ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 81
From जैनकोष
इक्यासीवां पर्व
अथानंतर जो स्वर्गलोक की लक्ष्मी के समान राजलक्ष्मी का उपभोग कर रहे थे ऐसे चंद्रांकचूड इंद्र के तुल्य श्रीराम, पति और पुत्र के वियोगरूपी अग्नि की ज्वाला से जिनका शरीर सूख गया था ऐसी माता कौसल्या को एकदम क्यों भूल गये थे ? ॥1-2॥ जो निरंतर उद्विग्न रहती थी, जिसके नेत्र आँसुओं से व्याप्त रहते थे, जो नव प्रसूता गाय के समान अपने पुत्र से मिलने के लिए अत्यंत व्याकुल थी, पुत्र के प्रति स्नेह प्रकट करने में तत्पर थी, तीव्रशोकरूपी सागर में विद्यमान थी और पुत्र के दर्शन की इच्छा रखती थी, ऐसी कौसल्या सखियों के साथ महल के सातवें खंड पर चढ़कर सब दिशाओं की ओर देखती रखती थी ॥3-4॥ वह पागल की भाँति पताका के शिखर पर बैठे हुए काक से कहती थी कि रे वायस ! उड़-उड़ । यदि मेरा पुत्र राम आ जायगा तो मैं तुझे खीर का भोजन देऊँगी ।।5 ।। ऐसा कहकर उसकी मनोहर चेष्टाओं का ध्यान करती और जब उसकी ओर से कुछ उत्तर नहीं मिलता तब नेत्रों से आँसुओं की घनघोर वर्षा करती हुई विलाप करने लगती ।।6 ।। वह कहती कि हाय पुत्र ! तू कहाँ चला गया ? तू निरंतर सुख से लड़ाया गया था । तुझे विदेश भ्रमण की यह कौन-सी प्रीति उत्पन्न हुई है ? ॥7॥ तू कठोर मार्ग में चरण-किसलयों की पीड़ा को प्राप्त हो रहा होगा । अर्थात् कंकरीले पथरीले मार्ग में चलते-चलते तेरे कोमल पैर दुखने लगते होंगे तब तू अत्यंत थककर किस वन के नीचे विश्राम करता होगा ? ॥8॥ हाय बेटा ! अत्यंत दुःखिनी मुझ मंदभागिनी को छोड़ तू भाई लक्ष्मण के साथ किस दिशा में चला गया है ? ॥9॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! वह कौसल्या जिस समय इस प्रकार का विलाप कर रही थी उसी समय आकाश मार्ग में विहार करने वाले देवर्षि नारद वहाँ आये ।।10।। वे नारद जटारूपी कूर्च को धारण किये हुए थे, सफेद वस्त्र से उनका शरीर आवृत था, अवद्वार नाम के धारक थे और पृथिवी में सर्वत्र प्रसिद्ध थे ।।11॥ उन्हें समीप में आया देख कौसल्या ने उठकर तथा आसन आदि देकर उनका आदर किया ॥12॥ जिसके नेत्र आँसुओं से तरल थे तथा जिसकी आकृति से ही बहुत भारी शोक प्रकट हो रहा था ऐसी कौसल्या को देख नारद ने पूछा कि हे कल्याणि ! तुमने किससे अनादर प्राप्त किया है, जिससे रो रही हो ? तुम्हारे दुःख का कारण तो संभव नहीं जान पड़ता ? ॥13-14॥ तुम सुकोशल महाराज की लोकप्रसिद्ध पुत्री हो, प्रशंसनीय हो तथा राजा दशरथ की अपराजिता नाम की पत्नी हो ॥15॥ मनुष्यों में रत्नस्वरूप श्रीराम की माता हो, उत्तम लक्षणों से युक्त हो तथा देवता के समान माननीय हो । जिस दुष्ट ने तुम्हें क्रोध उत्पन्न कराया है, प्रताप से समस्त संसार को व्याप्त करने वाले श्रीमान राजा दशरथ आज ही उसका प्राणापहारी निग्रह करेंगे अर्थात् उसे प्राणदंड देंगे ॥16-17॥
इसके उत्तर में देवी कौसल्या ने कहा कि हे देवर्षे ! तुम बहुत समय बाद आये हो इसलिए इस समाचार को नहीं जानते और इसीलिए ऐसा कह रहे हो ॥18 ।। जान पड़ता है कि अब तुम दूसरे ही हो गये हो और तुम्हारी निष्ठुरता बढ़ गई है अन्यथा तुम्हारा वह पुराना वात्सल्य शिथिल क्यों दिखाई देता ? ॥19।। आज तक भी तुम इस वार्ता को क्यों नहीं प्राप्त हो सके ? जान पड़ता है कि तुम भ्रमण प्रिय हो और अभी कहीं बहुत दूर से आ रहे हो ॥20॥ नारद ने कहा कि धातकीखंड-द्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में एक सुरेंद्र रमण नाम का नगर है वहाँ श्री तीर्थंकर भगवान् का जन्म हुआ था ।।21 ।। सुरासुर सहित इंद्रों ने सुमेरुपर्वत पर आश्चर्यकारी दिव्य वैभव के साथ उनका जन्माभिषेक किया था ॥22॥ सो समस्त पापों को नष्ट करने एवं पुण्यकर्म को बढ़ाने वाला तीर्थंकर भगवान् का वह अभिषेक मैंने देखा है ॥23॥ उस उत्सव में आनंद से भरे देवों ने तथा अत्यंत शोभायमान विभूति को धारण करने वाले विद्याधरों ने आनंद से नृत्य किया था ॥24॥ जिनेंद्र भगवान् के दर्शनों में आसक्त हो मैं उस अतिशय मनोहारी द्वीप में यद्यपि तेईस वर्ष तक सुख से निवास करता रहा ।।25 ।। तथापि चिरकाल से सेवित तथा महान् धैर्य उत्पन्न करने वाली माता के तुल्य इस भरत-क्षेत्र की भूमि का स्मरण कर यहाँ पुनः आ पहुँचा हूँ ॥26 ।। जंबूद्वीप के भरत-क्षेत्र में आकर मैं अभी तक कहीं अन्यत्र नहीं गया हूँ, सीधा समाचार जानने की प्यास लेकर तुम्हारा दर्शन करने के लिए आया हूँ ॥27॥
तदनंतर अपराजिता (कौसल्या) ने जो वृत्तांत जैसा हुआ था वह सब नारद से कहा । उसने कहा कि संघ सहित सर्वभूतहित आचार्य का आगमन हुआ । महाविद्याधरों के राजा भामंडल का संयोग हुआ । राजा दशरथ ने अनेक राजाओं के साथ दीक्षा धारण की, सीता और लक्ष्मण के साथ राम वन को गये, वहाँ सीता के साथ उनका वियोग हुआ, सुग्रीवादि के साथ समागम हुआ, युद्ध में लंका के धनी-रावण ने लक्ष्मण को शक्ति से ताड़ित किया और द्रोणमेघ की कन्या विशल्या शीघ्रता से वहाँ ले जाई गई ॥28-31॥ इतना कहते ही जिसे तीव्र दुःख का स्मरण हो आया था ऐसी कौसल्या अश्रुधारा छोड़ती हुई पुनः विलाप करने लगी ॥32॥ हाय-हाय पुत्र ! तू कहाँ गया ? कहाँ है ? बहुत समय हो गया, शीघ्र ही आ, मेरे लिए वचन दे― मुझ से वार्तालाप कर और शोक सागर में डूबी हुई मेरे लिए सांत्वना दे ॥33॥ हे सत्पुत्र ! मैं पुण्यहीना तुम्हारे मुख को न देखती तथा तीव्र दुःखाग्नि से व्याप्त हुई अपने जीवन को निरर्थक मानती हूँ ॥34॥ सुख से जिसका लालन-पालन हुआ तथा जो वन की हरिणी के समान भोली है ऐसी राजपुत्री बेटी सीता शत्रु के बंदीगृह में पड़ी दुःख से समय काट रही होगी ॥35॥ निर्दय रावण ने लक्ष्मण को शक्ति से घायल किया सो जीवित है या नहीं इसकी कोई खबर नहीं है ॥36॥ हाय मेरे अत्यंत दुर्लभ पुत्रो ! और हाय मेरी पतिव्रते बेटी सीते ! तुम समुद्र के मध्य इस भयंकर दुःख को कैसे प्राप्त हो गई ॥37॥
तदनंतर यह वृत्तांत जानकर नारद ने वीणा पृथ्वी पर फेंक दी और स्वयं उद्विग्न हो दोनों हाथ मस्तक से लगा चुपचाप बैठ गये ॥38॥ उनका शरीर क्षणमात्र में निश्चल पड़ गया । जब विचारकर उनकी ओर अनेक बार देखा तब वे बोले कि हे देवि ! मुझे यह बात अच्छी नहीं जान पड़ती ॥36॥ रावण तीन खंड का स्वामी है, अत्यंत क्रोधी तथा समस्त विद्याधरों का स्वामी है सो उसे भामंडल तथा सुग्रीव ने क्यों कुपित कर दिया ? ॥40॥ फिर भी हे कौसल्ये ! हे शुभे ! अत्यधिक शोक मत करो । यह मैं शीघ्र ही जाकर तुम्हारे लिए समाचार लाता हूँ इसमें कुछ भी संशय नहीं है ॥41 ।। हे देवि ! इतना ही कार्य करने की मेरी सामर्थ्य है । शेष कार्य के करने में तुम्हारा पुत्र ही समर्थ है ॥42॥ इस प्रकार प्रतिज्ञा कर तथा परम प्यारी सखी के समान वीणा को बगल में दबाकर नारद आकाश में उड़ गये ॥43॥
तदनंतर वायु के समान तीव्र गति से जाते और दुर्लक्ष्य पर्वतों से युक्त पृथिवी को देखते हुए नारद लंका की ओर चले । उस समय उनके मन में कुछ शंका तथा कुछ आश्चर्य― दोनों ही उत्पन्न हो रहे थे ॥44॥ चलते-चलते नारद जब लंका के समीप पहुँचे तब ऐसा विचार करने लगे कि मैं उपाय के बिना राम-लक्ष्मण का समाचार किस प्रकार ज्ञात करूँ ? ॥45॥ यदि साक्षात् रावण से राम-लक्ष्मण की वार्ता पूछता हूँ तो इसमें दोष दिखायी देता है । क्या करूँ ? कुछ स्पष्ट मार्ग दिखायी नहीं देता ॥46॥ अथवा मैं इसी क्रम से इच्छित वार्ता को जानूँगा । इस प्रकार मन में ध्यान कर निश्चिंत हो पद्म सरोवर की ओर गये ॥47॥ उस समय उस पद्म सरोवर में उत्तम शोभा को धारण करने वाला अंगद अपने अंतःपुर के साथ क्रीड़ा कर रहा था ॥48॥ वहाँ जाकर नारद मधुर वार्ता द्वारा तट पर स्थित किसी पुरुष से रावण की कुशलता पूछते हुए क्षण भर खड़े रहे ॥49॥ उनके वचन सुन, जिनके ओंठ काँप रहे थे ऐसे सेवक कुपित हो बोले कि रे तापस ! तू इस तरह दुष्टतापूर्ण वार्ता क्यों कर रहा है ? ॥50॥ रावण के वर्ग का तू दुष्ट तापस यहाँ कहाँ से आ गया ? इस प्रकार कहकर तथा घेरकर किंकर लोग उन्हें अंगद के समीप ले गये ॥51 ।। यह तापस रावण की कुशल पूछता है । इस प्रकार जब किंकरों ने अंगद से कहा तब नारद ने उत्तर दिया कि मुझे रावण से कार्य नहीं है ।।52॥ तब किंकरों ने कहा कि यदि यह सत्य है तो फिर तू हर्षित हो रावण का कुशल पूछने में परम आदर से युक्त क्यों है ? ॥53 ।। तदनंतर अंगद ने हँसकर कहा कि जाओ इस खोटी चेष्टा के धारक मूर्ख तापस को शीघ्र ही पद्मनाभ के दर्शन कराओ अर्थात् उनके पास ले जाओ ॥54॥ अंगद के इतना कहते ही कितने ही किंकर नारद की भुजा खींचकर आगे ले जाने लगे और कितने ही पीछे से प्रेरणा देने लगे । इस प्रकार किंकरों द्वारा कष्ट पूर्वक ले जाये गये नारद ने मन में विचार किया कि इस पृथ्वीतल पर पद्मनाभ नाम को धारण करने वाले बहुत से पुरुष हैं । न जाने वह पद्मनाभ कौन है जिसके कि पास मैं ले जाया जा रहा हूँ ? ॥55-56 ।। जिनशासन से स्नेह रखने वाली कोई देवी मेरी रक्षा करे, मैं अत्यंत संशय में पड़ गया हूँ ॥57॥
अथानंतर चोटी तक जिनके प्राण पहुँच गये थे, तथा जिन्हें अत्यधिक कँपकँपी छूट रही थी ऐसे नारद उत्तम गुहा का आकार धारण करने वाले विभीषण के घर के द्वार में प्रविष्ट हुए ॥58॥ वहाँ दूर से ही राम को देख, जिनका चित्त सहसा हर्ष को प्राप्त हो रहा था ऐसे पसीने से लथपथ नारद ने अहो अन्याय हो रहा है । इस प्रकार जोर से आवाज लगाई ॥59॥ राम ने नारद का शब्द सुन उनकी ओर दृष्टि डालकर पहिचान लिया कि ये तो अवद्वार नामक नारद हैं । उसी समय उन्होंने आदर के साथ सेवकों से कहा कि इन्हें छोड़ो, शीघ्र छोड़ो । तदनंतर सेवकों ने जिन्हें तत्काल छोड़ दिया था ऐसे नारद श्रीराम के पास जाकर हर्षित हो सामने खड़े हो गये ॥60-61॥ जिनका भय छूट गया था ऐसे ऋद्धि मंगलमय आशीर्वादों से राम-लक्ष्मण का अभिनंदन कर दिये हुए सुखासन पर बैठ गये ॥62॥
तदनंतर श्रीराम ने कहा कि आप तो अवद्वारगति नामक क्षुल्लक हैं । इस समय कहाँ से आ रहे हैं ? इस प्रकार श्रीराम के कहने पर नारद ने क्रम-क्रम से कहा कि ॥63 ।। मैं दुःखरूपी सागर में निमग्न हुए आपकी माता के पास से उनका समाचार जताने के लिए आपके चरणकमलों के समीप आया हूँ ॥64॥ इस समय आपकी माता माननीय भगवती अपराजिता देवी आपके बिना बड़े कष्ट में हैं, वे रात-दिन आँसुओं से मुख प्रक्षालित करती रहती हैं ॥65 ।। जिस प्रकार अपने बालक के बिना सिंही व्याकुल रहती है उसी प्रकार आपके बिना वे व्याकुल रहती हैं । उनके बाल बिखरे हुए हैं तथा वे पृथ्वी पर लोटती रहती हैं ॥66॥ हे देव ! वे ऐसा विलाप करती हैं कि उस समय स्पष्ट ही पत्थर भी कोमल हो जाता है ।।67॥ तुम सत्पुत्र के रहते हुए भी वह पुत्रवत्सला, महागुण धारिणी स्तुति के योग्य उत्तम माता कष्ट क्यों उठा रही है ? ॥68॥ यदि अपने वियोगरूपी सूर्य से सूखी हुई उस माता के आप शीघ्र ही दर्शन नहीं करते हैं तो मैं समझता है कि आजकल में ही उसके प्राण छूट जावेंगे ॥69॥ अतः प्रसन्न होओ, चलो, उठो, माता के दर्शन करो । क्यों बैठे हो ? यथार्थ में इस संसार में माता ही सर्वश्रेष्ठ बंधु है ॥70॥ जो बात आपकी माता की है ठीक यही बात दुःख से कैकेयी सुमित्रा की हो रही है । उसने अश्रु बहा-बहाकर महल के फर्श को मानो छोटा-मोटा तालाब ही बना दिया है ॥71 ।। आप दोनों के वियोग से उसे न आहार में, न शयन में, न दिन में और न रात्रि में थोड़ा भी आनंद प्राप्त होता है ॥72॥ वह पुत्र-वियोग से कुररी के समान रुदन करती रहती है तथा अत्यंत विह्वल हो दोनों हाथों से छाती और शिर पीटती रहती है ।।73 ।। हाय लक्ष्मण बेटा ! आओ माता को जीवित करो, शीघ्र ही वचन बोलो इस प्रकार वह निरंतर विलाप करती रहती है ।।74॥ पुत्रों के वियोगरूपी तीव्र अग्नि की ज्वालाओं से जिनके शरीर व्याप्त हैं ऐसी दोनों माताओं को दर्शनरूपी अमृत की धाराओं से शांति प्राप्त कराओ ॥75॥ यह सुनकर राम, लक्ष्मण दोनों भाई अत्यंत दुःखी हो उठे, उनके नेत्रों से आँसू निकलने लगे । तब विद्याधरों ने उन्हें सांत्वना प्राप्त कराई ।।76 ।।
तदनंतर किसी तरह धैर्य को प्राप्त हुए राम ने कहा कि अहो ऋषे ! आपने हमारा बड़ा उपकार किया ।।77 ।। खोटे कर्म के उदय से माता हम लोगों की स्मृति से ही छूट गई थी सो आपने उसका हमें स्मरण करा दिया । इससे प्रिय बात और क्या हो सकती है ? ।।78 ।। संसार में वह मनुष्य बड़ा पुण्यात्मा है जो माता की विनय में तत्पर रहता है तथा किंकर भाव को प्राप्त हो उसकी सेवा करता है ॥79 ।। इस प्रकार माता के महास्नेह रूपी रस से जिनका मन आर्द्र हो रहा था ऐसे राजा रामचंद्र ने लक्ष्मण के साथ नारद की बहुत पूजा की ॥80॥ और अत्यंत संभ्रांत चित्त हो विभीषण को बुलाकर भामंडल तथा सुग्रीव के समीप इस प्रकार कहा कि हे विभीषण ! इंद्रभवन के समान आपके इस भवन में हम लोगों का बिना जाने ही बहुत भारी काल व्यतीत हो गया है ।। 81-82॥ जिस प्रकार ग्रीष्मकालीन सूर्य की किरणों के समूह से संतापित मनुष्य के हृदय में सदा उत्तम सरोवर विद्यमान रहता है उसी प्रकार हमारे हृदय में यद्यपि चिरकाल से माता के दर्शन की लालसा विद्यमान थी तथापि आज उस वियोगाग्नि के स्मरणमात्र से मेरे अंग-अंग अत्यंत संतप्त हो उठे हैं सो मैं माता के दर्शनरूपी जल के द्वारा उन्हें अत्यंत शांति प्राप्त कराना चाहता हूँ ॥83-84॥ आज अयोध्या नगरी को देखने के लिए मेरा मन अत्यंत उत्सुक हो रहा है क्योंकि वह दूसरी माता के समान मुझे अधिक स्मरण दिला रही है ॥85॥
तदनंतर विभीषण ने कहा कि हे स्वामिन् ! आप जैसी आज्ञा दें, वैसा ही होगा । आपका हृदय शांति को प्राप्त हो यही हमारी भावना है ॥86॥ हम माताओं को यह शुभ वार्ता सूचित करने के लिए अयोध्या नगरी के प्रति दूत भेजते हैं जिससे आपका आगमन जानकर माताएँ सुख को प्राप्त होंगी ।।87॥ हे विभो ! हे आश्रितजनवत्सल ! आप सोलह दिन तक इस नगर में ठहरने के लिए मेरे ऊपर प्रसन्नता कीजिये ।।88 ।। इतना कहकर विभीषण ने अपना मणि सहित मस्तक राम के चरणों में रख दिया और तब तक रखे रहा तब तक कि उन्होंने स्वीकृत नहीं कर लिया ॥89॥
अथानंतर महल के शिखर पर खड़ी अपराजिता (कौशल्या) निरंतर दक्षिण दिशा की ओर देखती रहती थी । एक दिन उसने दूर से विद्याधरों को आते देख समीप में खड़ी कैकयी (सुमित्रा) से कहा कि हे कैकयि ! देख-देख वे बहुत दूरी पर वायु से प्रेरित मेघों के समान विद्याधर शीघ्रता से इसी ओर आ रहे हैं ।।60-61॥ हे श्राविके ! जान पड़ता है कि ये छोटे भाई सहित मेरे पुत्र के द्वारा भेजे हुए हैं और आज अवश्य ही शुभ वार्ता कहेंगे ॥62॥ कैकयी ने कहा कि जैसा आप कहती हैं सर्वथा ऐसा ही हो । इस तरह जब तक उन दोनों में वार्ता चल रही थी तब तक वे विद्याधर दूत समीप में आ गये ॥63 ।। पुष्पवर्षा करते हुए उन्होंने आकाश से उतरकर भवन में प्रवेश किया और अपना परिचय दे हर्षित होते हुए वे भरत के पास गये ।।64॥ राजा भरत ने हर्षित हो उनका सन्मान किया और आशीर्वाद देते हुए वे योग्य आसनों पर आरूढ़ हुए ॥65॥ सुंदर चित्त को धारण करने वाले उन विद्याधर दूतों ने सब समाचार यथायोग्य कहे । उन्होंने कहा कि राम को बलदेव पद प्राप्त हुआ है । लक्ष्मण के चक्ररत्न प्रकट हुआ है तथा उन्हें नारायण पद मिला है । राम लक्ष्मण दोनों को भरतक्षेत्र का उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त हुआ है । युद्ध में लक्ष्मण के द्वारा घायल हो रावण मृत्यु को प्राप्त हुआ है, वंदीगृह में रहने वाले इंद्रजित् आदि ने जिनदीक्षा धारण कर ली है, देशभूषण और कुलभूषण मुनि का उपसर्ग दूर करने से गरुड़ेंद्र प्रसन्न हुआ था सो उसके द्वारा राम-लक्ष्मण को सिंहवाहिनी तथा गरुडवाहिनी विद्याएँ प्राप्त हुई हैं । विभीषण के साथ महाप्रेम उत्पन्न हुआ है, उत्तमोत्तम भोग-संपदाएँ प्राप्त हुई हैं तथा लंका में उनका प्रवेश हुआ है ।।96-99 । इस प्रकार राम-लक्ष्मण के अभ्युदय सूचक समाचारों से प्रसन्न हुए राजा भरत ने उन दूतों को माला पान तथा सुगंध आदि के द्वारा सन्मान किया ॥100॥
तदनंतर भरत उन विद्याधरों को लेकर उन माताओं के पास गया और विद्याधरों ने निरंतर शोक करने तथा अश्रुपूर्ण नेत्रों को धारण करने वाली उन माताओं को आनंदित किया ॥101 ।। राम-लक्ष्मण की माताओं और उन विद्याधर दूतों के बीच मन को प्रसन्न करने तथा उनकी विभूति को सूचित करने वाली यह मनोहर कथा जब तक चलती है तब तक सुवर्ण और रत्नादि से परिपूर्ण हजारों शीघ्रगामी वाहनों से सूर्य का मार्ग रोककर रंग-बिरंगे मेघों का आकार धारण करने वाले हजारों विद्याधरों के झुंड उस तरह आ पहुँचे जिस तरह कि जिनेंद्रावतार के समय महातेजस्वी देव आ पहुँचते हैं ।।102-104 ।। तदनंतर आकाश में स्थित उन विद्याधरों ने सब ओर से दिशाओं को प्रकाश के द्वारा परिपूर्ण करने वाली नाना रत्नमयी वृष्टि छोड़ी ॥105॥ अयोध्या के भर जाने पर हर एक कुटुंब के घर में पर्वतों के समान सुवर्णादि की राशियाँ लग गई ॥106॥ जान पड़ता था कि अयोध्या निवासी लोगों ने जंमांतर में पुण्यकर्म किये थे अथवा स्वर्ग से चयकर वहाँ आये थे इसीलिए तो उन्हें उस समय उस प्रकार की लक्ष्मी प्राप्त हुई थी ॥207॥ उसी समय भरत ने नगर में यह घोषणा दिलवाई कि जो रत्न तथा स्वर्णादि वस्तुओं से संतोष को प्राप्त नहीं हुआ हो वह पुरुष अथवा स्त्री निर्भय हो राजमहल में प्रवेश कर अपनी इच्छानुसार द्रव्य से अपने घर को भर ले ॥108-109॥ उस घोषणा को सुनकर अयोध्यावासी लोगों ने आकर कहा कि हमारे घर में खाली स्थान ही नहीं है ।।110॥ विस्मयरूपी सूर्य के संपर्क से जिनके मुखकमल खिल रहे थे तथा जिनकी दरिद्रता नष्ट हो चुकी थी ऐसी स्त्रियाँ राम की स्तुति कर रही थीं ॥111।। उसी समय बहुत से चतुर विद्याधर कारीगरों ने आकर चाँदी तथा सुवर्णादि के लेप से भवन की भूमियों को लिप्त किया ॥112॥ अच्छे-अच्छे बहुत से जिन-मंदिर तथा विंध्याचल के शिखरों के समान अत्यंत उन्नत बड़े-बड़े महलों के समूह की रचना की ॥113॥ जो हजारों खंभों से सहित थे, मोतियों की मालाओं से सुशोभित थे, तथा नाना प्रकार के पुतलों से युक्त थे ऐसे विविध प्रकार के मंडप बनाये ॥114॥ दरवाजे किरणों से चमकते हुए बड़े-बड़े रत्नों से खचित किये तथा पताकाओं की पंक्ति से युक्त तोरणों के समूह खड़े किये ॥115॥ इस तरह जो अनेक आश्चर्यों से परिपूर्ण थी तथा जिसमें निरंतर महोत्सव होते रहते थे ऐसी वह अयोध्या नगरी लंका आदि को जीतने वाली हो रही थी ॥116॥ महेंद्रगिरि के शिखरों के समान आभा वाले जिनमंदिरों में निरंतर संगीत ध्वनि के साथ अभिषेकोत्सव होते रहते थे ॥117॥ जो जलभृत मेघों के समान श्याम वर्ण थे तथा जिन पर भ्रमर गुंजार करते रहते थे ऐसे बाग-बगीचे उत्तमोत्तम फूलों और फलों से युक्त हो गये थे ॥118॥ बाहर की समस्त दिशाओं में अर्थात् चारों ओर प्रमुदित जंतुओं से युक्त नंदनवन के समान सुंदर वनों से वह नगरी अत्यंत मनोहर जान पड़ती थी ॥119॥ वह नगरी नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लंबी और अड़तीस योजन परिधि से सहित थी ॥120।। सोलह दिनों में चतुर विद्याधर कारीगरों ने अयोध्या को ऐसा बना दिया कि सौ वर्षों में भी उसकी स्तुति नहीं हो सकती थी ॥121 ।। जिनमें सुवर्ण की सीढ़ियाँ लगी थी ऐसी वापिकाएँ तथा जिनके सुंदर-सुंदर तट थे ऐसी परिखाएँ कमल आदि के फूलों से आच्छादित हो गई और उनमें इतना पानी भर गया कि ग्रीष्मऋतु में भी नहीं सूख सकती थीं ॥122 ।। जो स्नान संबंधी क्रीड़ा से उपभोग करने योग्य थीं, जिनके तटों पर उत्तमोत्तम जिनालय स्थित थे तथा जो हरे भरे वृक्षों की कतारों से सुशोभित थीं ऐसी परिखाएँ उत्तम शोभा धारण करती थीं ॥123॥ अयोध्या पुरी को स्वर्गपुरी के समान की हुई जानकर हल के धारक श्रीराम ने स्थान-स्थान पर आगामी दिन प्रस्थान को सूचित करने वाली घोषणा दिलवाई ॥124॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! आकाशरूपी आँगन में विहार करने वाले नारद ऋषि ने जब से माताओं संबंधी समाचार सुनाया था तभी से राम-लक्ष्मण अपनी-अपनी माताओं को हृदय में धारण कर रहे थे ॥125॥ पूर्वभव में किये हुए पुण्यकर्म के प्रभाव से प्राणियों के समस्त अचिंतित कार्य सुंदरता को प्राप्त होते हैं इसलिए समस्त लोग सदा पुण्य संचय करने में तत्पर रहें जिससे कि उन्हें चिंतारूपी सूर्य का संताप न भोगना पड़े ॥126 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में अयोध्या का वर्णन करने वाला इक्यासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥81॥