ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 62
From जैनकोष
बासठवां पर्व
अथानंतर दूसरे दिन जिन्हें महापराक्रम उत्पन्न हुआ था, जो क्रम को जानने में निपुण थे, एवं युद्ध के लिए जिन्होंने सब सामग्री ग्रहण की थी ऐसे रणबांकुरे वीर युद्ध के लिए उद्यत हुए ॥1॥ वानरों की सेना से समस्त आकाश को निरंतर व्याप्त देख तथा शंखों और दुंदुभियों के शब्दों से मिली हाथियों और घोड़ों की आवाज सुन कैलास को उठाने वाला वीर रावण भी भाइयों आदि के साथ निकला । रावण अत्यंत बलवती बुद्धि का धारक था, मानी था, आदर से युक्त था, देवों के समान शोभा से सहित था, सत्त्व और प्रताप से युक्त था, सेनारूपी सागर से घिरा हुआ था, और शस्त्र से उत्पन्न तेज के द्वारा संसार को जलाता हुआ-सा जान पड़ता था । ॥2-4॥ तदनंतर जिन्होंने उठ कर कवच बाँध रखे थे, जिन्हें संग्राम की उत्कट लालसा भरी हुई थी, जो नाना प्रकार के वाहनों पर आरूढ़ थे, नाना प्रकार के बडे-बडे शस्त्र जिन्होंने धारण कर रखे थे और जो पूर्वानबद्ध क्रोध के कारण महानारकी के समान जान पड़ते थे, ऐसे धीर-वीर योद्धा परस्पर मार-काट करने में लग गये ।। 5-6 ।। चक्र, कच, पाश, खड्ग, यष्टि, वज्र, घन, मुद्गर, कनक तथा परिघ आदि शस्त्रों से आकाश सघन हो गया ।। 7 ।। घोड़ों का समूह घोड़ों के साथ जुट पड़ा, हाथियों का समूह हाथियों के समूह के सम्मुख गया, महाधीर-वीर रथों के सवार रथ सवारों के साथ खड़े हो गये ।।8।। सिंहों के सवार सिंहों के सवारों के साथ और चंचल तथा समान पराक्रम को धारण करने वाला पैदल सैनिकों का समूह पैदल सैनिकों के साथ महायुद्ध करने के लिए उद्यत हो गया ।। 9 ।।
तदनंतर प्रथम तो राक्षस योद्धाओं ने वानरों की सेना को पराजित कर दो, परंतु उसके बाद नील आदि वानरोंने उसे पुनः शस्त्र वर्षा करने को योग्यता प्राप्त करा दी अर्थात् वानरों की सेना पहले तो कुछ पीछे हटो, परंतु ज्यों ही नोल आदि वानर आगे आये कि वह पुनः राक्षसों पर शस्त्र वर्षा करने लगी ।। 10 ।। पश्चात् अपनी सेना का पराभव देख, समुद्र की तरंगों के समान चंचल लंका के निम्नांकित राजा पुनः युद्ध के लिए उद्यत हुए ॥11॥ विद्युद्वक्त्र, मारीच, चंद्र, अर्क, शुक, सारण, कृतांत, मृत्यु, मेघनाद और संक्रोधन आदि ।। 12 ।। इन राक्षस योद्धाओं के द्वारा अपनी सेना को नष्ट होते देख वानर पक्ष के हजारों महायोद्धा आ पहुंचे ॥13॥ और आते ही उन्नत, नाना प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले, महाभयंकर, वीर और अत्यंत उदात्त चेष्टाओं के धारक उन योद्धाओं ने राक्षसों की सेना को धर दबाया ॥14॥ तदनंतर शस्त्ररूपी ज्वालाओं से सुशोभित वानररूपी प्रलयाग्नि के द्वारा अपनी सेनारूपी सागर को सब ओर से पिया जाता देख क्रोध से भरा बलवान् रावण, शत्रु सैनिकों को सूखे पत्तों के समान दूर फेंकता हुआ युद्ध करने के लिए स्वयं उद्यत हुआ ॥15-16 ।। तदनंतर महायोद्धाओं को भयभीत करने वाला विभीषण भागने में तत्पर वानरों की शीघ्र ही रक्षा कर युद्ध करने के लिए खड़ा हुआ ॥17॥ युद्ध में भाई को सम्मुख खड़ा देख जिसका क्रोध भड़क उठा था ऐसा रावण निरादरता के साथ यह वचन बोला कि तू छोटा भाई है अतः मुझे तेरा मारना योग्य नहीं है, तू सामने से हट जा, खड़ा मत रह, मैं तुझे देखने के लिए भी समर्थ नहीं हूँ ॥18-19।। तदनंतर विभीषण ने बड़े भाई-रावण से कहा कि तू यम के द्वारा मेरे सामने भेजा गया है अतः अब पीछे क्यों हटता है ? ॥20॥ पश्चात् विभीषण कुमार पर क्रोध प्रकट करते हुए रावण ने उससे पुनः कहा कि रे नपुंसक ! संक्लिष्ट ! नरकाक ! तुझ कुचेष्टी को धिक्कार है ॥21।। तुझे मार डालने पर भी मेरा यश नहीं होगा, क्योंकि तेरे समान तुच्छ मनुष्य न मुझे हर्ष उत्पन्न कर सकते हैं और न दीनता ही उत्पन्न करने के योग्य हैं ।। 22 ।। जिस प्रकार कोई, कर्मों का अत्यंत अशुभ उदय होने से जिनशासन को छोड़ अन्य शासन को ग्रहण करता है, उसी प्रकार तुझ मूर्ख ने भी विद्याधर की संतान को छोड़ अन्य भूमिगोचरी को ग्रहण किया है ॥23॥
तदनंतर विभीषण ने कहा कि इस विषय में बहुत कहने से क्या ? हे रावण ! तेरे कल्याण के लिए जो उत्तम वचन कहे जा रहे हैं उन्हें सुन ॥24॥ इस स्थिति में आने पर भी यदि तू अपना भला करना चाहता है तो राम के साथ मित्रता कर और सीता को समर्पित कर दे ।। 25 ।। अहंकार छोड़कर राम को प्रसन्न कर स्त्री के निमित्त अपने वंश को कलंकित मत कर ।। 26 ।। अथवा तुझे मरना ही इष्ट है इसीलिए मेरी बात नहीं मान रहा है सो ठीक ही है क्योंकि बलवान् मनुष्यों को भी इस बलवान् मोह का तिरना अत्यंत कठिन है ।। 27 ।। तदनंतर विभीषण के वचन सुन तीव्र क्रोध से युक्त हुआ रावण तीक्ष्ण बाण चढ़ाकर दौड़ा ॥28॥ स्वामी को संतुष्ट करने में तत्पर रहने वाले, रथों, घोड़ों और हाथियों पर बैठे हुए अन्य राजा लोग भी योद्धाओं को भय उत्पन्न करने वाले युद्ध में लग गये ॥29॥ तदनंतर बड़े वेग से सम्मुख जाकर विभीषण ने अष्टमी के चंद्र के समान कुटिल घूमने वाले बाण से रावण की ध्वजा छेद डाली ॥30॥ और क्रोध के भार से जिसका चित्त व्याप्त था ऐसे रावण ने भी एक तीक्ष्ण मुख बाण चलाकर विभीषण के धनुष के दो टुकड़े कर दिये ॥31॥ पश्चात् प्रतिकार करने में निपुण विभीषण ने शीघ्र ही दूसरा धनुष लेकर रावण के धनुष के दो टुकड़े कर दिये ॥32॥ इस प्रकार जब रावण और विभीषण के बीच अनेक वीरों का क्षय करने वाला महायुद्ध चल रहा था तब पिता का परम भक्त इंद्रजित् युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ॥33।। सो जिस प्रकार पर्वत समुद्र को रोकता है उसी प्रकार लक्ष्मण ने उसे रोका और कमललोचन राम ने भानुकर्ण को अपने आगे किया अर्थात् उससे युद्ध करना प्रारंभ किया ॥34।। नील, सिंहकटि (सिंहजधन) के सम्मुख गया, नल ने युद्ध शंभु का, दुर्मति ने स्वयंभू का, क्रोध से भरे दुर्मर्ष ने कुंभोदर का, दुष्ट ने इंद्रवज्र का, कांति ने चंद्रनख का, स्कंध ने भिन्नांजन का, विराधित राजा ने विघ्न का, देदीप्यमान केयूर के धारक अंगद ने प्रसिद्ध मय नामक महादैत्य का, हनुमान् ने कुंभकर्ण के पुत्र कुंभ का, सुग्रीव ने सुमाली का, भामंडल ने केतु का, दृढ़रथ ने काम का और क्षुब्ध ने क्षोभण नामक बलवान सामंत का सामना किया ॥35-38॥ इनके सिवाय बुलाने के शब्द से जिनके मुख शब्दायमान हो रहे थे ऐसे अन्य महायोधाओं ने भी परस्पर यथायोग्य युद्ध करना प्रारंभ किया ॥39।। उस समय योद्धाओं में परस्पर इस प्रकार के शब्द हो रहे थे कोई किसी से कहता था कि लो, इसके उत्तर में दूसरा कहता था कि मारो, आओ, मारो, जान से मार डालो, छेदो, भेदो, फेंक दो, उठो, बैठो, खड़े रहो, विदारण करो और धारण करो ।। 40 ।। बाँधो, फोड़ डालो, घसीटो, छोड़ो, चूर-चूर कर डालो, छोड़ो, नष्ट करो, सहन करो, देओ, पीछे हटो, संधि करो, उन्नत होओ, समर्थ बनो । तू क्यों डर रहा है ? मैं तुझे नहीं मारता, तुझे धिक्कार है, तू बड़ा कातर है, तुझे धिक्कार है, तू क्यों कंपित हुआ जा रहा है ? क्या तू भूल गया है ? कंपित मत हो, तू अकेला कहां जायेगा ? ।।41-42।। यह वह समय है जिसमें शूर और कायर का विचार किया जाता है । जैसा मीठा अन्न खाया है वै सारण में युद्ध नहीं कर रहे हो ॥43॥
इस प्रकार धीर-वीरों की गर्जना और तुरही के उन्नत शब्दों से दिशाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो रुधिर को वर्षा से अंधकारयुक्त तथा पागल हो चिल्ला ही रही हों ।। 44।। चक्र, शक्ति, गदा, यष्टि, कनक, आर्ष्टि और घन आदि शस्त्रों से आकाश उस प्रकार अत्यंत भयंकर हो गया मानो सबको निगलने के लिए दाँढ़े ही धारण कर रहा हो ॥45 ।। खून से लथपथ घायल सेना को देखकर ऐसा संदेह होता था कि क्या यह अशोक का लाल वन है ? या पलाश का कानन है, या पारिभद्र वृक्षों का वन है ? ।।46।। किसी का कवच टूट गया तथा उसके बंधन खुल गये, इसलिए उसने शीघ्र ही दूसरा कवच उस प्रकार धारण किया जिस प्रकार कि साधु पुरुष एक बार स्नेह के टूट जाने पर उसे शीघ्र ही पुनः धारण कर लेते हैं ॥47॥ कोई तेजस्वी योद्धा दाँतों के अग्रभाग से तलवार दबा तथा हाथों से कमर कसकर श्रमरहित हो फिर से युद्ध करने के लिए तैयार हो गया ॥48।। मदोन्मत्त हाथी के दंताग्र से जिसका वक्षःस्थल घायल हो गया था ऐसा कोई योद्धा हाथी के चंचल कानों से ऊपर उठे हुए कर्ण चामरों से वीजित हो रहा था ॥49॥ जिसने स्वामी का कर्तव्य पूरा किया था ऐसा कोई एक योद्धा निराकुल चित्त हो दोनों हाथ पसारकर हाथी के दाँतों के बीच सो रहा था ॥50॥ जिनसे खून के निर्झर झर रहे थे तथा जो गेरू के पर्वत के समान जान पड़ते थे ऐसे कितने हो योद्धाओं ने जलकणों की वर्षा के सिंचन से सचेत हो मूर्छा छोड़ी थी ॥51 ।। जो ओठ डंस रहे थे, हाथों में शस्त्र लिये थे और टेढ़ी भौंहों से जिनके मुख भयंकर दिख रहे थे ऐसे कितने ही योद्धा पृथिवी पर पड़कर प्राण छोड़ रहे थे ।। 52 ।। कितने ही धीर-वीर योद्धा ऐसे भी थे जो क्रोध का संकोच तथा शस्त्रों का त्याग कर परब्रह्म का ध्यान करते हुए प्राण छोड़ रहे थे ॥53॥ कितने ही प्रचंड वीर खीसों के अग्रभाग को हाथों से पकड़कर हाथियों के आगे झूला झूल रहे थे ॥54॥ जो रक्त की छटा छोड़ रहे थे तथा हाथों में शस्त्र धारण किये हुए थे, ऐसे सैकड़े उछलते कबंध― शिररहित धड़ अत्यंत भयंकर नृत्य कर रहे थे ॥55 ।। जिनके कवच जर्जर हो गये थे ऐसे कितने ही दुःखी योद्धा, जीवन को आशा से विमुख हो शस्त्र छोड़ पानी में घुस गये ॥56॥ इस तरह जब परस्पर महायोद्धाओं का क्षय करने वाला, लोक संत्रासकारी महायुद्ध हो रहा था तब इंद्रजित् तीक्ष्ण बाणों से लक्ष्मण को और लक्ष्मण इंद्रजित को आच्छादित करने में लीन थे ।। 57-58 ।। इंद्रजित् ने अत्यंत भयंकर महातामस नामक शस्त्र छोड़ा जिसे लक्ष्मण ने सूर्यास्त्र के द्वारा नष्ट कर दिया ॥59।। तदनंतर क्रोध से भरे इंद्रजित् ने नागबाणों के द्वारा रथ, शस्त्र तथा वाहन के साथ लक्ष्मण को वेष्टित करना प्रारंभ किया । तब लक्ष्मण ने गरुडास्त्र के द्वारा उस नागास्त्र को उस तरह दूर कर दिया जिस प्रकार कि महातपस्वी योगी पूर्वोपार्जित पापों के समूह को दूर कर देता है ॥60-61।। तदनंतर मंत्रि समूह के मध्य में स्थित तथा हाथियों के समूह से वेष्टित इंद्रजित् को लक्ष्मण ने रथरहित कर दिया ॥62॥ तब वचन तथा क्रिया से अपनी सेना की रक्षा करते हुए इंद्रजित् ने ऐसा तामसास्त्र छोड़ा कि जिसने महाअंधकार से रावण को छिपा लिया ॥63।। इसके बदले लक्ष्मण ने सूर्यास्त्र छोड़कर इंद्रजित् का मनोरथ नष्ट कर दिया और इच्छानुसार आकृति को धारण करने वाले नाग बाण छोड़े ॥64꠰। इनके फलस्वरूप संग्राम के लिए आते हुए इंद्रजित् का समस्त शरीर नागों के द्वारा व्याप्त हो गया और उनके कारण जिस प्रकार पहले भामंडल पृथिवी पर गिर पडा था उसी प्रकार वह भी पृथिवी पर गिर पडा ॥65 ।। उधर राम ने भी धीरे से सूर्यास्त्र को नष्ट कर तथा नागास्त्र को चलाकर युद्ध में भानुकर्ण को रथरहित कर दिया ॥66॥ पहले जिस प्रकार बाहुबली ने नमि के पुत्र श्री कंठ को जीतकर नागपाश से बाँध लिया था, उसी प्रकार राम ने भी भानुकर्ण को सब ओर से नागपाश से वेष्टित कर लिया जिससे वह पृथिवी तल पर गिर पडा ॥67॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! वे बाण बड़े ही विचित्र थे । जब वे धनुष पर चढ़ाये जाते थे तब बाणरूप रहते थे, चलते समय उल्का के समान मुख वाले हो जाते थे और शरीर पर जाकर नागरूप हो जाते थे ॥68।। वे बाण क्षणभर के लिए बाण हो जाते थे, क्षण-भर में दंडरूप हो जाते थे और क्षण-भर में नागपाश रूप हो जाते थे, यथार्थ में ये सब शस्त्रों के भेद देवोपनीत थे तथा मनचाहे रूप को धारण करने वाले थे ॥69।। आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार संसारी प्राणी कर्मरूपी पाश से वेष्टित रहता है, उसी प्रकार भानुकर्ण भी नागपाश से वेष्टित हो गया । तदनंतर राम की आज्ञा पाकर भामंडल ने उसे अपने रथ पर डाल लिया ॥70।। उधर जिसका शरीर बेचैन हो रहा था ऐसे नागपाश से बंधे हुए इंद्रजित् को भी लक्ष्मण की आज्ञा से विराधित ने अपने रथ पर रख लिया ॥71।।
उसी समय रण के मैदान में क्रोध से भरे रावण ने, चिरकाल तक रण क्रिया को सहन करने वाले विभीषण से कहा कि ॥72॥ यदि तू अपने आपको सचमुच ही रण की खाज से प्रचंड पुरुष मानता है तो मेरे इस एक प्रहार को झेल । 73 ।। इतना कहकर उसने निकलते हुए पीले तिलगों से आकाश को व्याप्त करने वाला शूल चलाया, सो लक्ष्मण ने उसे अपने बाणों से बीच में ही समाप्त कर दिया ॥74꠰꠰ उस अत्यंत भयंकर शल नामक शस्त्र को भस्मीकृत देख रावण ने अत्यंत कुपित हो भयानक शक्ति उठायी ॥75 ।। रावण शक्ति उठाकर ज्यों ही सामने देखता है तो उसे आगे खड़े हुए, तरुण नील कमल के समान श्याम, देदीप्यमान पुरुषोत्तम, लक्ष्मण दिखाई दिये ॥76 ।। लक्ष्मण को देख प्रलयकालीन मेघसमूह के समान गंभीर शब्द करने वाला रावण ताड़न करते हुए के समान इस प्रकार बोला ॥77॥ कि जब मैंने दूसरे का ही वध करने के लिए शस्त्र उठाया है तब तुझे मेरे निकट खड़े होने का क्या अधिकार है ? ॥78।। अथवा रे मूर्ख लक्ष्मण ! यदि तू मरना ही चाहता है तो सीधा खड़ा हो और मेरा यह प्रहार झेल ॥79।। यह सुन मानी लक्ष्मण भी कठिनाई से विभीषण को अलग कर जो चिरकाल तक युद्ध करने से खेदखिन्न हो गया था ऐसे रावण के सम्मुख दौड़ा ।। 80 ।।
तदनंतर क्रोध के भार से भरे रावण ने जिससे ताराओं के समान तिलगों का समूह निकल रहा था ऐसी शक्ति चलायी और जिसका चलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता तथा जो अत्यंत देदीप्यमान थी ऐसी उस शक्ति से महापर्वत के तट के समान लक्ष्मण का वक्षःस्थल खंडित हो गया ॥81-82 ।। लक्ष्मण के वक्षस्थल पर लगी देदीप्यमान आकृति से मनोहर वह शक्ति, परम प्रेम से लिपटी स्त्री के समान सुशोभित हो रही थी॥83 ।। जो गाढ़ प्रहार जन्य दुःख से दुःखी थे तथा जिनका शरीर विवश हो गया था ऐसे लक्ष्मण वज्र से ताड़ित पर्वत के समान पृथिवी पर गिर पड़े ॥84॥ उन्हें भूमि पर पड़े देख कमललोचन राम, तीव्र शोक को रोककर शत्रु का घात करने के लिए उद्यत हुए ॥85।। सिंह जुते रथ पर बैठे एवं क्रोध से भरे बलवान् राम ने सामने जाते ही शत्रु को रथ रहित कर दिया ।। 86 ।। जब तक वह दूसरे रथ पर चढ़ता है तब तक राम ने उसका धनुष तोड़ दिया । तदनंतर वह जब तक दूसरा धनुष उठाता है तब तक उसे पुनः रथ रहित कर दिया ।।87।। राम के बाणों से ग्रस्त हुआ रावण इतना विह्वल हो गया कि वह न तो बाण ग्रहण करने के लिए समर्थ था और न धनुष ही ॥88।। यद्यपि राम ने तीव्र बाणों के द्वारा रावण को पृथिवी पर लिटा दिया था तथापि वह खेद-खिन्न हो पुनः दूसरे रथ पर आरूढ़ हो गया ।।89।। इस प्रकार यद्यपि राम ने छह बार उसका धनुष तोड़ा तथा छह बार उसे रथ रहित किया तथापि आश्चर्य से भरा रावण जीता नहीं जा सका ।।90॥ तब परम आश्चर्य को प्राप्त हुए राम ने उससे कहा कि आप जब इस तरह मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए तब अल्पायुष्क नहीं हो, यह निश्चित है ॥91॥ मैं समझता हूँ कि मेरी भुजाओं से छोड़े हुए वेगशाली तीक्ष्ण मुख बाणों से पहाड़ भी ढह जाते हैं फिर दूसरे की तो बात ही क्या है ॥92।। इतना होने पर भी जंमांतर में संचित पुण्य कर्म ने तेरी रक्षा की है । अब हे विद्याधर राज ! सुन, मैं तुझ से कुछ वचन कहता हूँ ।। 23 ।। संग्राम में सामने आये हुए मेरे जिस भाई को तूने शक्ति के द्वारा घायल किया है वह मरने के सम्मुख है, यदि तू अनुमति दे तो उसका मुख देख लूँ ॥94 ।। तदनंतर जो प्रार्थना भंग करने में दरिद्र था और इंद्र के समान जिसकी शोभा बढ़ रही थी ऐसा रावण एवमस्तु कहकर वैभव के साथ लंका की ओर चला गया ॥95॥ यह एक महाबलवान् शत्रु तो मेरे द्वारा मारा गया इस प्रकार हृदय में कुछ धैर्य को प्राप्त हुए रावण ने अपने भवन में प्रवेश किया ॥96॥ पराक्रमी मनुष्यों के साथ स्नेह रखने वाले धीर वीर रावण ने घायल योद्धाओं की खोज कराकर उनकी ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा तथा इस तरह उनका खेद दूर कर अंतःपुर में प्रवेश किया ॥97।। भाई कुंभकर्ण और युद्ध करने वाले इंद्रजित् तथा मेघवाहन नामक दो पुत्रों को शत्रु के पास रुका सुन रावण शोक करने लगा परंतु प्रिय जनों की ओर देखते हुए उसने उन्हें शीघ्र ही छुड़ाने की आशा की ॥98॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! नाना प्रकार के भावों को धारण करने वाले जीव, अपने विविध आचरणों के अनुरूप पूर्व भवों में जो कर्म का संचय करते हैं उन्हें उसका उदय अवश्य ही भोगना पड़ता है और उसके उदय के अनुरूप ही वे इस जन्म में निरंतर नाना प्रकार का फल भोगते हैं ॥99।। इस संसार में कर्मयोग से कोई नाश को प्राप्त होता है, कोई धीर-वीर शत्रु को नष्ट कर अपने पद को प्राप्त होता है, कोई अपनी विशाल शक्ति के निष्फल हो जाने से बंधन को प्राप्त होता है और कोई सूर्य के समान योग्य पदार्थों को प्रकाशित करने में समर्थ होता है ।। 100 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में लक्ष्मण के शक्ति लगने के दुःख का वर्णन करने वाला बासठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥62॥