हड्डियों से आवृत उस पुतली की उदररूपी गुहा को उसने सिंह की भांति विद्यामयी तीक्ष्ण नखों से अच्छी तरह चीर डाला ॥19॥ और भयंकर शब्द करने वाले गदा के निर्दय प्रहारों से उसे उस प्रकार चूर-चूर कर डाला जिस प्रकार कि ध्यानी मनुष्य अपने अतिशय निर्मल भावों से घातिया कर्मों की स्थिति को चूर-चूर कर डालता है ।। 20 ।। तदनंतर भंग को प्राप्त होती हुई आशालिक विद्या का नील मेघों के समान भयंकर चट-चट शब्द हुआ ।। 21 ।। उस शब्द से यह अतिशय चंचल मायामय कोट इस प्रकार नष्ट हो गया जिस प्रकार कि जिनेंद्र भगवान की स्तुति से पापकर्मों का समूह नष्ट हो जाता है ॥22॥
तदनंतर प्रलयकाल के मेघों के समान उन्नत उस शब्द को सुनकर तथा यंत्रमय कोट को नष्ट होता देख, कोट की रक्षा का अधिकारी वज्रमुख नाम का राजा कुपित हो शीघ्र ही रथ पर आरूढ़ हो हनुमान् के सन्मुख उस प्रकार आया जिस प्रकार कि सिंह दावानल के सम्मुख जाता है ॥23-24।। तदनंतर हनुमान् को उसके सन्मुख देख, नाना प्रकार के वाहनों और शस्त्रों से सहित प्रचंड योद्धा युद्ध करने के लिए उद्यत हुए ॥25॥ इधर वज्रमुख की प्रबल सेना को युद्ध के लिए उद्यत देख परम क्षोभ को प्राप्त हुई हनुमान् की सेना भी युद्ध के लिए उठी ।। 26 ।। आचार्य कहते हैं कि इस विषय में बहुत कहने से क्या ? उन दोनों सेनाओं में उस तरह युद्ध हुआ जिस तरह कि पहले स्वामी के द्वारा किये हुए सम्मान और तिरस्कार में होता है ॥27॥ जो योद्धा स्वामी की दृष्टि के मार्ग में स्थित थे अर्थात् स्वामी जिनकी ओर दृष्टि उठाकर देखता था वे योद्धा गर्जना करते हुए प्राणों का भी स्नेह छोड़ देते थे इस विषय में अधिक क्या कहा जाये? ॥28॥ तदनंतर जिन्होंने चिरकाल तक बड़े-बड़े युद्ध किये थे ऐसे वज्रायुद्ध के योद्धा वानरों के द्वारा क्षणभर में पराजित होकर इधर-उधर नष्ट हो गये― भाग गये ।। 29 ।। और हनुमान् ने चक्र के द्वारा शत्रुओं का तेज हर लिया तथा नक्षत्र बिंब के समान शत्रु का शिर काटकर आकाश से नीचे गिरा दिया ।।30।। युद्ध में पिता का वध देख वज्रायुध को पुत्री लंका सुंदरी कठिनाई से शोक को रोककर क्रोधरूपी विष से दूषित हो हनुमान् की ओर दौड़ी । उस समय वह वेगशाली घोड़ों के रथ पर बैठी थी, कुंडलों के प्रकाश से उसका मुख प्रकाशित हो रहा था, धनुष के समान उसका वक्षःस्थल आयत था, उसकी दोनों भृकुटियां टेढ़ी हो रही थीं, वह ऐसी जान पड़ती थी मानो उल्का ही प्रकट हुई हो, वह सूर्य के समान तेज का मंडल धारण कर रही थी, धूम के उद्गार से सहित थी, अर्थात् उसके शरीर से कुछ-कुछ धुआं-सा निकलता दिखता था और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो मेघसमूह के बीच में विद्यमान थी, क्रोध के कारण उसके नेत्र फूले हुए लाल कमलों के समान जान पड़ते थे, वह क्रोध से अपना ओंठ चाब रही थी, तथा ऐसी जान पड़ती थी मानो क्रोध से भरी इंद्र की लक्ष्मी ही हो ॥31-34।। वह देखने में सुंदर थी तथा अपनी प्रशंसा कर रही थी, इस तरह धनुष पर बाण चढ़ाकर वह दौड़ी और बोली कि अरे श्रीशैल ! मैंने तुझे देख लिया है, यदि तुझमें कुछ शक्ति है तो खड़ा रह ॥35 ।। आज कुपित हुआ विद्याधरों का राजा रावण तेरा जो कुछ करेगा रे नीच ! वही मैं तेरा करती हूँ ॥36 ।। यह मैं तुझ पापी को यमराज के घर भेजती हूँ, तू दिग्भ्रांत को तरह आज इस अनिष्ट स्थान में आ पड़ा है ॥37॥ वेग से आती हुई लंका सुंदरी का छत्र जब तक हनुमान् ने नीचे गिराया तब तक उसने एक बाण छोड़कर हनुमान के धनुष के दो टुकड़े कर दिये ॥38॥ लंकासुंदरी जब तक शक्ति नामक शस्त्र उठाती है तब तक हनुमान् ने बाणों से आकाश को आच्छादित कर दिया और आती हुई उसकी शक्ति को बीच में ही तोड़ डाला ॥39॥ विद्याबल से गंभीर लंका सुंदरी ने हनुमान् के हिमालय के समान ऊंचे रथ पर वज्रदंड के समान बाण, परशु, कुंत, चक्र, शतघ्नी, मुसल तथा शिलाएँ उस प्रकार बरसायीं जिस प्रकार कि उत्पात के समय उच्च मेघावली नाना प्रकार के जल बरसाती है ।। 40-41 ।। उसके पूर्ण वेग से छोड़े हुए नाना प्रकार के शस्त्रसमूह से महातेजस्वी हनुमान् उस तरह आच्छादित हो गया जिस प्रकार कि मेघों से आषाढ़ का सूर्य आच्छादित हो जाता है ॥42॥ इतना सब होनेपर भी खेद से रहित, पराक्रमी एवं माया के विस्तार में निपुण हनुमान् ने अपने शस्त्रों के द्वारा उसके शस्त्रसमूह को बीच में ही दूर कर दिया ॥43 ।। उसके बाण बाणों से लुप्त हो गये, तोमर आदि तोमर आदि के द्वारा, तथा शक्तियाँ शक्तियों के द्वारा खंडित होकर उल्काओं के समान दूर जा गिरी ॥44॥ चक्र, क्रकच, संवर्तक तथा कनक आदि के विस्तार से पीतवर्ण आकाश ऐसा भयंकर हो गया मानो बिजलियों से ही व्याप्त हो गया हो ॥45॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! तदनंतर रूप से अनुपम, स्वभाव से धीर, कमललोचना, लक्ष्मी के समान लंकासुंदरी, नेत्ररूपी धनुष से छोड़े हुए काम के बाणों अर्थात् कटाक्षों से हनुमान् को उधर पृथक् भेद रही थी और इधर अन्य धनुष से छोड़े तथा कान तक खींचे हुए बाणों से पृथक् भेद रही थी । लंकासुंदरी के वे कामबाण, ज्ञान-ध्यान के हरने वाले थे, मनोहर थे, दुर्धर थे, गुणों से युक्त थे, लावण्य के द्वारा सौंदर्य को हरने वाले थे, और मन के भीतर भेदने में निपुण थे॥46-48।। इस तरह जगत् को आश्चर्य करने में समर्थ तथा सौभाग्यरूपी गण से गवित लंकासुंदरी हनुमान् के हृदय के भीतर प्रविष्ट हो गयी ।। 49।। वह हनुमान्, बाण, शक्ति तथा शतघ्नी आदि शस्त्रों से उस प्रकार पीड़ित नहीं हुआ था जिस प्रकार कि मर्म को विदारण करनेवाले काम के बाणों से पीड़ित हुआ था ।। 50॥ हनुमान् विचार करने लगा कि यह मनोहराकार की धारक, अपनी ललित चेष्टारूपी बाणों से मुझे भीतर और बाहर दोनों हो स्थानों पर घायल कर रही है ।। 51 ।। इस युद्ध में बाणों से भरकर मर जाना अच्छा है किंतु इसके बिना स्वर्ग में भी जीवन बिताना अच्छा नहीं है ॥52 ।। इधर इस प्रकार हनुमान विचार कर रहा था उधर जिसका मन दया में आसक्त था तथा जो त्रिकुटाचल की अद्वितीय सुंदरी थी ऐसी कन्या लंकासुंदरी ने काम से प्रेरित हो, देदीप्यमान मन तथा शरीर के धारक, कमलदललोचन, तरुण चंद्रवदन, मुकुट पर वानर का चिह्न धारण करनेवाले, नवयौवन से युक्त एवं मूर्तिधारी कामदेव के समान सुंदर हनुमान् को मारने के लिए उठायी हुई शक्ति शीघ्र ही संहत कर ली-पीछे हटा ली ॥53-55॥ वह विचार करने लगी कि यद्यपि यह पिता के मारने से दोषी है तो भी जो अनुपम रूप से मेरे मर्मस्थान विदार रहा है ऐसे इसे किस प्रकार मारूँ ? ॥56॥ यदि इसके साथ मिलकर कामभोगरूपी अभ्युदय का सेवन न करूं तो इस लोक में मेरा जन्म लेना निष्फल है ॥57॥ तदनंतर विह्वल मन से मुग्ध उस लंकासुंदरी ने समीचीन मार्ग के उद्देश्य से अपने नाम से अंकित एक बाण हनुमान् के पास भेजा ॥58।। उस बाण में उसने यह भी लिखा था कि हे नाथ ! जो मैं इकट्ठे हुए देवों के द्वारा भी नहीं जीती जा सकती थी वह मैं, आपके द्वारा काम के बाणों से पराजित हो गयी ।। 59॥ गोद में आये हुए उस बाण को अच्छी तरह बांच कर परम धैर्य को प्राप्त हुआ हनुमान् शीघ्र ही रथ से उतरा ॥60॥ और उसके पास जाकर सिंह के समान पराक्रमी हनुमान उसे गोद में बिठा उसका ऐसा गाढ़ आलिंगन किया मानो कामदेव ने दूसरी रति का ही आलिंगन किया हो ॥61॥
तदनंतर जिसका वैर शांत हो गया था, जिसके नेत्रों से दुर्दिन की भांति अविरल अश्रुओं की वर्षा हो रही थी तथा जो पिता के मरण-संबंधी शोक से पीड़ित थी ऐसी उस लंकासुंदरी से हनुमान ने कहा ॥62॥ कि हे सौम्यमुखि ! रोओ मत । हे भामिनि ! शोक करना व्यर्थ है । सनातन क्षत्रिय धर्म की तो यही रीति है ॥63 ।। यह तो तुम्हें विदित ही है कि राजकार्य में स्थित मनुष्य, कर्मबल से प्रेरित हो पिता आदि को भी मार डालते हैं ॥64॥ व्यर्थ ही क्यों रोती हो ? इस आर्तध्यान को छोड़ो । हे प्रिये ! इस समस्त संसार में अपना किया हुआ ही सब भोगते हैं अर्थात् जो जैसा करता है वैसा भोगता है ॥65 ।। यह शत्रु इसके द्वारा मारा गया यह कहना तो छलमात्र है । यथार्थ में तो आयु कर्म के प्रभाव से समय पाकर यह जीव मरता है ॥66॥ इस प्रकार इन तथा अन्य वचनों से जिसका शोक छूट गया था ऐसी लंकासुंदरी हनुमान् के साथ इस प्रकार सुशोभित हो रही थी जिस प्रकार कि मेघरहित रात्रि चंद्रमा के साथ सुशोभित होती है ॥67॥ तदनंतर उत्तम हृदय के धारक उन दोनों का संग्राम से उत्पन्न हुआ श्रम, प्रेमरूपी निर्झर से परिपूर्ण आलिंगन के द्वारा दूर भाग गया ॥68।।
तदनंतर स्तंभिनी विद्या के द्वारा आकाश के जिस प्रदेश में विद्याधर रोक दिये गये थे उस प्रदेश में आवास बनाकर वह सेना ठहरायी गयी ॥69।। संध्या के रक्त मेघ के समान दिखने वाला उसी हनुमान् का वह शिविर देव नगर के तुल्य अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥70।। उस सेना में जो बड़े-बड़े राजा थे उन्होंने हनुमान से पूछकर हाथियों, घोड़ों, विमानों तथा रथों पर सवार हो ध्वजाओं के समूह से युक्त उस नगर में प्रवेश किया ॥71॥ वे शूर-वीरों के संग्राम से उत्पन्न नाना प्रकार की कथाएं करते हुए उस नगर में उत्साह और उल्लास को प्राप्त कर यथायोग्य ठहरे ।।72।।
अथानंतर जिसका मन शीघ्रता से युक्त था ऐसे हनुमान को जाने के लिए उद्यत देख प्रेम से भरी लंकासुंदरी ने एकांत में उससे पूछा कि ॥73॥ हे नाथ ! आप रावण के दुःसह पराक्रम को बात सुन चुके हैं और स्वयं नाना अपराधों से परिपूर्ण हैं फिर किसलिए लंका जाने को उद्यत हैं सो तो कहो ॥74।। इसके उत्तर में हनुमान ने उसे सब वृत्तांत कहा और यह बताया कि प्रत्युपकार का करना बंधुजनों के द्वारा अनुमोदित है ।। 75 ।। हे भद्रे ! राक्षसों का इंद्र रावण सीता को हर ले गया है सो उसके साथ राम का समागम मुझे अवश्य कराना है ।। 76 ।। यह सुन लंकासुंदरी ने कहा कि रावण के साथ आपका जो पुराना सौहार्द था वह नष्ट हो चुका है जिस प्रकार नेत्र के नष्ट हो जाने से दीप की शिखा नष्ट हो जाती है उसी प्रकार आपके प्रति श्रद्धा के नष्ट हो जाने से रावण का सौहार्द नष्ट हो गया है ॥77 ।। एक समय था कि जब आप मार्गों की शोभा से युक्त तथा ध्वजाओं की पंक्ति से अलंकृत लंका में बड़े आदर के साथ उस तरह प्रवेश करते थे जिस तरह कि देव स्वर्ग में प्रवेश करता है ।। 78॥ परंतु आज आप अपराधी होकर यदि लंका में प्रकट रूप से जाते हैं तो कठोर शासन को धारण करनेवाला रावण आप पर क्रोध ग्रहण करेगा इसमें संशय नहीं है ।। 79 ।। अत: जिस समय देश और काल की उत्तम शुद्धि― अनुकूलता प्राप्त हो तथा रावण का हृदय शुद्ध एवं व्यग्रता रहित हो उस समय उसका साक्षात्कार करना योग्य है ।। 80॥ इसके उत्तर में हनुमान ने कहा कि विदुषि ! तुमने जैसा कहा है यथार्थ में वैसा ही है । किंतु हे सुंदरि ! मैं रावण का अभिप्राय जानना चाहता हूँ ॥81॥ और यह भी देखना चाहता हूँ कि वह सती सीता कैसी रूपवती है कि जिसने मेरु के समान धीर, वीर रावण का मन विचलित कर दिया है ।। 82 ।। इस प्रकार कहकर तथा अपनी सेना उसी के पास छोड़कर हनुमान् उस विवेकवती से छूटकर त्रिकूटाचल की ओर चला ॥83।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! इस संसार में यह परम आश्चर्य की बात है कि प्राणी एक रस को छोड़कर उसी क्षण विशुद्धरूप को धारण करने वाले दूसरे रस को प्राप्त हो जाता है ।। 84 ꠰꠰ सो इस संसार में यह प्राणियों के कर्म की ही अद्भुत चेष्टा है । जिस प्रकार सूर्य को गति कभी दक्षिण दिशा की ओर होती है और कभी उत्तर दिशा की ओर । उसी प्रकार प्राणियों के शरीर से संबंध रखने वाला यह सब व्यवहार कर्म की चेष्टानुसार कभी इस रसरूप होता है और कभी उस रसरूप होता है ॥85 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में हनुमान् को लंकासुंदरी कन्या की प्राप्ति का वर्णन करनेवाला बावनवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥52॥