ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 78
From जैनकोष
अठहत्तरवां पर्व
तदनंतर श्रीराम ने कहा कि अब क्या करना चाहिए ? क्योंकि विद्वानों के वैर तो मरण पर्यंत ही होते हैं ॥1॥ अच्छा हो कि हम लोग परलोक को प्राप्त हुए महामानव लंकेश्वर के सुख से बढ़ाये हुए उत्तम शरीर का दाहसंस्कार करावें ॥2॥ राम के उक्त वचन की सबने प्रशंसा की । तब विभीषण सहित राम लक्ष्मण अन्य सब विद्याधर राजाओं के साथ उस दिशा में पहुँचे जहाँ हजारों स्त्रियों के बीच बैठी मंदोदरी शोक से विह्वल हो कुररी के समान करुण विलाप कर रही थी ॥3-4॥ राम और लक्ष्मण महागज से उतरकर प्रमुख विद्याधरों के साथ मंदोदरी के पास गये ॥5॥ जिन्होंने रत्नों की चूड़ियाँ तोड़कर फेंक दी थीं तथा जो पृथिवी की धूलि से धूसर शरीर हो रही थीं ऐसी सब स्त्रियाँ राम लक्ष्मण को देख गला फाड़-फाड़कर अत्यधिक रोने लगीं ॥6॥ बुद्धिमान राम ने मंदोदरी के साथ-साथ समस्त स्त्रियों के समूह को नाना प्रकार के वचनों से सांत्वना प्राप्त कराई ॥7॥ तदनंतर कपूर, अगुरु, गोशीर्ष और चंदन आदि उत्तम पदार्थों से रावण का संस्कार कर सब पद्मनामक महासरोवर पर गये ॥8 ।। उत्तम चित्त के धारक राम ने सरोवर के तीर पर बैठकर कहा कि सब सामंतों के साथ कुंभकर्णादि छोड़ दिये जावें ॥9।। यह सुन कुछ विद्याधर राजाओं ने कहा कि वे बड़े क्रूर हृदय हैं अतः उन्हें शत्रुओं के समान मारा जाय अथवा वे स्वयं ही बंधन में पड़े-पड़े मर जावें ॥10॥ तब राम ने कहा कि यह क्षत्रियों की चेष्टा नहीं । क्या आप लोग क्षत्रियों की इस प्रसिद्ध नीति को नहीं जानते कि सोते हुए, बंधन में बँधे हुए, नम्रीभूत, भयभीत तथा दाँतों में तृण दबाये हुए आदि योद्धा मारने योग्य नहीं हैं । यह क्षत्रियों का धर्म जगत् में सर्वत्र सुशोभित है ।। 11-12॥ तब एवमस्तु कहकर स्वामी की आज्ञापालन करने में तत्पर, नाना प्रकार के शस्त्रों के धारक महायोद्धा कवचादि से युक्त हो उन्हें लाने के लिये गये ॥13॥
तदनंतर इंद्रजित्, कुंभकर्ण, मारीच, मेघवाहन तथा मय महादैत्य को आदि लेकर अनेक उत्तम विद्याधर जो राम के कटक में कैद थे तथा खन-खन करने वालो बड़ी मोटी बेड़ियों से जो सहित थे वे प्रमादरहित सावधान चित्त के धारक शूरवीरों द्वारा लाये गये ॥14-15 ।। दिग्गजों के समान उन सबको लाये जाते देख, समूह के बीच बैठे हुए विद्याधर इच्छानुसार परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगे कि यदि कहीं रावण की जलती चिता को देखकर इंद्रजित् अथवा कुंभकर्ण क्रोध को प्राप्त होता है अथवा इन दो में से एक भी बिगड़ उठता है तो उसके सामने खड़ा होने के लिए वानरों की सेना में कौन राजा समर्थ हैं ?।। 16-18॥ उस समय जो जहाँ बैठा था उस स्थान से नहीं उठा सो ठीक ही है क्योंकि ये सब रण के अग्रभाग में उनका बल देख चुके थे ॥19॥ भामंडल ने अपने प्रधान योद्धाओं से कह दिया कि विभीषण का अब भी विश्वास नहीं करना चाहिये ॥20 ।। क्योंकि कदाचित् बंधन से छूटे हुए इन आत्मीय जनों को पाकर भाई के दुःख से संतप्त रहने वाले इसके विकार उत्पन्न हो सकता है ॥21॥ इस प्रकार जिन्हें नाना प्रकार की शंकाएँ उत्पन्न हो रही थीं ऐसे भामंडल आदि के द्वारा घिरे हुए कुंभकर्णादि राम लक्ष्मण के समीप लाये गये ॥22॥
वे कुंभकर्णादि सभी पुरुष राग-द्वेष से रहित हो हृदय से मुनिपना को प्राप्त हो चुके थे, सौम्य दृष्टि से पृथिवी को देखते हुए आ रहे थे, सबके मुख अत्यंत शुभ-शांत थे ॥23॥ वे अपने मन में यह प्रतिज्ञा कर चुके थे कि इस संसार में कुछ भी सार नहीं है एक धर्म ही सार है जो सब प्राणियों का महाबंधु है। यदि हम इस बंधन से छुटकारा प्राप्त करेंगे तो निर्ग्रंथ साधु हो पाणि-मात्र से ही आहार ग्रहण करेंगे । इस प्रकार की प्रतिज्ञा को प्राप्त हुए वे सब राम के समीप आये । कुंभकर्ण आदि राजा विभीषण के भी सम्मुख गये ॥24-26 ।। तदनंतर जब दुःख के समय का वार्तालाप धीरे-धीरे समाप्त हो गया तब परमशांति को धारण करने वाले कुंभकर्णादि ने राम-लक्ष्मण से इस प्रकार कहा कि अहो ! आप लोगों का धैर्य, गांभीर्य, चेष्टा तथा बल आदि सभी उत्कृष्ट है क्योंकि जो देवों के द्वारा भी अजेय था ऐसे रावण को आपने मृत्यु प्राप्त करा दी ॥27-28॥ अत्यंत अपकारी, मानी और कटुभाषी होने पर भी यदि शत्रु में उत्कृष्ट गुण हैं तो वह विद्वानों का प्रशंसनीय ही होता है ॥29॥
तदनंतर लक्ष्मण ने मनोहर वचनों द्वारा सांत्वना देकर कहा कि आप सब पहले की तरह भोगोपभोग करते हुए आनंद से रहिये ।। 30 ।। यह सुन उन्होंने कहा कि विष के समान दारुण, महामोह को उत्पन्न करने वाले, भयंकर तथा महादुःख देने वाले भोगों की हमें आवश्यकता नहीं है ॥31 ।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! उस समय वे उपाय शेष नहीं रह गये थे जिनसे उन्हें सांत्वना न दी गई हो परंतु फिर भी उन मनस्वी मनुष्यों ने भोगों का संबंध स्वीकृत नहीं किया ॥32॥ यद्यपि नारायण और बलभद्र स्वयं उस तरह उनके पीछे लगे हुए थे अर्थात् उन्हें भोग स्वीकृत कराने के लिए बार-बार समझा रहे थे तथापि उनकी दृष्टि भोगों से उस तरह विमुख ही रही जिस तरह कि सूर्य से लगी दृष्टि अंधकार से विमुख रहती है ॥33॥ मसले हुए अंजन के कणों के समान कांति वाले उस सरोवर के सुगंधित जल में बंधन मुक्त कुंभकर्णादि के साथ सबने स्नान किया ।।34।। तदनंतर उस पद्म सरोवर से निकलकर सब वानर और राक्षस, यथायोग्य अपने-अपने स्थान पर चले गये ।। 35 ।। कितने ही विद्याधर इस सरोवर के मनोहर तट पर मंडल बाँधकर बैठ गये और आश्चर्य से चकित चित्त होते हुए शूरवीरों की कथा करने लगे ॥36 ।। कितने ही विद्याधर क्रूरकर्मा दैव के लिए उपालंभ देने लगे और कितने ही शब्दरहित― चुपचाप अत्यधिक अश्रु छोड़ने लगे ॥37॥ स्मृति में आये हुए रावण के गुणों से जिनके चित्त भर रहे थे ऐसे कितने ही लोग गला फाड़-फाड़कर रो रहे थे ॥38 ।। कितने ही लोग कर्मों की अत्यंत संकटपूर्ण विचित्रता का निरूपण कर रहे थे और कितने ही अत्यंत दुस्तर संसाररूपी अटवी की निंदा कर रहे थे ॥39॥ कितने ही लोग भोगों में परम विद्वेष को प्राप्त होते हुए राज्यलक्ष्मी को चंचल एवं निरर्थक मान रहे थे ॥40॥ कोई यह कह रहे थे कि वीरों की ऐसी ही गति होती है और कोई उत्तम बुद्धि के धारक अकार्य-खोटे कार्य की निंदा कर रहे थे ।। 41 ।। कोई रावण की गर्व भरी कथा कर रहे थे, कोई राम के गुण गा रहे थे और कोई लक्ष्मण की शक्ति की चर्चा कर रहे थे ॥42॥ जिनका मस्तक धीरे-धीरे हिल रहा था तथा जिनका चित्त अत्यंत स्वच्छ था ऐसे कितने ही वीर, राम की प्रशंसा न कर पुण्य के फल की प्रशंसा कर रहे थे ॥43॥ उस समय घर-घर में सब कार्य समाप्त हो गये थे केवल बालकों में कथाएँ चल रहीं थीं ॥44॥ उस समय लंका में जबकि सब लोग दुर्दिन की भाँति लगातार अश्रुओं की वर्षा कर रहे थे तब ऐसा जान पड़ता था मानो वहाँ के फर्श भी बहुत भारी शोक के कारण पिघल गये हों ॥45॥ उस समय लंका में जहाँ देखो वहाँ नेत्रों से पानी ही पानी भर रहा था इससे ऐसा जान पड़ता था मानो संसार अन्य तीन भूतों को दूर कर केवल जलरूप ही हो गया था ।। 46॥ सब ओर बहने वाले नेत्र-जल के प्रवाहों से भयभीत होकर ही मानो अत्यंत दुःसह संतापों ने हृदयों में स्थान जमा रक्खा था ।। 47॥ धिक्कार हो, धिक्कार हो, हाय-हाय बड़े कष्ट की बात है, अहो हा ही यह क्या अद्भुत कार्य हो गया, उस समय लोगों के मुख से अश्रुओं के साथ-साथ ऐसे ही शब्द निकल रहे थे ।। 48 ।। कितने ही लोग मौन से मुँह बंदकर पृथ्वीरूपी शय्या पर निश्चल शरीर होकर इस प्रकार बैठे थे मानो मिट्टी के पुतले ही हों ।। 49।। कितने ही लोगों ने शस्त्र तोड़ डाले, आभूषण फेंक दिये और स्त्रियों के मुखकमल से दृष्टि हटा ली ।। 50।। कितने ही लोगों के मुख से गरम लंबे और कलुषित श्वास के बघरूले निकल रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो उनका दुःख अविरल अंकुर ही छोड़ रहा हो ॥51॥ कितने ही लोग संसार से परम निर्वेद को प्राप्त हो मन में जिन-कथित दिगंबर दीक्षा को धारण कर रहे थे ।। 52 ।।
अथानंतर उस दिन के अंतिम पहर में अनंतवीर्य नामक मुनिराज महासंघ के साथ लंका नगरी में आये ॥53॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि यदि रावण के जीवित रहते वे महामुनि लंका में आये होते तो लक्ष्मण के साथ रावण की घनी प्रीति होती ॥54॥ क्योंकि जिस देश में ऋद्धिधारी मुनिराज और केवली विद्यमान रहते हैं वहाँ दो सौ योजन तक की पृथ्वी स्वर्ग के सदृश सर्व प्रकार के उपद्रवों से रहित होती है और उनके निकट रहने वाले राजा निर्वैर हो जाते हैं ।। 55-56॥ जिस प्रकार आकाश में अमूर्तिकपना और वायु में चंचलता स्वभाव से हैं उसी प्रकार महामुनि में लोगों को आह्लादित करने की क्षमता स्वभाव से ही होती है ।। 57॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अनेक आश्चर्यों से युक्त मुनियों से घिरे हुए वे अनंतवीर्य मुनिराज लंका में जिस प्रकार आये थे उसका कथन कौन कर सकता है ? ॥58 ।। जो अनेक ऋद्धियों से सहित होने के कारण सुवर्ण कलश के समान जान पड़ते थे, ऐसे वे मुनि लंका में आकर कुसुमायुध नामक उद्यान में ठहरे ॥59॥ वे छप्पन हजार आकाशगामी उत्तम मुनियों के साथ उस उद्यान में बैठे हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो नक्षत्रों से घिरा हुआ चंद्रमा ही हो ॥60॥ निर्मल शिलातल पर शुक्लध्यान में आरूढ़ हुए उन मुनिराज को उसी रात्रि में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ॥61॥ हे श्रेणिक ! मैं पाप को दूर करने वाला परम आश्चर्य से युक्त उनके मनोहर अतिशयों का वर्णन करता हूँ सो सुन ॥62॥
अथानंतर केवलज्ञान उत्पन्न होते ही वे मुनिराज वीर्यांतराय कर्म का क्षय हो जाने से अनंतबल के स्वामी हो गये तथा देव निर्मित सिंहासन पर आरूढ हुए । पृथ्वी के नीचे पाताल लोक में निवास करने वाले वायुकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार तथा सुपर्णकुमार आदि दश प्रकार के भवनवासी, किन्नरों को आदि लेकर आठ प्रकार के व्यंतर, सूर्य, चंद्रमा, ग्रह आदि पाँच प्रकार के ज्योतिषी और सौधर्म आदि सोलह प्रकार के कल्पवासी इस तरह चारों निकाय के देव धातकीखंडद्वीप में उत्पन्न हुए किसी तीर्थंकर के जन्म कल्याणक संबंधी उत्सव में गये हुए थे, वहाँ विशाल पूजा तथा सुमेरू पर्वत के उत्तम शिखर पर विराजमान देवाधिदेव जिनेंद्र बालक का शुभ रत्नमयी एवं सुवर्णमयी कलशों द्वारा अभिषेक कर उन्होंने उत्तम शब्दों से उनकी स्तुति की । तदनंतर वहाँ से लौटकर जिनबालक को माता की गोद में सुख से विराजमान किया । जो बालक अवस्था होने पर भी बालकों जैसी चपलता से रहित थे ऐसे जिनबालक को नमस्कार कर उन देवों ने हर्षित हो, मेरु से लौटने के बाद तीर्थंकर के घर पर होने वाले तांडव नृत्य आदि योग्य रीति से किये । तदनंतर वहाँ से लौटकर लंका में अनंतवीर्य मुनि का केवलज्ञान महोत्सव देख उनके समीप आये । मुनिराज के प्रभाव से खींचे हुए उन देवों में कितने ही देव रत्नों की बड़ी-बड़ी मालाओं से युक्त, सूर्यबिंब के समान प्रकाशमान एवं योग्य प्रमाण से सहित उत्तम विमानों में आरूढ़ थे, कितने ही शंख के समान सफेद उत्तम राजहँसों पर सवार थे, कितने ही उन हाथियों की पीठ पर आरूढ़ थे, जिनके कि गंडस्थल अत्यधिक मद संबंधी श्रेष्ठ सुगंधि के संबंध से गूंजते हुए भ्रमर समूह की श्यामकांति के कारण कुछ बढ़े हुए से दिखायी देते थे और कितने ही बाल चंद्रमा के समान दाढ़ों से भयंकर मुख वाले व्याघ्र-सिंह आदि वाहनों पर आरूढ़ थे । वे सब देव प्रसन्नचित्त के धारक हो उन मुनिराज के समीप आ रहे थे । उस समय जोर-जोर से बजने वाले पटह, मृदंग, गंभीर और भेरियों के नाद से, बजती हुई बासुरियों और वीणाओं की उत्तम झनकार से, झन-झन करने वाली झाँझों से, शब्द करने वाले अनेक शंखों से, महामेघमंडल की गर्जना के समान गंभीर ध्वनि से युक्त दुंदुभि-समूह के रमणीय शब्दों से और मन को हरण करने वाली देवांगनाओं के सुंदर संगीत से आकाशमंडल व्याप्त हो गया था । उस अर्धरात्रि के समय सहसा अंधकार विलीन हो गया और विमानों में लगे हुए रत्नों आदि का प्रकाश फैल गया, सो उसे देख तथा दुंदुभियों की गंभीर गर्जना सुनकर राम-लक्ष्मण पहले तो कुछ उद्विग्न चित्त हुए फिर क्षण-एक में ही यथार्थ समाचार जानकर संतोष को प्राप्त हुए । वानरों और राक्षसों की सेना में ऐसी हलचल मच गई मानो समुद्र ही लहराने लगा हो । तदनंतर भक्ति से प्रेरित विद्याधर, राम-लक्ष्मण आदि सत्पुरुष और भानुकर्ण, इंद्रजित्, मेघवाहन आदि राक्षस, कोई उत्तम हाथियों पर आरूढ़ होकर और कोई रथ तथा उत्तम घोड़ों पर सवार हो केवल भगवान के समीप चले । उस समय वे अपने सफेद छत्रों, ध्वजाओं और तरुण हंसावली के समान शोभायमान चमरों से युक्त थे तथा आकाश को आच्छादित करते हुए जा रहे थे ।
जिस प्रकार अत्यधिक हर्ष से युक्त गंधर्व, यक्ष और अप्सराओं के समूह से सेवित इंद्र अपने कामोद्यान में प्रवेश करता है, उसी प्रकार सब लोगों ने अपने-अपने वाहनों से उतरकर तथा ध्वजा छत्रादि के संयोग का त्यागकर लंका के उस कुसुमायुध उद्यान में प्रवेश किया । समीप में जाकर सबने मुनिराज की पूजा की, उनके चरणकमल युगल में प्रणाम किया और उत्तम स्तोत्र तथा मंत्रों से परिपूर्ण वचनों से भक्तिपूर्वक स्तुति की । तदनंतर धर्मश्रवण करने की इच्छा से सब यथायोग्य पृथिवी पर बैठ गये और सावधानचित्त होकर मुनिराज के मुख से निकले हुए धर्म का इस प्रकार श्रवण करने लगे―
उन्होंने कहा कि इस संसार में नरक तिर्यंच मनुष्य और देव के भेद से चार गतियाँ हैं जिनमें नाना प्रकार के महादुःखरूपी चक्र पर चढ़े हुए समस्त प्राणी निरंतर घूमते रहते हैं तथा अष्टकर्मों से बद्ध हो स्वयं शुभ अशुभ कर्म करते हैं । सदा आर्त्त-रौद्र ध्यान से युक्त रहते हैं तथा मोहनीय कर्म उन्हें बुद्धि रहित कर देता है । ये प्राणी सदा प्राणिघात, असत्यभाषण, परद्रव्यापहरण, परस्त्री समालिंगन और अपरिमित धन का समागम, महालोभ कषाय के साथ वृद्धि को प्राप्त हुए इन पाँच पापों के साथ संसर्ग को प्राप्त होते हैं । अंत में खोटे कर्मों से प्रेरित हुए मानव, मृत्यु को प्राप्त हो नीचे पाताललोक में जन्म लेते हैं । नीचे की पृथिवीयों के नाम इस प्रकार हैं― रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा । ये पृथिवियाँ निरंतर महाअंधकार से युक्त, अत्यंत दुर्गंधित, घृणित दुर्दृश्य एवं दुःखदायी स्पर्शरूप हैं । महादारुण हैं, वहाँ की पृथिवी तपे हुए लोहे के समान हैं । सबकी सब तीव्र आक्रंदन, आक्रोशन और भय से आकुल हैं । जिन पृथिवियों में नारकी जीव पाप से बँधे हुए दुष्कर्म के कारण सदा महातीव्र दुःख अनेक सागरों की स्थिति पर्यंत प्राप्त होते रहते हैं । ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो पापबंध से चित्त को द्वेषयुक्त कर उत्तमधर्म में रमण करो―जो प्राणी व्रत-नियम आदि से तो रहित हैं परंतु स्वाभाविक सरलता आदि गुणों से सहित हैं ऐसे कितने ही प्राणी मनुष्यगति को प्राप्त होते हैं और कितने ही नाना प्रकार के तपश्चरण कर देवगति को प्राप्त होते हैं । वहाँ से च्युत हो पुनः मनुष्य पर्याय पाकर जो धर्म की अभिलाषा छोड़ देते हैं वे कल्याण से रहित हो पुनः उग्र दुःख से दुःखी होते हुए जन्म-मरण रूपी वृक्षों से युक्त विशाल संसारवन में भ्रमण करते रहते हैं ।
अथानंतर जो भव्य प्राणी देवाधिदेव जिनेंद्र भगवान् के वचनों से अत्यंत प्रभावित हो मोक्षमार्ग के अनुरूप शील, सत्य, शौच, सम्यक् तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र के युक्त होते हुए अष्टकर्मों के नाश का प्रयत्न करते हैं, वे उत्कृष्ट वैभव से युक्त हो देवों के उत्तम स्वामी होते हैं और वहाँ अनेक सागर पर्यंत नाना प्रकार का सुख प्राप्त करते रहते हैं । तदनंतर वहाँ से च्युत हो अवशिष्ट धर्म के फलस्वरूप बहुत भारी भोग और लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं और अंत में रत्नत्रय को प्राप्त कर राज्यादि वैभव का त्यागकर जैनलिंग-निर्ग्रंथ मुद्रा धारण करते हैं तथा अत्यंत तीव्र तपश्चरण कर शुक्लध्यान के धारी हो केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और आयु का क्षय होने पर समस्त कर्मों से रहित होते हुए तीन लोक के अग्रभाग पर आरूढ़ हो सिद्ध बनते हैं एवं अंतरहित आत्मस्वभावमय आह्लाद-रूप अनंत सुख प्राप्त करते हैं ।
अथानंतर इंद्रजित् और मेघवाहन ने अनंतवीर्य मुनिराज से अपने पूर्वभव पूछे । सो इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि कौशांबी नगरी में दरिद्रकुल में उत्पन्न हुए दो भाई रहते थे । पहले का नाम प्रथम था और दूसरा पश्चिम कहलाता था । किसी एक दिन विहार करते हुए भवदत्त मुनि उस नगरी में आये।। 63-64 ।। उनके पास धर्मश्रवण कर दोनों भाई क्षुल्लक हो गये । किसी दिन उस नगरी का कांतिमान इंदु नाम का राजा उन मुनिराज के दर्शन करने आया, सो उसे देख मुनिराज उपेक्षा भाव से बैठे रहे । उन्होंने राजा के प्रति कुछ भी आदर भाव प्रकट नहीं किया । इसका कारण यह था कि बुद्धिमान् मुनिराज ने यह जान लिया था कि राजा का मिथ्यादर्शन अनुपाय है― दूर नहीं किया जा सकता ॥65-66 ।। तदनंतर राजा के चले जाने के बाद नगर का नंदी नामक जिनेंद्रभक्त सेठ मुनि के दर्शन करने के लिये आया । वह सेठ विभूति में राजा के ही समान था और मुनि ने उसके प्रति यथायोग्य सम्मान प्रकट किया ।। 67 ।। नंदी सेठ को मुनिराज के द्वारा आदृत देख पश्चिम नामक क्षुल्लक ने निदान बाँधा कि मैं नंदी सेठ के पुत्र होऊँ । यथार्थ में वह दुर्बुद्धि इसके लिए ही धर्म कर रहा था ॥68॥ यद्यपि उसे बहुत समझाया गया तथापि उसका चित्त उस ओर से नहीं हटा, अंत में वह निदान बंध से दूषित चित्त होता हुआ मरा और मरकर नंदी सेठ की प्रशंसनीय गुणों से युक्त इंदुमुखी नामक स्त्री के पुत्र हुआ ॥69 ।। जब यह गर्भ में स्थित था तभी इसकी राज्य प्राप्ति की सूचना देने वाले, कोट का गिरना आदि बहुत से चिह्न राजाओं के स्थानों में होने लगे थे ॥70॥ नाना प्रकार के निमित्तों से यह जानकर कि यह आगे चलकर महापुरुष होगा । राजा लोग जन्म से ही लेकर उत्तम दूतों के द्वारा आदरपूर्वक भेजे हुए पदार्थों से उसकी सेवा करने लगे थे ॥71॥ वह सब लोगों की रति अर्थात् प्रीति की वृद्धि करता था, इसलिए सार्थक नाम को धारण करने वाला रतिवर्द्धन नाम का राजा हुआ । ऐसा राजा कि कौशांबी का अधिपति इंदु भी जिसे प्रणाम करता था ।। 72॥
इस प्रकार प्रथम और पश्चिम इन दो भाइयों में पश्चिम तो महाविभूति पाकर मत्त हो गया उसके मद में भूल गया और पूर्वभव में जो उसका बड़ा भाई प्रथम था वह मरकर स्वर्ग में देवपर्याय को प्राप्त हुआ ।। 73॥ पश्चिम ने प्रथम से उस पर्याय में याचना की थी कि यदि तुम देवता हों और मैं मनुष्य होऊँ तो तुम मुझे संबोधन करना । इस याचना को स्मृति में रखता हुआ प्रथम का जीव देव रतिवर्धन को संबोधने के लिए क्षुल्लक का रूप धरकर उसके घर में प्रवेश कर रहा था कि द्वार पर नियुक्त पुरुषों द्वारा उसने उसे दूर हटा दिया । तदनंतर उस देव ने क्षणभर में रतिवर्धन का रूप रख लिया और असली रतिवर्धन को पागल जैसा बनाकर जंगल में दूर खदेड़ दिया । तदनंतर उसके पास जाकर बोला कि तुमने मेरा अनादर किया था, अब कहो तुम्हारा क्या हाल है ? ।।74-76 ।। इतना कहकर उस देव ने रतिवर्धन के लिए अपने पूर्व जन्म का यथार्थ निरूपण किया जिससे वह शीघ्र ही प्रबोध को प्राप्त हो सम्यग्दृष्टि हो गया। साथ ही नंदी सेठ आदि भी सम्यग्दृष्टि हो गये ॥77॥ तदनंतर राजा रतिवर्धन दीक्षा धारणकर काल धर्म (मृत्यु) को प्राप्त होता हुआ बड़े भाई प्रथम का जीव जहाँ देव था वहीं जाकर उत्पन्न हुआ । तदनंतर दोनों देव वहाँ से च्युत हो विजय नामक नगर में वहाँ के राजा के उर्व और उर्वस् नामक पुत्र हुए ॥78 ।। तत्पश्चात् जिनेंद्र प्रणीत धर्मधारण कर दोनों भाई फिर से देव हुए और वहाँ से च्युत हो आप दोनों यहाँ इंद्रजित् और मेघवाहन नामक विद्याधराधिपति हुए हो ॥76।। और जो नंदी सेठ की इंद्रमुखी नाम की भार्या थी वह भवांतर में एक जन्म का अंतर ले स्नेह के कारण जिनधर्म में लीन तुम्हारी माता मंदोदरी हुई है ॥78॥
इस प्रकार अपने अनेक भव सुन संसार संबंधी वस्तुओं में प्रीति छोड़ परम संवेग से युक्त हुए इंद्रजित् और मेघनाद ने कठिन दीक्षा धारण कर ली । इनके सिवाय जो कुंभकर्ण तथा मारीच आदि अन्य विद्याधर थे वे भी अत्यधिक संवेग से युक्त हो कषाय तथा रागभाव छोड़कर उत्तम मुनिपद में स्थित हो गये ॥81-82॥ जिन्होंने विद्याधरों के विभव को तृण के समान छोड़ दिया था, जो विधिपूर्वक उत्तमधर्म का आचरण करते थे, तथा जो नाना प्रकार की ऋद्धियों से सहित थे, ऐसे ये मुनिराज पृथिवी में सर्वत्र भ्रमण करने लगे ॥83 ।। मुनिसुव्रत तीर्थकर के तीर्थ में वे परम तप से युक्त तथा भव्य जीवों के वंदना करने योग्य उत्तम मुनि हुए हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥84॥
जो पति और पुत्रों के विरह जन्य दुःखाग्नि से जल रही थी ऐसी मंदोदरी महाशोक से युक्त हो अत्यंत विह्वल हृदय हो गई ॥85॥ दुःखरूपी भयंकर समुद्र में पड़ी मंदोदरी पहले तो मूर्छित हो गई फिर सचेत हो कुररी के समान करुण विलाप करने लगी ।। 86 ।। वह कहने लगी कि हाय पुत्र इंद्रजित् ! तूने यह ऐसा कार्य क्यों किया ? हाय मेघवाहन ! तूने दुःखिनी माता की अपेक्षा क्यों नहीं की ? ।।87।। तीव्र दुःख से संतप्त माता की उपेक्षाकर अतिशय दुःख से दुःखी हो तुम लोगों ने यह जो कुछ कार्य किया है सो क्या ऐसा करना तुम्हें उचित था ? ॥88 ।। हे पुत्रो ! तुम देवतुल्य भोगों से लड़ाये हुए हो । अब विद्या के विभव से रहित हो, शरीर से स्नेह छोड़ कठोर पृथ्वीतल पर कैसे पड़ोगे ? ॥89॥ तदनंतर मंदोदरी मय को लक्ष्यकर बोली कि हाय पिता ! तुमने भी उत्तम भोग छोड़कर यह क्या किया ? कहो तुमने अपनी संतान का स्नेह एक साथ कैसे छोड़ दिया ? ॥90॥ पिता, भर्ता और पुत्र इतने ही तो स्त्रियों की रक्षा के निमित्त हैं, सो मैं पापिनी इन सबके द्वारा छोड़ी गई हूँ, अब किसकी शरण में जाऊँ ? ॥91 ।। इस तरह जो करुण विलाप को प्राप्त होती हुई आँसुओं की अविरल वर्षा कर रही थी ऐसी मंदोदरी को शशिकांता नामक आर्यिका ने उत्तम वचनों के द्वारा प्रतिबोध प्राप्त कराया ॥92॥ आर्यिका ने समझाया कि अरी मूर्खे ! व्यर्थ ही क्यों रो रही है ? इस अनादिकालीन संसार चक्र में भ्रमण करती हुई तू तिर्यंच और मनुष्यों की नाना योनियों में उत्पन्न हुई है, वहाँ तूने नाना बंधुजनों के वियोग से विह्वल बुद्धि हो अत्यधिक रुदन किया है । अब फिर क्यों दुःख को प्राप्त हो रही है आत्मपद में लीन हो स्वस्थता को प्राप्त हो ॥93।।
तदनंतर जो संसार दशा का निरूपण करने में तत्पर शशिकांता आर्यिका के मनोहारी वचनों से प्रबोध को प्राप्त हो उत्कृष्ट संवेग को प्राप्त हुई थी ऐसी उत्तम गुणों की धारक मंदोदरी गृहस्थ संबंधी समस्त वेष रचना को छोड़ अत्यंत विशुद्ध धर्म में लीन होती हुई एक सफेद वस्त्र से आवृत आर्यिका हो गई ॥94॥ रावण की बहिन चंद्रनखा भी इन्हीं आर्या के पास उत्तम रत्नत्रय को पाकर व्रत रूपी विशाल-संपदा को धारण करने वाली उत्तम साध्वी हुई । गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! जिस दिन मंदोदरी आदि ने दीक्षा ली उस दिन उत्तम हृदय को धारण करने वाली एवं सूर्य की दीप्ति के समान देदीप्यमान अड़तालीस हजार स्त्रियों ने संयम धारण किया ॥95॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथितपद्म पुराण में इंद्रजित् आदि की दीक्षा का वर्णन करने वाला अठहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥78॥