ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 75
From जैनकोष
पचहत्तरवां पर्व
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! युद्ध की यह विधि है कि दोनों पक्ष के खेदखिन्न तथा महाप्यास से पीड़ित मनुष्यों के लिए मधुर तथा शीतल जल दिया जाता है । क्षुधा से दुःखी मनुष्यों के लिए अमृततुल्य भोजन दिया जाता है । पसीना से युक्त मनुष्यों के लिए आह्लाद का कारण गोशीर्ष चंदन दिया जाता है । पंखे आदि से हवा की जाती है । बर्फ के जल के छींटे दिये जाते हैं तथा इनके सिवाय जिसके लिए जो कार्य आवश्यक हो उसकी पूर्ति समीप में रहने वाले मनुष्य तत्परता के साथ करते हैं । युद्ध की यह विधि जिस प्रकार अपने पक्ष के लोगों के लिए है उसी प्रकार दूसरे पक्ष के लोगों के लिए भी है । युद्ध में निज और पर का भेद नहीं होता । ऐसा करने से ही कर्तव्य की समग्र सिद्धि होती है ॥1-4॥
तदनंतर जिनके चित्त में हार का नाम भी नहीं था तथा जो अतिशय बलवान थे ऐसे प्रचंड वीर लक्ष्मण और रावण को युद्ध करते हुए दश दिन बीत गये ।।5 ।। लक्ष्मण का जो युद्ध रावण के साथ हुआ था वही युद्ध रावण का लक्ष्मण के साथ हुआ था अर्थात् उनका युद्ध उन्हीं के समान था ॥6॥ उनका युद्ध देख यक्ष, किन्नर, गंधर्व तथा अप्सराएँ आदि आश्चर्य को प्राप्त हो धन्यवाद देते और उन पर पुष्पवृष्टि छोड़ते थे ॥7॥ तदनंतर चंद्रवर्धन नामक विद्याधर राजा की आठ कन्याएँ आकाश में विमान की शिखर पर बैठी थीं ॥8॥ महती आशंका से युक्त बड़े-बड़े प्रतीहारी सावधान रहकर जिनकी रक्षा कर रहे थे ऐसी उन कन्याओं से समागम को प्राप्त हुई अप्सराओं ने कुतूहलवश पूछा कि आप लोग देवताओं के समान आकार को धारण करने वाली तथा सुकुमार शरीर से युक्त कौन हैं ? ऐसा जान पड़ता है मानो लक्ष्मण में आप लोग अधिक भक्ति धारण कर रही हैं ॥6-10।। तब वे कन्याएँ लज्जित होती हुई बोली कि यदि आपको कौतुक है तो सुनिये । पहले जब सीता का स्वयंवर हो रहा था तब हमारे पिता हम लोगों के साथ कौतुक से प्रेरित हो सभामंडप में गये थे वहाँ लक्ष्मण को देखकर उन्होंने हम लोगों को उन्हें देने का संकल्प किया था ॥11-12।। वहाँ से आकर यह वृत्तांत पिता ने माता के लिए कहा और उससे हम लोगों को विदित हुआ । साथ ही स्वयंवर में जब से हम लोगों ने इसे देखा था तभी से यह हमारे मन में स्थित था ॥13॥ वही लक्ष्मण इस समय जीवन-मरण के संशय को धारण करने वाले इस महासंग्राम में विद्यमान है । सो संग्राम में क्या कैसा होगा यह हम लोग नहीं जानती इसीलिए दुःखी हो रही हैं ॥14॥ मनुष्यों में चंद्रमा के समान इस हृदयवल्लभ लक्ष्मण की जो दशा होगी वही हमारी होगी ऐसा हम सबने निश्चित किया है ॥15॥
तदनंतर उन कन्याओं के मनोहर वचन सुन लक्ष्मण ने ऊपर की ओर नेत्र उठाकर उन्हें देखा ॥16॥ लक्ष्मण के देखने से वे उत्तम कन्याएं परम प्रमोद को प्राप्त हो इस प्रकार के शब्द बोली कि हे नाथ ! तुम सब प्रकार से सिद्धार्थ होओ― तुम्हारी भावना सब तरह सिद्ध हो ॥17॥ उन कन्याओं के मुख से सिद्धार्थ शब्द सुनकर लक्ष्मण को सिद्धार्थ नामक अस्त्र का स्मरण आ गया जिससे उनका मुख खिल उठा तथा वे कृतकृत्यता को प्राप्त हो गये ॥18॥ फिर क्या था, शीघ्र ही सिद्धार्थ महास्त्र के द्वारा रावण के विघ्नविनाशक अस्त्र को नष्ट कर लक्ष्मण बड़ी तेजी से युद्ध करने के लिए उद्यत हो गये ॥16॥ शस्त्रों के चलाने में निपुण रावण जिस-जिस शस्त्र को ग्रहण करता था परमास्त्रों के चलाने में निपुण लक्ष्मण उसी-उसी शस्त्र को काट डालता था ।। 20 ।। तदनंतर ध्वजा में पक्षिराज― गरुड का चिह्न धारण करने वाले लक्ष्मण के बाण समूह से सब दिशाएँ इस प्रकार व्याप्त हो गई जिस प्रकार कि मेघों से पर्वत व्याप्त हो जाते हैं ।। 21 ।।
तदनंतर रावण भगवती बहुरूपिणी विद्या में प्रवेश कर युद्ध-क्रीड़ा करने लगा ॥22॥ यही कारण था कि उसका शिर यद्यपि लक्ष्मण के तीक्ष्ण बाणों से बार-बार कट जाता था तथापि वह बार-बार देदीप्यमान कुंडलों से सुशोभित हो उठता था ।। 23 ।। एक शिर कटता था तो दो शिर उत्पन्न हो जाते थे और दो कटते थे तो उससे दुगुनी वृद्धि को प्राप्त हो जाते थे ॥24॥ दो भुजाएँ कटती थीं तो चार हो जाती थीं और चार कटती थीं उससे दूनी हो जाती थीं ॥25 ।। हजारों शिरों और अत्यधिक भुजाओं से घिरा हुआ रावण ऐसा जान पड़ता था मानो अगणित कमलों के समूह से घिरा हो ॥26 ।। हाथी की सूंड के समान आकार से युक्त तथा बाजूबंद से सुशोभित भुजाओं और शिरों से भरा आकाश शस्त्र तथा रत्नों की किरणों से पिंजर वर्ण हो गया ॥27॥ जो शिररूपी हजारों मगरमच्छों से भयंकर था तथा भुजाओं रूपी ऊँची-ऊँची तरंगों को धारण करता था ऐसा रावणरूपी महा भयंकर सागर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता था ॥28॥ अथवा जो भुजारूपी विद्युद् दंडों से प्रचंड था और भयंकर शब्द कर रहा था ऐसा रावण रूपी मेघ शिररूपी शिखरों के समूह से बढ़ता जाता था ॥26॥ भुजाओं और मस्तकों के संघटन से जिसके छत्र तथा आभूषण शब्द कर रहे थे ऐसा रावण एक होने पर भी महासेना के समान जान पड़ता था ॥30॥ मैंने पहले अनेकों के साथ युद्ध किया है अब इस अकेले के साथ क्या करूँ यह सोचकर ही मानो लक्ष्मण ने उसे अनेकरूप कर लिया था ॥31 आभूषणों के रत्न तथा शस्त्र समूह की किरणों को देदीप्यमान रावण जलते हुए वन के समान हो गया था ॥32 ।। रावण अपनी हजारों भुजाओं के द्वारा चक्र, बाण, शक्ति तथा भाले आदि शस्त्रों की वर्षा से लक्ष्मण को आच्छादित करने में लगा था ॥33॥ और क्रोध से भरे तथा विवाद से रहित लक्ष्मण भी सूर्यमुखी बाणों से शत्रु को आच्छादित करने में झुके हुए थे ॥34 ।। उन्होंने शत्रु के एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, दश, बीस, सौ, हजार तथा दश हजार शिर काट डाले ॥35 ।। हजारों शिरों से व्याप्त तथा पड़ती हुई भुजाओं से युक्त आकाश, उस समय ऐसा हो गया था मानो उल्का दंडों से युक्त तथा जिसमें तारामंडल गिर रहा है ऐसा हो गया था ॥36 ।। उस समय भुजाओं और मस्तक से निरंतर आच्छादित युद्ध भूमि सर्पों के फणों से युक्त कमल समूह की शोभा धारण कर रही थी ॥37॥ उसके शिर और भुजाओं का समूह जैसा-जैसा उत्पन्न होता जाता था लक्ष्मण वैसा-वैसा ही उसे उस प्रकार काटता जाता था जिस प्रकार कि मुनिराज नये-नये बँधते हुए कर्मों को काटते जाते हैं ॥38।। निकलते हुए रुधिर की लंबी चौड़ी धाराओं से व्याप्त आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो जिसमें संध्या का निर्माण हुआ है ऐसा दूसरा ही आकाश उत्पन्न हुआ हो ॥39॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, महानुभाव से युक्त द्विबाहु लक्ष्मण ने असंख्यात भुजाओं के धारक रावण को निष्फल शरीर का धारक कर दिया ॥40॥ देखो, पराक्रमी रावण क्षणभर में क्या से क्या हो गया ? उसके मुख से श्वास निकलना बंद हो गया, उसका मुख पसीना की बूंदों के समूह से व्याप्त हो गया और उसका समस्त शरीर आकुल-व्याकुल हो गया ॥41 ।। हे श्रेणिक ! जब तक वह अत्यंत भयंकर युद्ध होता है तब तक क्रोध से प्रदीप्त रावण ने कुछ स्वभावस्थ होकर उस चक्ररत्न का चिंतवन किया जो कि प्रलयकालीन मध्याह्न के सूर्य के समान प्रभापूर्ण था तथा शत्रु पक्ष का क्षय करने में उन्मत्त था ॥42-43 ।।
तदनंतर― जो अपरिमित कांति के समूह का धारक था, मोतियों की झालर से युक्त था, स्वयं देदीप्यमान था, दिव्य था, वज्रमय मुख से सहित था, महा अद्भुत था, नाना रत्नों से जिसका शरीर व्याप्त था, दिव्य मालाओं और विलेपन से सहित था, जिसकी धारों की मंडलाकार किरणें अग्नि के कोट के समान जान पड़ती थीं, जो वैडूर्यमणि निर्मित हजार आरों से सहित था, जिसका देखना कठिन था, हजार यक्ष जिसकी सदा प्रयत्नपूर्वक रक्षा करते थे, और जो प्रलयकाल संबद्ध यमराज के मुख के समान था ऐसा चक्र, चिंता करते ही उसके हाथ में आ गया ।। 44-47 ।। उस प्रभापूर्ण दिव्य अस्त्र के द्वारा सूर्य प्रभाहीन कर दिया गया जिससे वह चित्रलिखित सूर्य के समान कांति मात्र है शेष जिसमें ऐसा रह गया ॥48॥ गंधर्व, अप्सराएं, विश्वावसु, तुंबुरु और नारद युद्ध का देखना छोड़ गायन भूलकर कहीं चले गये ॥46 ।। अब तो मरना ही होगा ऐसा निश्चय यद्यपि लक्ष्मण ने कर लिया था तथापि वे अत्यंत धीर बुद्धि के धारक हो उस प्रकार के शत्रु की ओर देख जोर से बोले कि रे नराधम ! इस चक्र को पाकर भी कृपण के समान इस तरह क्यों खड़ा है यदि कोई शक्ति है तो प्रहार कर ॥50-51 ।। इतना कहते ही जो अत्यंत कुपित हो गया था, जो दांतों से ओंठ को डस रहा था, तथा जिसके नेत्रों से मंडलाकार विशाल कांति का समूह निकल रहा था ऐसे रावण ने घुमाकर चक्ररत्न छोड़ा । वह चक्ररत्न क्षोभ को प्राप्त हुए मेघमंडल के समान भयंकर शब्द कर रहा था, महावेगशाली था, और मनुष्यों के संशय का कारण था।। 52-53 ।।
तदनंतर प्रलयकाल के सूर्य के समान सामने आते हुए उस चक्ररत्न को देखकर लक्ष्मण वज्रमुखी बाणों से उसे रोकने के लिए उद्यत हुए ॥54 ।। रामचंद्रजी एक हाथ से वेगशाली वज्रावर्त नामक धनुष से और दूसरे हाथ से घुमाये हुए तीक्ष्णमुख हल से, अत्यधिक क्षोभ को धारण करने वाला सुग्रीव गदा से, भामंडल तीक्ष्ण तलवार से, विभीषण शत्रु का विघात करने वाले त्रिशूल से, हनूमान् उल्का, मुद्गर, लांगूल तथा कनक आदि से, अंगद परिघ से, अंग अत्यंत तीक्ष्ण कुठार से और अन्य विद्याधर राजा भी शेष अस्त्र-शस्त्रों से एक साथ मिलकर जीवन की आशा छोड़ उसे रोकने के लिए उद्यत हुए पर वे सब मिलकर भी इंद्र के द्वारा रक्षित उस चक्ररत्न को रोकने में समर्थ नहीं हो सके ॥54-56 ।। इधर राम की सेना में व्यग्रता बढ़ी जा रही थी पर भाग्य की बात देखो कि उसने आकर लक्ष्मण की तीन प्रदक्षिणाएं दी, उसके सब रक्षक विनय से खड़े हो गये, उसका आकार सुखकारी तथा शांत हो गया और वह स्वेच्छा से लक्ष्मण के हाथ में आकर रुक गया ॥60॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! मैंने तुझे राम-लक्ष्मण का यह अत्यंत आश्चर्य को करने वाला महाविभूति से संपन्न एवं लोक श्रेष्ठ माहात्म्य संक्षेप से कहा है ॥61॥ पुण्योदय के काल को प्राप्त हुए एक मनुष्य के परम विभूति प्रकट होती है तो पुण्य का क्षय होने पर दूसरे मनुष्य के विनाश का योग उपस्थित होता है । जिस प्रकार कि चंद्रमा उदित होता है और सूर्य अस्त को प्राप्त होता है ॥62॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में लक्ष्मण के चक्ररत्न की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला पचहत्तरवां पर्व पूर्ण हुआ ॥75॥