ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 60
From जैनकोष
साठवां पर्व
अथानंतर हस्त और प्रहस्त वीरों को मरा सुन दूसरे दिन उत्कट क्रोध से भरे बहुत से योद्धा युद्ध करने के लिए उद्यत हुए ॥1॥ जिनके कुछ नाम इस प्रकार हैं― मारीच, सिंहजघन, स्वयंभू, शंभु, अर्जित, शुक, सारण, चंद्र, अर्क, जगद्वीभत्स, निःस्वन, ज्वर, उग्र, नक्र, मकर, वज्राख्य, उद्याम, निष्ठुर और गंभीर निनद आदि । ये सभी योद्धा कवच धारण कर युद्ध के लिए तैयार थे, वेग से सहित थे, सिंहों और परिपुष्ट घोड़ों से जुते हुए रथों पर आरूढ़ थे तथा वानर वंशियों की सेना को क्षोभित करते हुए आ पहुँचे ॥2-4॥ उन राक्षसवंशी उत्तमोत्तम राजाओं को आते देख वानरवंश के प्रधान राजा युद्ध करने के लिए उद्यत हुए ॥5।। इनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं― मदन, अंकुर, संताप, प्रस्थित, आक्रोश, नंदन, दुरित, अनघ, पुष्पास्त्र, विघ्न और प्रीतिंकर आदि ॥6॥ आकाश को अत्यंत जटिल करने वाले नाना प्रकार के शस्त्रों से दोनों पक्ष के लोगों का एक दूसरे को ललकार-ललकार कर भयंकर युद्ध हुआ ।।7।।
उस समय युद्ध में संताप, मारीच को चाह रहा था; प्रथित, सिंहजघन को; विघ्न, उद्याम को; आक्रोश, सारण को; पाप, शुक को और नंदन, ज्वर को; देख रहा था । इस प्रकार स्पर्धा से भरे हुए इन सब योद्धाओं का विकट युद्ध हुआ ।। 8-9॥ तदनंतर क्लेश से भरे हुए मारीच ने संताप को गिरा दिया । नंदन ने वक्षःस्थल में भाले का प्रहार कर बड़े कष्ट से ज्वर को मार डाला ।। 10 ।। सिंह जघन ने प्रथित को और उद्याम ने विघ्न को मार गिराया । तदनंतर सूर्य अस्त हुआ और उस दिन के युद्ध का उपसंहार हुआ ।।11।। अपने-अपने पति को मरा सुन स्त्रियाँ शोकरूपी सागर में निमग्न हुई और उस रात्रि को अनंत-बहुत भारी मानने लगीं ॥12॥
तदनंतर दूसरे दिन तीव्र क्रोध से भरे वज्राख्य, क्षपितारि, मृगेंद्रदमन, विधि, शंभु, स्वयंभू, चंद्र, अर्क तथा वज्रोदर आदि राक्षस पक्ष के और उनसे भिन्न दूसरे वानर पक्ष के योद्धा युद्ध करने के लिए उद्यत हुए ॥13-14॥ जंमांतरों में संचित क्रोध कर्म के तीव्र उदय से वे अपने जीवन से निःस्पृह हो भयंकर युद्ध करने में जुट पड़े ॥15॥ महाक्रोध से भरे संक्रोध ने क्षपितारि को ललकारा, भुजाओं से सुशोभित बलि ने सिंहदमन को बुलाया और वितापि ने विधि को पुकारा । इस प्रकार परस्पर महायुद्ध होने पर जिनके नामों का पता नहीं था ऐसे अनेक योद्धा मर-मरकर ऐसे गिरने लगे मानो पत्थर ही बरस रहे हों ।।16-17॥ जिस पर पहले प्रहार किया गया था ऐसे शार्दूल ने वज्रोदर को मारा । दीर्घकाल तक युद्ध करने वाले संक्रोध को क्षपितारि ने मार डाला ॥18॥ शंभु ने विशालद्युति को मार गिराया, स्वयंभू ने यष्टि की चोट से विजय को मृत्यु प्राप्त करा दी और विधि ने गदा के प्रहार से वितापि को बड़ी कठिनाई से मारा था । इस प्रकार उस समय सामंतों के द्वारा सैकड़ों सामंत मारे गये थे ॥19-20॥ तदनंतर अपनी सेना को नष्ट होती देख परम क्रोध से भरा सुग्रीव जब तक कवच धारण करने के लिए उद्यत हुआ तब तक अपनी सेना से पृथिवी को व्याप्त करने वाला हनुमान् हाथियों से जुते स्वर्णमय रथ पर सवार हो युद्ध करने के लिए उठ खड़ा हुआ ॥21-22।। जिस प्रकार सिंह को देखकर गायों का समूह भयभीत हो इधर-उधर भागने लगता है, उसी प्रकार हनुमान् को देख राक्षस-सामंतों का समूह भयभीत हो इधर-उधर भागने लगा ॥23॥ राक्षस परस्पर कहने लगे कि यह हनुमान् आज ही अनेक स्त्रियों को विधवाएँ कर देगा ॥24॥ तदनंतर युद्ध का अभिलाषी राक्षसों का शिरोमणि, माली हनुमान के आगे आया सो हनुमान् भी बाण निकालकर उसके सामने जा पहुंचा ।। 25 ।। कानों तक खींच-खींचकर चढ़ाये हुए बाणों से उन दोनों का ऐसा महायुद्ध हुआ कि जिसमें क्रम-क्रम से ठीक-ठीक शब्द का उच्चारण हो रहा था, तथा जो परम उद्धतता से युक्त था ।। 26 ।। योग्य युद्ध करने में तत्पर सचिव सचिवों के साथ, रथी रथियों के साथ और घुड़सवार घुड़सवारों के साथ जूझ पड़े ।। 27 ।। हनुमान की शक्ति से माली को नष्ट हुआ देख परम पराक्रमी वज्रोदर उसके सामने आया ।। 28 ।। चिरकाल तक युद्ध करने के बाद हनुमान ने जब उसे रथरहित कर दिया तब वह दूसरे रथ पर सवार हो हनुमान् की ओर दौड़ा ॥29 ।। परम अभ्युदय के धारक हनुमान ने उसे पुनः रथरहित कर दिया और उसके ऊपर वायु के समान वेगशाली अपना रथ चढ़ा दिया ।।30॥ जिससे रथ को खींचने वाले हाथियों के पैरों से चूर-चूर होकर उसने रणांगण में शीघ्र ही प्राण छोड़ दिये । अब हुँकार से भी रहित हो गया ॥31॥
तदनंतर रावण का जंबूमाली नाम का प्रसिद्ध बलवान् पुत्र, अपने पक्ष के लोगों की मृत्यु से कुपित हो हनुमान के सामने खड़ा हुआ ॥32॥ इसने खड़े होते ही, अर्धचंद्र सदृश बाण के द्वारा हनुमान् की वानर चिह्नित ध्वजा छेद डाली ॥33॥ तदनंतर ध्वजा के छेद से हर्षित हुए हनुमान् ने उसके धनुष और कवच को जीर्ण तृण के समान जर्जरता को प्राप्त करा दी अर्थात् उसका धनुष और कवच दोनों ही तोड़ दिये ॥34।। तदनंतर मंदोदरी के पुत्र जंबू माली ने तत्काल ही दूसरा मजबूत कवच धारण कर तीक्ष्ण बाणों द्वारा हनुमान् के वक्षःस्थल पर प्रहार किया ॥35।। सो पहाड़ के समान अत्यंत धीर बुद्धि को धारण करने वाले हनुमान् ने उन बाणों से ऐसे सुख का अनुभव किया मानो बाल नीलकमल के मुरझाये हुए नालों के स्पर्श से उत्पन्न हुए सुख का ही अनुभव कर रहा हो ॥36।। तदनंतर हनुमान् ने षष्ठी के चंद्रमा के समान कुटिल बाण के द्वारा जंबूमाली के रथ में जुते हुए महाउद्धत सौ सिंह छोड़ दिये अर्थात् एक ऐसा बाण चलाया कि उससे जंबूमाली के रथ में जुते सौ सिंह छुट गये ॥37।। जिनके मुख दाढ़ों से भयंकर थे तथा लाल-लाल आँखें चमक रही थीं ऐसे उन सिंहों ने उछलकर अपनी समस्त सेना को विह्वल कर दिया ॥38॥ उस सेनारूपी सागर के मध्य में वे सिंह बड़ी-बड़ी तरंगों के समान जान पड़ते थे अथवा अतिशय बलवान क्रूर मगर-मच्छों के समान दिखाई देते थे ।।39।। चमकते हुए विद्युद्दंड के समूह का आकार धारण करने वाले उन सिंहों ने सेनारूपी मेघों के समूह को अत्यंत क्षोभ प्राप्त कराया था ॥40॥ युद्धरूपी संसारचक्र के बीच में सैनिकरूपी प्राणी सिंहरूपी कर्मों के द्वारा सब ओर से अत्यंत दु:खी किये गये थे ॥41॥ घोड़े, मदोन्मत्त हाथी और रथों के सवार― सभी लोग विह्वल हो युद्ध संबंधी कार्य छोड़ दशों दिशाओं में भागने लगे ॥42।। तदनंतर यथायोग्य रीति से सब सामंतों के भाग जाने पर हनुमान् ने कुछ दूर सामने स्थित रावण को देखा ॥43।।
तदनंतर वह अत्यंत देदीप्यमान सिंहों से युक्त रथ पर सवार हो बाण खींचकर रावण की ओर दौड़ा ॥44॥ अपनी सेना को सिंहों के द्वारा त्रासित तथा यमराज के समान दुर्धर हनुमान् को पास आया देख, कवच आदि धारण करने में तत्पर रावण ने ज्योंही युद्ध का विचार किया त्यों ही उसके पास बैठा महोदर क्रोधपूर्वक उठ खड़ा हुआ ।। 45-46 ।। इधर जब तक महोदर और हनुमान् का युद्ध होता है तब तक वे छूटे हुए सिंह धोरे-धीरे बुद्धिमान् स्वामियों के द्वारा पकड़ लिये गये ॥47॥ सिंहों के वशीभूत होनेपर जिनका तीन क्रोध बढ़ रहा था ऐसे समस्त राक्षस यद्यपि पवनपुत्र पर टूट पड़े ॥48।। तथापि अतिशय कुशल हनुमान् ने, बाण समूह को छोड़ने वाले उन समस्त राक्षसों को बाणरूपी मंत्रियों के द्वारा रोक लिया ॥49॥ जिस प्रकार दुर्जन मनुष्यों के द्वारा कहे हुए दुर्वचन संयमी मनुष्य के कंपन उत्पन्न करनेवाले नहीं होते उसी प्रकार राक्षसों के द्वारा छोड़े हुए बाणों के समूह हनुमान् के कंपन उत्पन्न करनेवाले नहीं हुए अर्थात् धीरवीर हनुमान्, राक्षसों के बाणों से कुछ भी विचलित नहीं हुआ ॥50॥
तदनंतर हनुमान् को बहुत से राक्षसों के द्वारा घिरा देख वानर पक्ष के ये योद्धा युद्ध के लिए उद्यत हुए । ॥51॥ सुषेण, नल, नील, प्रीतिकर, विराधित, संत्रासक, हरिकटि, सूर्यज्योति, महाबल और जांबूनद के पुत्र आदि । ये सब सिंह, हाथी और घोड़ों से जुते हुए रथों पर सवार हो बड़ी कठिनाई से रावण की सेना को रोकने के लिए उद्यत हुए ॥52-53 ।। जिस प्रकार किसी अत्यंत तुच्छ पुरुष के द्वारा धारण किया हुआ वत परिषहों के द्वारा ध्वस्त― नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है उसी प्रकार सब ओर से आते हुए वानर पक्ष के योद्धाओं से रावण की सेना ध्वस्त हो गयी ॥54॥ अपने पक्ष के लोगों को व्याकुल देख रावण युद्ध करने का अभिलाषी हुआ, सो उसे देख महाबलवान् भानुकर्ण (कुंभकर्ण) युद्ध करने के लिए उठा ॥55॥ रण के तेज से देदीप्यमान वीर भानुकर्ण को उठा देख, ये लोग सुषेण आदि को सहारा देने के लिए पहुँचे ॥56॥ चंद्ररश्मि, जयस्कंद, चंद्राभ, रतिवर्धन, अंग, अंगद, सम्मेद, कुमुद, चंद्रमंडल, बलि, चंडतरंग,सार, रत्नजटी, जय, बेलाक्षेपी, वसंत, तथा कोलाहल आदि ।। 57-58 ।। ये सब राम पक्ष के अत्यंत बलवान् योद्धा, ऐसा महायुद्ध करने लगे कि जो शत्रु-सामंतों को अत्यंत दुःसह था ॥59 ।। तदनंतर रण को खाज से युक्त उन सब वीरों को क्रोध से भरे भानुकर्णने निद्रा नामा विद्या के द्वारा सुला दिया ॥60॥ तत्पश्चात् निद्रा से जिनके नेत्र घूम रहे थे ऐसे शस्त्रों को धारण करनेवाले उन वीरों के हाथ सब ओर से शिथिल पड़ गये तथा उनसे अस्त्र-शस्त्र नीचे गिरने लगे ॥61॥ निद्रा के कारण जिनका युद्ध बंद हो गया था तथा जिनकी चेतना अव्यक्त हो चुकी थी ऐसे उन सबको देख सुग्रीव ने शीघ्र ही प्रतिबोधिनी नाम की विद्या छोड़ी ॥62॥ तदनंतर उस विद्या के प्रभाव से प्रतिबुद्ध होने के कारण जिनका तेज अत्यंत बढ़ गया था ऐसे हनुमान् आदि वीर अत्यंत भयंकर युद्ध करने के लिए प्रवृत्त हुए ॥63 ।। वानरवंशियों की वह सेना बहुत बड़ी थी, छत्र, खड्ग तथा वाहनों से ―व्याप्त थी, उसकी युद्ध की लालसा समाप्त नहीं हुई थी, उत्तरोत्तर स्पर्धा करने वाली थी, और क्षोभ को प्राप्त हुए सागर के समान जान पड़ती थी । इसके विपरीत रावण की सेना की दशा अत्यंत अशोभनीय हो रही थी सो वानरवंशियों की सेना तथा अपनी सेना की दशा देख रावण युद्ध के लिए उत्साही हुआ सो महादीप्ति का धारक इंद्रजित् प्रणाम कर तथा हाथ जोड़कर यह कहने लगा कि ॥64-66 ।। हे तात ! हे तात ! मेरे रहते हुए इस समय आपका युद्ध के लिए तत्पर होना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा होनेपर मेरा जन्म निष्फलता को प्राप्त होता है ।। 67 ।। अरे! जो तृण नख के द्वारा छेदा जा सकता है वहाँ परशु का प्रयोग करना क्या उचित है ? इसलिए आप निश्चिंत रहिए आपका मनोरथ मैं पूर्ण करता हूँ ॥68 ।। इतना कहकर अत्यधिक प्रसन्नता से भरा इंद्रजित् पर्वत के समान त्रैलोक्यकंटक नामक अपने परम प्रिय गजेंद्र पर सवार होकर युद्ध के लिए उद्यत हुआ । उस समय जिसने आदररूपी सर्वस्व ग्रहण किया था, ऐसा वह इंद्रजित् महामंत्रियों से सहित था, संपदा से इंद्र के समान जान पड़ता था तथा अतिशय धीर-वीर था ॥69-70 ।। उस महाबलवान् मानी इंद्रजित् ने उठते ही नाना शस्त्रों से भरी वानरों की सेना क्षणमात्र में ग्रस ली― दबा दी ॥71 ।। सुग्रीव को सेना में ऐसा एक भी वानर नहीं था जिसे इंद्रजित ने कान तक खिचे हुए बाणों से घायल नहीं किया हो ।।72 ।। उस समय लोगों के मुख से इस प्रकार के वचन निकल रहे थे कि-यह इंद्रजित् नहीं है ? किंतु इंद्र है ? अथवा अग्निकुमार देव है, अथवा कोई दूसरा सूर्य ही उदित हुआ है ॥73॥ तदनंतर अपनी सेना को इंद्रजित् के द्वारा दबी देख स्वयं सुग्रीव और भामंडल युद्ध के लिए उठे ॥74।। तत्पश्चात् उनके योद्धाओं में ऐसा युद्ध हुआ कि जो परस्पर के बुलाने के शब्द से व्याप्त था, शस्त्रों के द्वारा जिसमें आकाश अंधकारयुक्त हो रहा था और जिसमें प्राणों को अपेक्षा नहीं थी ।। 75 ।। घोड़े घोड़ों से, हाथी हाथियों से, रथ रथों से और अपने स्वामी के अनुराग के कारण महोत्साह से युक्त पैदल सैनिक पैदल सैनिकों से भिड़ गये ।।76।।
अथानंतर क्रोध से भरा इंद्रजित् सामने खड़े हुए सुग्रीव को लक्ष्य कर अपूर्व शस्त्रभूत गगन स्पर्शी स्वर से बोला ।।77॥ कि अरे ! पशुतुल्य नीच वानर ! पापी ! रावण की आज्ञा छोड़कर अब तू मेरे कुपित रहते हुए कहाँ जाता है ? ॥78॥ आज मैं इस नीलकमल के समान श्याम तलवार से तेरा मस्तक काटता हूँ, भूमिगोचरी राम-लक्ष्मण तेरी रक्षा करें ॥79॥ तदनंतर सुग्रीव ने कहा कि इन व्यर्थ की गर्जनाओं से क्या लाभ है ? देख तेरा मानरूपी शिखर मैं अभी ही भग्न करता हूँ ॥80॥ इतना कहते ही क्रोध के भार को धारण करने वाला इंद्रजित् अद्भुत रूप से धनुष का आस्फालन करता हुआ सुग्रीव के समीप पहुँचा ।।81॥ तत्पश्चात् इधर चंद्रमंडल के समान छत्र की छाया से सेवित इंद्रजित् ने सुग्रीव को लक्ष्य कर बाणों का समूह छोड़ा ।। 82 ।। उधर अपनी रक्षा करने में अत्यंत चतुर सुग्रीव ने भी कान तक खिचे तथा शब्द से युक्त बाण इंद्रजित् की ओर छोड़े ।।83॥ उन विस्तृत बाणों के समूह से निरंतर व्याप्त हुआ समस्त आकाश ऐसा हो गया मानो मूर्तिधारी दूसरा ही आकाश हो ॥84।। उधर से वीर मेघवाहन ने भामंडल को ललकारा और इधर से राजा विराधित ने वज्रनक्र को पुकारा ।।85॥ गौतम स्वामी श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! राजा विराधित ने वज्रनक्र राजा की छाती पर देदीप्यमान चक्र की चोट देकर उसे गिरा दिया ॥86॥ इसके बदले वज्रनक्र ने भी संभलकर विराधित की छाती पर चक्र का प्रहार किया सो ठीक ही है क्योंकि बदला चुकाये बिना बड़ी लज्जा उत्पन्न होती है ।।87॥ उस समय चक्र और कवच की टक्कर से जो अग्नि के कण उत्पन्न हुए थे, उनके समूह से आकाश इस प्रकार पीला हो गया मानो चमकती हुई उल्काओं के तिलगों के समूह से ही पीला हो रहा हो ।। 88॥ युद्ध-निपुण लंकानाथ के पुत्र इंद्रजित् ने सुग्रीव को निःशस्त्र कर दिया फिर भी वह संग्राम से पीछे नहीं हटा ॥89 ।। प्रत्युत इसके विपरीत सुग्रीव ने भी वज्र के द्वारा इंद्रजित् के सर्व शस्त्र दूर कर दिये सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यात्मा जीवों के किसी कार्य में अंतर नहीं पड़ता ॥90 । तदनंतर क्रोध से भरा इंद्रजित् शीघ्र ही हाथा से उतरकर आकाश को पोला करने वाले सिंहों के रथ पर हुआ ॥91 ।। तत्पश्चात् जिसको बुद्धि स्थिर थी, जो नाना विद्यामय अस्त्र-शस्त्रों के चलाने में निपुण था और जो युद्ध में मानो नवीन रस धारण कर रहा था ऐसा इंद्रजित् मायामय युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ॥92॥ प्रथम ही उसने मेघ-समूह के समान गर्जना करनेवाला वारुण अस्त्र छोड़ कर सुग्रीव को दिशाओं को प्रकाश से रहित कर दिया ॥93॥ इसके बदले सुग्रीव ने भी छत्र तथा ध्वजा आदि को छेदने वाला पवन बाण चलाया जिससे इंद्रजित् का वारुण अस्त्र रुई के समूह के समान कहीं चला गया ।। 94॥
उधर वीर मेघवाहन ने भी आग्नेय बाण चलाकर राजा भामंडल के धनुष को ईंधन बना दिया अर्थात् जला दिया ।।95॥ उस धनुष के तिलगों के संबंध से अन्य धनुष धारियों के धनुष भी धूम छोड़ने लगे जिसे सब सेना ने बड़े भय से देखा ॥26॥ उन धनुषों ने अनेक योद्धाओं के प्राण ग्रसित किये थे इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो उन्हें अत्यधिक अजीर्ण ही हो गया हो ॥97 ।। तदनंतर अपने चक्र-सेना को रक्षा करते हुए भामंडल ने शीघ्र ही वारुण अस्त्र छोड़ कर आग्नेय अस्त्र का निराकरण कर दिया ।। 98॥ तत्पश्चात् मंदोदरी के पुत्र मेघवाहन ने उस प्रकार के महापराक्रमी एवं आकुलता से रहित भामंडल को रथरहित कर दिया अर्थात् उसका रथ तोड़ डाला ॥99।। यही नहीं प्रयोग करने में कुशल मेघवाहन ने सुंदर तामस बाण भी चलाया जिससे भामंडल की समस्त सेना अंधकार से युक्त हो गयो ।। 100 ꠰। वह उस समय अंधकार के कारण न अपने हाथी तथा पृथिवी को जान पाता था, न शत्रु संबंधी हाथी तथा पृथिवी ही को जान पाता था । गाढ़ अंधकार से आच्छादित हुआ वह मानो मूर्च्छा को ही प्राप्त हो रहा था ॥101॥ जब भामंडल उस तामस बाण से अंधा हो रहा था तब मेघवाहन ने उसे विषरूपी धूम का समूह छोड़ने वाले नागबाणों से वेष्टित कर लिया ॥102 ।। उठते हुए फनों से सुशोभित उन नागों से जिसका समस्त शरीर व्याप्त था और इसलिए जो चंदन वृक्ष के समान जान पड़ता था ऐसा भामंडल पृथिवी पर गिर पड़ा ॥103 ।। इसी प्रकार तामस और नागपाश इन दो अस्त्रों को चलाने वाले इंद्रजित ने भी सुग्रीव को दशा की अर्थात् उसे तामसास्त्र से अंधा कर नागपाश से बाँध लिया ॥104॥
तदनंतर विद्यामय शस्त्रों से युद्ध करने में कुशल विभीषण ने हाथ जोड़ मस्तक से लगा से कहा कि हे महाबाहो ! राम ! राम हे वीर ! लक्ष्मण ! लक्ष्मण ! देखो ये दिशाएँ इंद्रजित् के द्वारा छोड़े हुए बाणों से आच्छादित हो रही हैं ॥105-106॥ उत्पातकारी नागों के समान आभा वाले, अत्यंत दुःखदायी उसके निरंतर बाणों से आकाश और पृथिवी व्याप्त हो रही है ।।107।। मंदोदरी के पुत्रों ने सुग्रीव और भामंडल को अस्त्र रहित कर दिया है, तथा अपने द्वारा छोड़े हुए नाग बाणों से उन्हें बाँधकर पृथिवी पर गिरा दिया है ॥108।। हे देव ! अतिशय चतुर भामंडल और अनेक विद्याधरों के राजा वीर सुग्रीव के पराजित होने पर हे राघव ! समझ लीजिए कि हम लोगों की सामूहिक मृत्यु निकटवर्ती है, क्योंकि ये दोनों ही हमारे पक्ष के प्रमुख नायक हैं ॥109-110।। इधर देखो, यह विद्याधरों की सेनानायक से रहित होने के कारण दशों दिशाओं में भागने के लिए उद्यत हो रही है ।। 111 ।। उधर देखो, कुंभकर्ण ने महायुद्ध में हनुमान् को जीतकर अपने हाथों से उसे कैद कर रखा है ।। 112 ।। जिसका छत्र, ध्वज, धनुष और कवच बाणों से जर्जर कर दिया गया है, ऐसा यह वीर हनुमान् बलात् कैद किया गया है ॥113॥ रणविशारद रावण का पुत्र, जब तक पृथिवी पर पड़े हुए सुग्रीव और भामंडल के समीप शीघ्रता से नहीं पहुँचता है तब तक निश्चेष्ट पड़े हुए इन दोनों को मैं स्वयं जाकर ले आता हूँ, तुम नायक-रहित इस विद्याधर सेना को आश्रय दो ॥114-115।। इस तरह जब तक विभीषण राम और लक्ष्मण से कहता है तब तक सुतारा के पुत्र अंगद ने छिपे-छिपे जाकर कुंभकर्ण का अधोवस्त्र खोल दिया जिससे वह लज्जा से व्याकुल हो वस्त्र के सँभालने में लग गया ।। 116-117॥ जब तक कुंभकर्ण वस्त्र के संभालने में लगता है तब तक हनुमान् उसके भुजापाश के मध्य से निकल भागा ॥118॥ जिस प्रकार नया बंधा पक्षी पिंजडे के मध्य से निकलने पर चकित हो जाता है, उसी प्रकार हनुमान भी कुंभकर्ण के भुज बंधन से निकलने पर चकित तथा उन तेज से युक्त हो गया ।। 119 ।। तदनंतर प्रसन्नता और संतोष से युक्त वीर हनुमान् और अंगद विमान के अग्रभाग पर बैठ देवों के समान सुशोभित होने लगे ॥120 ।। उधर अंगद के भाई अंग और चंद्रोदर के पुत्र विराधित के साथ लक्ष्मण, विद्याधरों की सेना को धैर्य बंधाने के लिए जा डटे ।। 121॥ अब विभीषण, मंदोदरी के पुत्र इंद्रजित् के सामने गया सो वह काका को देख इस चिंता को प्राप्त हुआ ॥122 ।। कि यदि न्याय से देखा जाये तो पिता में और इसमें क्या भेद है ? इसलिए इसके सम्मुख खड़ा रहना अच्छा नहीं है ॥123 ।। ये सुग्रीव और विभीषण नागपाश से बँधे हैं सो निःसंदेह मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं, इसलिए इस समय यहाँ से चला जाना ही उचित है ॥124 ।। ऐसा विचारकर कृतकृत्यता के अहंकार से भरे इंद्रजित् और मेघवाहन दोनों ही युद्धभूमि से बाहर निकल गये ।। 125।। उन दोनों के अंतर्हित हो जाने पर जिसकी आत्मा घबड़ा रही थी, जो त्रिशूल नामक शस्त्र धारण कर रहा था, जिसने कवच पहन रखा था, तथा जिसके नेत्र अत्यंत चंचल थे ऐसा वीर विभीषण अपने रथ से उतरकर वहाँ गया जहाँ सुग्रीव और भामंडल निश्चेष्ट पड़े हुए थे । वहाँ जाकर उसने नागपाश से निर्मित दोनों की चिंतनीय दशा देखी ॥126-127॥
तदनंतर बुद्धिमान् लक्ष्मण ने राम से कहा कि हे नाथ ! सुनिए, जहाँ वे महाविद्याधरों के स्वामी, अतिशय बलवान्, बड़ी-बड़ी सेनाओं से सहित और महाशक्ति से संपन्न ये भामंडल और सुग्रीव भी रावण के पुत्रों द्वारा अस्त्ररहित अवस्था को प्राप्त हो नागपाश से बाँध लिये गये हैं वहाँ क्या तुम्हारे या हमारे द्वारा रावण जीता जा सकता है? ॥128-130॥ तब पुण्योदय से स्मरण कर राम ने लक्ष्मण से कहा कि भाई ! उस समय देशभूषण-कुलभूषण मुनियों का उपसर्ग दूर करने पर हम लोगों को जो वर प्राप्त हुआ था उसका स्मरण करो ॥131 ।। उसी समय राम के स्मरण मात्र से सुख से बैठे हुए महालोचन नामक गरुड़ेंद्र का सिंहासन सहसा कंपायमान हुआ ॥132॥ तदनंतर अवधिज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा सब समाचार जानकर गरुड़ेंद्र ने शीघ्र ही दो विद्याओं के साथ अपना चिंतावेग नामक देव भेजा ॥133 ।। वहाँ जाकर जिसने आदर के साथ कुशल संदेश सुनाया था ऐसे उस देव ने राम-लक्ष्मण के लिए परिवार से सहित दो प्रशस्त विद्याएं दीं ॥134।। राम के लिए तो आश्चर्य उत्पन्न करने वाली सिंहवाहिनी विद्या और लक्ष्मण के लिए दिकसमूह को देदीप्यमान करने वाली गरुड़वाहिनी विद्या दी ॥135 ।। धीरवीर राम-लक्ष्मण ने, दोनों विद्याएँ प्राप्त कर चिंतागति देव का बड़ा सम्मान किया, उससे कुशल समाचार पूछा और तदनंतर जिनेंद्रदेव को उत्तम पूजा की ।। 136 ।। उत्तम गुणों के ग्रहण करने में तत्पर रहने वाले राम-लक्ष्मण ने योग्य अवसर पर प्राप्त हुए गरुड़ेंद्र के उस उत्तम प्रसाद को बड़े हर्ष से स्तुति की प्रशंसा की ॥137॥ उत्तम शोभा को धारण करने वाले राम-लक्ष्मण ने उसी समय वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र तथा वायव्यास्त्र आदि हजारों देवोपनात देदीप्यमान शस्त्र सामने खड़े देखे अर्थात् उस देव ने वे सब शस्त्र उन्हें दिये ॥138॥
सुंदर चमरों से सुशोभित चंद्रमा और सूर्य के समान छत्र तथा अपनी कांति से आच्छादित अनेक रत्न भी उस देव ने प्रदान किये ॥139॥ विद्युद्वक्त्र नामक गदा लक्ष्मण को प्राप्त हुई और दैत्यों को भय उत्पन्न करने वाले हल तथा मुसल नामक शस्त्र राम को प्राप्त हुए ॥140।। इस प्रकार वह देव राम-लक्ष्मण के साथ हर्षपूर्वक मिलकर तथा परम महिमा को प्राप्त कर उन्हें सैकड़ों आशीर्वाद देता हुआ अपने स्थान को चला गया है ।। 141 ।।
गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन् ! जो योग्य समय पर प्रशंसनीय एवं अनुपम फल की प्राप्ति होती है वह विधिपूर्वक किये हुए निर्दोष धर्म का ही फल है ऐसा धीरवीर मनुष्यों को जानना चाहिए । धर्म से वह फल प्राप्त होता है जिसे पाकर मनुष्य उत्तम हर्ष से युक्त होते हैं, उनके उपसर्ग दूर से ही छट जाते हैं और वे महाशक्ति से संपन्न हो स्वपर का कल्याण करने में समर्थ होते हैं ॥142 ।। अथवा मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होनेवाली संपदाओं की बात दूर रहे, स्वर्ग संबंधी संपदाएँ भी इसे इच्छा से भी अधिक अनुपम सामग्री प्रदान करती हैं । इसलिए सुख को इच्छा रखनेवाले हे भव्यजनो ! निरंतर पुण्य करो जिससे सूर्य के समान कांति के धारक होते हुए तुम अनेक आश्चर्यकारी वस्तुओं के संयोग को प्राप्त हो सको ॥143 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में राम-लक्ष्मण को विद्याओं की प्राप्ति का वर्णन करने वाला साठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥60॥