ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 72
From जैनकोष
बहत्तरवां पर्व
अथानंतर रावण की अठारह हजार स्त्रियां एक साथ रुदन करती उसके चरणों में पड़कर निम्न प्रकार मधुर शब्द कहने लगीं ॥1॥ उन्होंने कहा हे नाथ ! समस्त विद्याधरों के अधिपति जो आप सो आपके विद्यमान रहते हुए भी बालक अंगद ने आकर आज हम सबको अपमानित किया है ॥2॥ तेज के उत्तम स्थान स्वरूप आपके ध्यानारूढ़ रहने पर वह नीच विद्याधररूपी जुगनू विकारभाव को प्राप्त हुआ ।। 3 ।। आपके सामने सुग्रीव के दुष्ट बालक ने नि:शंक हो हम लोगों की जो दशा की है उसे आप देखो ॥4 ।। उन स्त्रियों के वचन सुनकर जो उन्हें सांत्वना देने में तत्पर था तथा जिसकी दृष्टि निर्मल थी ऐसा रावण कुपित होता हुआ बोला कि हे देवियो ! दुःख छोड़ो और प्रकृतिस्थ होओ― शांति धारण करो । वह जो ऐसी चेष्टा करता है सो निश्चित जानो कि वह मृत्यु के पाश में बद्ध हो चुका है ॥5-6॥ हे वल्लभाओ ! मैं कल ही रणांगण में सुग्रीव को निर्ग्रीव― ग्रीवारहित और प्रभामंडल को तमोमंडलरूप कर दूंगा ॥7॥ कीट के समान तुच्छ उन भूमिगोचरियों राम लक्ष्मण के ऊपर क्या क्रोध करना है ? किंतु उनके पक्ष पर एकत्रित हुए जो समस्त विद्याधर हैं उन्हें अवश्य मारूँगा ।। 8 ।। हे प्रिय स्त्रियों ! शत्रु तो मेरी भौंह के इशारे मात्र से साध्य हैं फिर अब तो बहुरूपिणी विद्या सिद्ध हुई अतः उससे वशीभूत क्यों न होंगे ? ॥6॥ इस प्रकार उन स्त्रियों को सांत्वना देकर रावण ने मन में सोचा कि अब तो मैंने शत्रुओं को मार लिया । तदनंतर जिनमंदिर से निकलकर वह स्नान आदि शरीर संबंधी कार्य करने में लीन हुआ ॥10॥
अथानंतर जिसमें नाना प्रकार के वादित्रों से आनंद मनाया जा रहा था तथा जो नाना प्रकार के अद्भुत नृत्यों से सहित था ऐसा, कामदेव के समान सुंदर रावण का स्नान-समारोह संपन्न हुआ ॥11 ।। जो कांतिरूपी चाँदनी में निमग्न होने के कारण श्यामा अर्थात् रात्रि के समान जान पड़ती थी ऐसी कितनी ही श्यामा अर्थात् नवयौवनवती स्त्रियों ने पूर्णचंद्र के समान चाँदी के कलशों से उसे स्नान कराया ॥12॥ कमल के समान कांति वाली होने से जो प्रातः संध्या के समान जान पड़ती थी ऐसी कितनी ही स्त्रियों ने बालसूर्य के समान देदीप्यमान स्वर्णमय कलशों से आदरपूर्वक उसे नहलाया था ॥13॥ कुछ अन्य स्त्रियों ने नीलमणि से निर्मित उत्तम कलशों से उसे स्नान कराया था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो कमल के पत्र पुटों से लक्ष्मी नामक देवियों ने ही स्नान कराया हो ।। 14 ।। कितनी ही स्त्रियों ने प्रातःकालीन घाम के समान लाल वर्ण के कलशों से, कितनी ही स्त्रियों ने कदलीवन के भीतरी भाग के समान सफेद रंग के कलशों से तथा कितनी ही स्त्रियों ने सुगंधि के द्वारा भ्रमर समूह को आकर्षित करने वाले अन्य कलशों से उसे नहलाया था ।। 15 ।। स्नान के पूर्व उत्तम लीलावती स्त्रियों ने उससे नाना प्रकार के सुगंधित उबटनों से उबटन लगाया था और उसके बाद उसने नाना प्रकार के मणियों की फैलती हुई कांति से युक्त उत्तम आसन पर बैठकर स्नान किया था ॥16 ।। स्नान करने के बाद उसने अलंकार धारण किये और तदनंतर उत्तम भावों से युक्त हो श्रीशांति-जिनालय में पुनः प्रवेश किया ।। 17 । वहाँ उसने स्तुति में तत्पर रहकर चिरकाल तक अर्हंत भगवान् की उत्तम पूजा की, मन, वचन, काय से प्रणाम किया और उसके बाद भोजनगृह में प्रवेश किया ॥18॥ वहाँ चार प्रकार का उत्तम आहार कर वह विद्या की परीक्षा करने के लिए क्रीडाभूमि में गया ॥19॥ वहाँ उसने विद्या के प्रभाव से अनेक रूप बनाये तथा नाना प्रकार के ऐसे आश्चर्यजनक कार्य किये जो अन्य विद्याधरों को दुर्लभ थे ॥20॥ उसने पृथ्वी पर इतने जोर से हाथ पटका कि पृथ्वी काँप उठी और उस पर स्थित शत्रुओं के शरीर घूमने लगे तथा शत्रु सेना भयभीत हो मरण की शंका से चिल्लाने लगी ॥21॥ तदनंतर विद्या की परीक्षा कर चुकने वाले रावण से मंत्रियों ने कहा कि हे नाथ ! इस समय आपको छोड़ और कोई दूसरा राम को मारने वाला नहीं है ॥22॥ रणांगण में कुपित हो बाण छोड़ने वाले राम के सामने खड़ा होने के लिए आपके सिवाय और कोई दूसरा समर्थ नहीं है ॥23॥
अथानंतर बड़ी-बड़ी ऋद्धियों से संपन्न रावण, विद्या के प्रभाव से एक बड़ी सेना बना, चक्ररत्न को धारण करता हुआ उस प्रमद नामक उद्यान की ओर चला जहाँ सीता का निवास था ॥24॥ उस समय धीरवीर मंत्रियों से घिरा हुआ रावण ऐसा जान पड़ता था मानो देवों से घिरा हुआ इंद्र ही हो । अथवा जो बिना किसी रोक-टोक के चला आ रहा था ऐसा रावण सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था ॥25॥ । उसे आता देख विद्याधरियों ने कहा कि हे शुभे ! सीते ! देख, रावण की महाकांति देख ॥26॥ जो नाना धातुओं से चित्र-विचित्र हो रहा है ऐसे पुष्पक विमान से उतरकर यह श्रीमान् महाबलवान् ऐसा चला आ रहा है मानो पर्वत की गुफा से निकलकर सूर्य की किरणों से संतप्त हुआ उन्मत्त गजराज ही आ रहा हो । इसका समस्त शरीर कामाग्रि से व्याप्त है तथा यह पूर्णचंद्र के समान मुख को धारण कर रहा है ॥27-28॥ यह फूलों की शोभा से व्याप्त तथा भ्रमरों के संगीत से मुखरित प्रमद उद्यान में प्रवेश कर रहा है । जरा, इस पर दृष्टि तो डालो ॥29॥ अनुपम रूप को धारण करने वाले इस रावण को देखकर तेरी दृष्टि सफल हो जावेगी । यथार्थ में इसका रूप ही उत्तम है ॥30॥ तदनंतर सीता ने निर्मल दृष्टि से बाहर और भीतर धनुष के द्वारा अंधकार उत्पन्न करने वाले रावण का बल देख इस प्रकार विचार किया कि इसके इस प्रचंड बल का पार नहीं है । राम और लक्ष्मण भी इसे युद्ध में बड़ी कठिनाई से जीत सकेंगे ॥31-32॥ मैं बड़ी अभागिनी हूँ, बड़ी पापिनी हूँ जो युद्ध में राम-लक्ष्मण अथवा भाई भामंडल के मरने का समाचार सुनूंगी ॥33॥ इस प्रकार चिंता को प्राप्त होने से जिसकी आत्मा अत्यंत विह्वल हो रही थी, तथा जो भय से काँप रही थी ऐसी सीता के पास आकर रावण बोला कि हे देवि ! मुझ पापी ने तुम्हें छल से हरा था सो क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए सत्पुरुषों के लिए क्या यह उचित है ? ॥34-35॥ जान पड़ता है कि किसी अवश्यंभावी कर्म की यह दशा है अथवा परम स्नेह और सातिशय बलवान मोह का यह परिणाम है ॥36॥ मैंने पहले अनेक मुनियों के सन्निधान में वंदनीय श्री भगवान् अनंतवीर्य केवली के पादमूल में यह व्रत लिया था कि जो स्त्री मुझे नहीं वरेगी मैं उसके साथ रमण नहीं करूँगा भले ही वह उर्वशी, रंभा अथवा और कोई मनोहारिणी स्त्री हो ॥37-38॥ हे जगत् की सर्वोत्तम सुंदरि ! इस सत्यव्रत का पालन करता हुआ मैं तुम्हारे प्रसाद की प्रतीक्षा करता रहा हूँ और बलपूर्वक मैंने तुम्हारा रमण नहीं किया है ॥36॥ हे वैदेहि ! अब मेरी भुजाओं से प्रेरित बाणों से तुम्हारा आलंबन जो राम था सो छिन्न होने वाला है इसलिए पुष्पक विमान में आरूढ़ हो अपनी इच्छानुसार जगत् में विहार करो ॥40॥ सुमेरु के शिखर, अकृत्रिम चैत्यालय, समुद्र और महानदियों को देखती हुई अपने आपको सुखी करो ॥41॥
तदनंतर अश्रुओं के भार से जिसका कंठ रुंध गया था ऐसी सीता बड़े कष्ट से आदरपूर्वक हाथ जोड़ करुण स्वर में रावण से बोली ॥42॥ कि हे दशानन ! यदि मेरे प्रति तुम्हारी प्रीति है अथवा मुझ पर तुम्हारी प्रसन्नता है तो मेरा यह वचन पूर्ण करने के योग्य हो ॥43।। युद्ध में राम तुम्हारे सामने आवे तो कुपित होने पर भी तुम मेरा संदेश कहे बिना उन्हें नहीं मारना ॥44॥ उनसे कहना कि हे राम ! भामंडल की बहिन ने तुम्हारे लिए ऐसा संदेश दिया है कि कर्मयोग से तुम्हारे विषय की युद्ध में अन्यथा बात सुन महात्मा राजर्षि जनक की पुत्री सीता, अत्यधिक शोक के भार से आक्रांत होती हुई आँधी से ताड़ित दीपक की शिखा के समान क्षणभर में शोचनीय दशा को प्राप्त हुई है । हे प्रभो! मैंने जो अभी तक प्राण नहीं छोड़े हैं सो आपके समागम की उत्कंठा से ही नहीं छोड़े हैं ।।45-47॥ इतना कह वह मूर्छित हो नेत्र बंद करती हुई उस तरह पृथिवी पर गिर पड़ी जिस तरह कि मदोन्मत्त हाथी के द्वारा खंडित सुवर्णमयी कल्पलता गिर पड़ती है ॥48॥
तदनंतर सीता की वैसी दशा देख कोमल चित्त का धारी रावण परम दुःखी हुआ तथा इस प्रकार विचार करने लगा कि अहो ! कर्मबंध के कारण इनका यह स्नेह निकाचित स्नेह है-―कभी छूटने वाला नहीं है । जान पड़ता है कि इसका संसाररूपी गर्त में रहते कभी अवसान नहीं होगा ॥46-50।। मुझे बार-बार धिक्कार है मैंने यह क्या निंदनीय कार्य किया जो परस्पर प्रेम से युक्त इस मिथुन का विछोह कराया ॥51॥ मैं अत्यंत पापी हूँ बिना प्रयोजन ही मैंने साधारण मनुष्य के समान सत्पुरुषों से अत्यंत निंदनीय अपयशरूपी मल प्राप्त किया है ॥52॥ मुझ दुष्ट ने कमल के समान शुद्ध विशाल कुल को मलिन किया है । हाय-हाय मैंने यह अकार्य कैसे किया ? ॥53॥ जो बड़े-बड़े पुरुषों को सहसा मार डालती है, जो किंपाकफल के समान है तथा दुःखों की उत्पत्ति की भूमि है ऐसी स्त्री को धिक्कार है ॥54॥ सामान्यरूप से स्त्रीमात्र, नागराज के फण पर स्थित मणि की कांति के समान मोह उत्पन्न करने वाली है और परस्त्री विशेषरूप से मोह उत्पन्न करने वाली है ॥55॥ यह नदी के समान कुटिल है, भयंकर है, धर्म अर्थ को नष्ट करने वाली है, और समस्त अशुभों की खानि है । यह सत्पुरुषों के द्वारा प्रयत्नपूर्वक छोड़ने के योग्य है ॥56॥ जो सीता पहले इतनी मनोहर थी कि दिखने पर मानो अमृत से ही मुझे सींचती थी और समस्त देवियों से भी अधिक प्रिय जान पड़ती थी आज वही परासक्त हृदया होने से विषभृत कलशी के समान मुझे अत्यंत उद्वेग उत्पन्न कर रही है ॥57-58॥ नहीं चाहने पर भी जो पहले मेरे मन को अशून्य करती थी अर्थात् जो मुझे नहीं चाहती थी फिर भी मैं मन में निरंतर जिसका ध्यान किया करता था वही आज जीर्णतृण के समान अनादर को प्राप्त हुई है ॥56॥ अन्य पुरुष में जिसका चित्त लग रहा है ऐसी यह सीता यदि मुझे चाहती भी है तो सद्भाव से रहित इससे मुझे क्या प्रीति हो सकती है ? ॥60॥ जिस समय मेरा विद्वान भाई विभीषण, मेरे अनुकूल था तथा उसने हित का उपदेश दिया था उस समय यह दुष्ट मन इस प्रकार शांति को प्राप्त नहीं हुआ ॥61॥ अपितु उसके उपदेश से प्रमाद के वशीभूत हो उल्टा विकारभाव को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है क्योंकि प्रायःकर पुण्यात्मा पुरुषों का ही मन वश में रहता है ॥62॥
यह विचार करने के अनंतर रावण ने पुनः विचार किया कि कल संग्राम करने के विषय में मंत्रियों के साथ मंत्रणा की थी फिर इस समय वीर लोगों के द्वारा निंदित मित्रता की चर्चा कैसी ? ॥63॥ युद्ध करना और करुणा प्रकट करना ये दो काम विरुद्ध हैं । अहो ! मैं एक साधारण पुरुष की तरह इस महान संकट को प्राप्त हुआ हूँ ॥64॥ यदि मैं इस समय दयावश राम के लिए सीता को सौंपता हूँ तो लोग मुझे असमर्थ समझेंगे क्योंकि सबके चित्त को समझना कठिन है ॥65 ।। जो चाहे जो करने में स्वतंत्र है ऐसा निर्दय मनुष्य सुख से जीवन बिताता और जिसका मन दया से कोमल है ऐसा मेरे समान पुरुष दुःख से जीवन काटता है ॥66॥ यदि मैं सिंहवाहिनी और गरुडवाहिनी विद्याओं से युक्त राम-लक्ष्मण को युद्ध में निरस्त कर जीवित पकड़ लूँ और पश्चात् वैभव के साथ राम के लिए सीता को वापिस सौंपूं तो ऐसा करने से मुझे संताप नहीं होगा ।।67-68 ।। साथ ही भय और अन्याय से उत्पन्न हुआ बहुत भारी लोकापवाद भी नहीं होगा अतः मैं निश्चिंत चित्त होकर ऐसा ही करता हूँ ॥69 ।। मन से इस प्रकार निश्चय कर महावैभव से युक्त रावणरूपी हाथी अंतःपुररूपी कमलवन में चला गया ।।70।।
तदनंतर शत्रु की ओर से उत्पन्न महान् परिभव का स्मरण कर रावण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये और वह स्वयं यमराज के समान भयंकर हो गया ॥71॥ जिसका ओठ काँप रहा था ऐसा रावण वह वचन बोला कि जिससे स्त्रियों के बीच में अत्यंत दुःसह ज्वर उत्पन्न हो आया ॥72॥ उसने कहा कि मैं युद्ध में अंगद सहित उस पापी दुर्ग्रीव को पकड़कर किरणों से हँसने वाला तलवार से उसके दो दुकड़े अभी हाल करता हूँ ॥73॥ उस भामंडल को पकड़कर तथा अच्छी तरह बाँधकर लोह के मुद्गरों की मार से उसके प्राण घुटाऊँगा ॥74॥ और अन्यायी हनूमान् को दो लकड़ियों के सिकंजे में कसकर अत्यंत तीक्ष्ण धार वाली करोंत से चीरूँगा ॥75॥ एक राम को छोड़कर मर्यादा का उल्लंघन करने वाले जितने अन्य दुराचारी दुष्ट शत्रु हैं उन सबको युद्ध में शस्त्र-समूह से चूर-चूर कर डालूँगा ॥76॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मगधेश्वर ! जब रावण उक्त प्रकार का निश्चय कर रहा था तब निमित्तज्ञानियों के मुखों में निम्न प्रकार के वचन विचरण कर रहे थे अर्थात् वे परस्पर इस प्रकार की चर्चा कर रहे थे कि ।।77॥ देखो, ये सैकड़ों प्रकार के उत्पात हो रहे हैं । सूर्य के चारों ओर शस्त्र के समान अत्यंत रूक्ष परिवेष-परिमंडल रहता है ॥78॥ पूरी की पूरी रात्रि भर चंद्रमा भय से ही मानों कहीं छिपा रहता है, भयंकर वज्रपात होते हैं, अत्यधिक भूकंप होता है ॥79।। पूर्व दिशा में काँपती हुई रुधिर के समान लाल उल्का गिरी थी और उत्तरदिशा में शृंगाल नीरस शब्द कर रहे थे ॥80 ।। घोड़े ग्रीवा को कंपाते तथा प्रखर शब्द करते हुए हींसते हैं और हाथी कठोर शब्द करते हुए सूंड से पृथिवी को ताड़ित करते हैं अर्थात् पृथिवी पर सूंड पटकते हैं ॥81॥ देवताओं की प्रतिमाएँ अश्रुजल की वर्षा के लिए दुर्दिन स्वरूप बन गई हैं । बड़े-बड़े वृक्ष बिना किसी दृष्ट कारण के गिर रहे हैं ॥82॥ सूर्य के सन्मुख हुए कौए अत्यंत तीक्ष्ण शब्द कर रहे हैं, अपने झुंड को छोड़ अलग-अलग जाकर बैठे हैं, उनके पंख ढीले पड़ गये हैं तथा वे अत्यंत व्याकुल दिखाई देते हैं ॥83॥ बड़े से बड़े तालाब भी अचानक सूख गये हैं । पहाड़ों की चोटियाँ नीचे गिरती हैं, आकाश रुधिर की वर्षा करता है ।।84॥ प्रायः ये सब उत्पात थोड़े ही दिनों में स्वामी के मरण की सूचना दे रहे हैं क्योंकि पदार्थों में इस प्रकार के अन्यथा विकार होते नहीं हैं ।।85।। अपने पुण्य के क्षीण हो जाने पर इंद्र भी तो च्युत हो जाता है । यथार्थ में जन-समूह कर्मों के अधीन है और पुरुषार्थ गुणीभूत है― अप्रधान है ।।86॥ जो वस्तु प्राप्त होने वाली है वह प्राप्त होती ही है उससे दूर नहीं भागा जा सकता । दैव के रहते प्राणियों की कोई शूरवीरता नहीं चलती उन्हें अपने किये का फल भोगना ही पड़ता है ॥87॥ देखो, जो समस्त नीतिशास्त्र में कुशल है , लोकतंत्र को जानने वाला है, जैन व्याख्यान का जानकार है और महागुणों से विभूषित है ऐसा रावण इस प्रकार का होता हुआ भी स्वकृत कर्मों के द्वारा कैसा चक्र में डाला गया कि हाय, बेचारा विमूढ़ बुद्धि हो उन्मार्ग में चला गया ।।88-89।। संसार में मरण से बढ़कर कोई दुःख नहीं है पर देखो, अत्यंत गर्व से भरा रावण उस मरण की भी चिंता नहीं कर रहा है ।।90।। यह यद्यपि नक्षत्र बल से रहित है तथा कुटिल-पापग्रहों से पीड़ित है तथापि मूर्ख हुआ रणभूमि में जाना चाहता है ॥91॥ यह प्रताप के भंग से भयभीत है, एक वीररस की ही भावना से युक्त है तथा शास्त्रों का अभ्यास यद्यपि इसने किया है तथापि युक्त-अयुक्त को नहीं देखता है ॥92॥ अथानंतर गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे महाराज ! अब मैं मानी रावण के मन में जो बात थी उसे कहता हूँ तू यथार्थ में सुन॥ 93।। रावण के मन में था कि सब लोगों को जीतकर तथा पुत्र और भाई को छुड़ाकर मैं पुनः लंका में प्रवेश करूँ ? और यह सब पीछे करता रहूँ ॥94॥ इस पृथिवी तल में जितने क्षुद्र भूमिगोचरी हैं मैं उन सबको यहाँ से हटाऊँगा और प्रशंसनीय जो विद्याधर हैं, उन्हें ही यहाँ बसाऊँगा ॥95॥ जिससे कि तीनों लोकों के नाथ के द्वारा स्तुत तीर्थंकर जिनेंद्र, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण तथा हमारे जैसे पुरुष इसी वंश में जन्म ग्रहण करेंगे ॥66॥ जिस मनुष्य ने निकाचित कर्म बाँधा है वह उसका फल नियम से भोगता है । अन्यथा शास्त्ररूपी सूर्य के देदीप्यमान रहते हुए किस मनुष्यरूपी उलूक के अंधकार रह सकता है ।।67 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में रावण के युद्ध संबंधी निश्चय का कथन करने वाला बहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥72॥