ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 63
From जैनकोष
तिरेसठवाँ पर्व
अथानंतर जिनका चित्त अत्यंत व्याकुल हो रहा था तथा जो शोक से पीड़ित हो रहे थे ऐसे श्रीराम उस स्थानपर पहुँचे जहाँ लक्ष्मण पड़े थे ।। 1 ।। जिनका वक्षःस्थल शक्ति से आलिंगित था ऐसे पृथिवीतल के अलंकारस्वरूप लक्ष्मण को निश्चेष्ट देख राम मूर्च्छा को प्राप्त हो गये ॥2॥ चिरकाल बाद जब सचेत हुए तव महाशोक से युक्त एवं दुःखरूपी अग्नि से जलते हुए अत्यंत विलाप करने लगे ॥3॥ वे कहने लगे कि हाय वत्स ! तू कर्मयोग से इस दुर्लध्य सागर को उल्लंघ कर अब इस अत्यंत कठिन दशा को प्राप्त हआ है ॥4॥ अये वत्स ! तु सदा मेरी भक्ति में सचेष्ट रहता था और मेरे कार्य के लिए सदा तत्पर रहता था, अतः शीघ्र ही मुझे वचन दे― मुझ से वार्तालाप कर, मौन से क्यों बैठा है ? ॥5 ।। तू यह तो जानता ही है कि मैं तेरा वियोग मुहूर्त-भर के लिए भी सहन नहीं कर सकता हूँ अतः उठ आलिंगन कर, तेरा वह आदर कहाँ गया ? ॥6॥ आज बाजूबंद से सुशोभित मेरी ये लंबी भुजाएँ नाममात्र की रह गयीं, तेरे बिना सर्वथा निष्फल और निष्क्रिय हो गयीं ॥7॥ माता-पिता आदि गुरुजनों ने तुझे धरोहर के रूप में प्रयत्नपूर्वक मेरे लिए सौंपा था, अब मैं लज्जारहित हुआ जाकर उन्हें क्या उत्तर दूंगा ? ॥8॥ प्रेम से भरे समस्त लोग अत्यंत उत्सुक हो मुझ से पूछेंगे कि लक्ष्मण कहाँ है ? लक्ष्मण कहाँ है ? ॥9॥॥ तू वीर पुरुषों में रत्न के समान था सो तुझे हराकर मैं पुरुषार्थहीन उआ अपने जीवन को नष्ट हुआ समझता हूँ ॥10॥ भवांतर में जो मैंने दुष्कृत-पाप कर्म किया था वह इस समय उदय में आ रहा है । और उसी का फल मुझे प्राप्त हुआ है, हे भाई ! मुझे तेरे विना सीता से क्या प्रयोजन है ? ॥11 ।। मुझे उस सीता से क्या प्रयोजन है जिसके लिए निर्दय― -रावण के द्वारा चलायी हई शक्ति से तेरा वक्षःस्थल विदीर्ण हुआ है तथा मैं कठोर हृदय हो तुझे पृथिवी पर सोया हुआ देख रहा हूँ ॥12॥ इस संसार में पुरुष को काम और अर्थ तथा नाना प्रकार के संबंध सर्वत्र सुलभ हैं ॥13 ।। समस्त पृथिवी में घूम कर मैं वह स्थान नहीं देख सका जिसमें भाई, माता तथा पिता पुनः प्राप्त हो सकते हों ॥14॥ हे विद्याधरों के राजा सुग्रीव ! तुमने अपनी मित्रता दिखायी । अब अपने देश जाओ । इसी तरह हे भामंडल ! तुम भी अपने देश जाओ ।। 15 ।। इसमें संशय नहीं कि मैं प्रिया जानकी के समान जीवन की आशा छोड़ कल भाई के साथ अग्नि में प्रवेश करूँगा ॥16 ।। हे विभीषण ! मुझे सीता तथा छोटे भाई के वियोग से उत्पन्न हुआ शोक उस प्रकार पीड़ा नहीं पहुँचा रहा है जिस प्रकार कि तुम्हारा कुछ उपकार नहीं कर सकना ॥17॥ उत्तम मनुष्य कार्य के पूर्व तथा मध्यम मनुष्य कार्य के पश्चात् उपकार करते हैं परंतु जो कार्य के पीछे भी उपकार नहीं करते हैं उन दुष्टों में नीचता का ही निवास समझना चाहिए ॥18॥ हे विभीषण ! तू साधु पुरुष है । तूने मेरा पहले उपकार किया और मेरे पीछे बंधु से विरोध किया है फिर भी मैं तेरा कुछ भी उपकार नहीं कर सका इससे मन ही मन जल रहा हूँ ॥19॥ हे भामंडल और सुग्रीव ! शीघ्र ही चिता बनाओ । मैं परलोक जाऊँगा, आप दोनों अपने योग्य कार्य करो । जिसमें तुम्हारा कल्याण हो सो करो ॥20॥
तदनंतर राम ने लक्ष्मण के स्पर्श करने की इच्छा की सो उन्हें महाबुद्धिमान् जांबूनद ने मना किया ।। 2 ।। उसने कहा कि हे देव ! दिव्य अस्त्र से मूर्च्छित लक्ष्मण को मत छुओ क्योंकि ऐसा करने से प्रायः प्रमाद हो जाता है । इन दिव्य अस्त्रों की ऐसी ही स्थिति है ।। 22 ।। आप धीरता को प्राप्त होओ, कातरता जोड़ो, विपत्ति में पड़े हुए लोगों के प्रतीकार इस संसार में अधिकांश विद्यमान हैं ।। 23 ।। क्षुद्र मनुष्यों के योग्य विलाप करना इसका प्रतीकार नहीं है, हृदय को यथार्थ में धैर्य युक्त किया जाये ॥24।। हे देव ! इसका कोई न कोई उपाय अवश्य होगा और तुम्हारा भाई जीवित होगा क्योंकि यह नारायण है, नारायण का असमय में मरण नहीं होता ।। 25 ।। तदनंतर विषाद से भरे सब विद्याधर राजा उपाय के चिंतन में तत्पर हो मन में इस प्रकार विचार करने लगे कि यह दिव्य शक्ति औषधियों के द्वारा दूर नहीं की जा सकती और सूर्योदय होने पर लक्ष्मण बड़ी कठिनाई से जीवित रह सकेंगे अर्थात् सूर्योदय के पूर्व इसका प्रतीकार नहीं किया गया तो जीवित रहना कठिन हो जायेगा ॥26-27॥
तदनंतर किंकरों ने आधे निमेष में ही शिर रहित धड़ आदि को हटाकर उस युद्धभूमि को शुद्ध किया और वहाँ कपड़े के ऊँचे-ऊँचे डेरे-कनातें तथा मंडप आदि खड़े कर दिये ।। 28 ।। उस भूमि को सात चौकियों से युक्त किया, दिशाओं में आवागमन बंद किया और कवच तथा धनुष को धारण करने वाले योद्धाओं ने बाहर खड़े रह उसकी रक्षा की ॥29।। पहले गोपुर पर धनुष हाथ में लेकर नील बैठा, दूसरे गोपुर में गदा हाथ में धारण करने वाला मेघ तुल्य नल खड़ा हुआ, तीसरे गोपुर में हाथ में शूल धारण करने वाला उदारचेता विभीषण खड़ा हुआ । वहाँ जिसकी मालाओं में लगे नाना प्रकार के रत्नों की किरणें सब ओर फैल रही थीं ऐसा विभीषण ऐशानेंद्र के समान सुशोभित हो रहा था ॥30-31 ।। कवच और तरकस को धारण करने वाला कुमुद चौथे गोपुर पर खड़ा हुआ । पांचवें गोपुर में भाला हाथ में लिये प्रतापी सुषेण खड़ा हुआ ॥32॥ जिसकी भुजाएँ अत्यंत स्थूल थीं और भिंडिमाल नामक शस्त्र से इंद्र के समान जान पड़ता था ऐसा वीर सुग्रीव स्वयं छठवें गोपुर में सुशोभित हो रहा था । तथा सातवें गोपुर में बड़े-बड़े शत्रु राजाओं की सेना को मौत के घाट उतारने वाला भामंडल स्वयं तलवार खींचकर खड़ा था ॥33-34 ।। पूर्व द्वार के मार्ग में शरभ चिह्न से चिह्नित ध्वजा को धारण करने वाला शरभ पहरा दे रहा था, पश्चिम द्वार में जांबव कुमार सुशोभित हो रहा था और मंत्रि समूह से युक्त उत्तर द्वार को घेरकर चंद्ररश्मि नाम का बालि का महाबलवान् पुत्र खड़ा हुआ था ॥35-36।। इस प्रकार प्रयत्नशील विद्याधर राजाओं के द्वारा रची हुई वह भूमि, निर्मल नक्षत्रों के समूह से आकाश के समान अत्यंत सुशोभित हो रही थी ॥37 ।। इनके सिवाय युद्ध से नहीं लौटने वाले जो अन्य वानरध्वज राजा थे वे सब दक्षिण दिशा को व्याप्त कर खड़े हो गये ॥38॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! जिन्होंने इस प्रकार प्रयत्न कर योग्य रक्षा की थी, जिन्हें लक्ष्मण के जीवित होने में संदेह था, जो आश्चर्य से युक्त थे, बहुत भारी शोक से सहित थे एवं मानी थे ऐसे सब विद्याधर राजा यथास्थान खड़े हो गये ॥39॥ अपने ही द्वारा अजित कर्मरूपी सूर्य के प्रकाश स्वरूप जो फल मनुष्यों को प्राप्त होने वाला है उसे न मनुष्य दूर कर सकते हैं, न घोड़े, न हाथी, और न देव भी ॥40॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में शक्तिभेद एवं रामविलाप का वर्णन करने वाला तिरेसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥63॥