ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 83
From जैनकोष
तेरासीवाँ पर्व
अथानंतर जिसे अत्यंत कौतुक उत्पन्न हुआ था ऐसे राजा श्रेणिक ने शिर से प्रणाम कर गौतम स्वामी से पूछा कि हे भगवन् ! उन राम-लक्ष्मण के घर में लक्ष्मी का विस्तार कैसा था ? ॥1।। तब गौतम स्वामी ने कहा कि हे राजन् ! यद्यपि राम-लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न के भोगों का वर्णन संपूर्ण रूप से नहीं किया जा सकता तथापि हे राजन् ! बलभद्र और नारायण के प्रभाव से उनके जो वैभव प्रकट हुआ था वह संक्षेप से कहता हूँ सो सुन ।।2-3॥
उनके अनेक द्वारों तथा उच्च गोपुरों से युक्त, इंद्रभवन के समान सुंदर लक्ष्मी का निवासभूत नंद्यावर्त नाम का भवन था ।।4॥ किसी महागिरि के शिखरों के समान ऊँचा चतुःशाल नाम का कोट था, वैजयंती नाम की सभा थी । चंद्रकांत मणियों से निर्मित सुवीथी नाम की मनोहर शाला थी, अत्यंत ऊँचा तथा सब दिशाओं का अवलोकन कराने वाला प्रासाद कूट था, विंध्यगिरी के समान ऊँचा वर्द्धमानक नामक प्रेक्षागृह था, अनेक प्रकार के उपकरणों से युक्त कार्यालय थे, उनका गर्भगृह कुक्कुटी के अंडे के समान महान् आश्चर्यकारी था, एक खंभे पर खड़ा था, और कल्पवृक्ष के समान मनोहर था, ॥5-8।। उस गर्भगृह को चारों ओर से घेर कर तरंगाली नाम से प्रसिद्ध तथा रत्नों से देदीप्यमान रानियों के महलों की पंक्ति थी ॥6॥ बिजली के खंडों के समान कांति वाला अंभोजकांड नाम का शय्या गृह था, सुंदर, सुकोमल स्पर्श वाली तथा सिंह के शिर के समान पायों पर स्थित शय्या थी, उगते हुए सूर्य के समान उत्तम सिंहासन था, चंद्रमा की किरणों के समूह के समान चमर थे ।।10-11॥ इच्छानुकूल छाया को करने वाला चंद्रमा के समान कांति से युक्त बड़ा भारी छत्र था, सुख से गमन कराने वाली विषमोचिका नाम की दो खड़ाऊँ थीं ॥12॥ अनर्घ्य वस्त्र थे, दिव्य आभूषण थे, दुर्भेद्य कवच था, देदीप्यमान मणिमय कुंडलों का जोड़ा था, कभी व्यर्थ नहीं जाने वाले गदा, खड्ग, कनक, चक्र, वाण तथा रणांगण में चमकने वाले अन्य बड़े-बड़े शस्त्र थे ॥13-14॥ पचास लाख हल थे, एक करोड़ से अधिक अपने आप दूध देने वाली गायें थीं ॥15॥ जो अत्यधिक संपत्ति के धारक थे तथा निरंतर न्याय में प्रवृत्त रहने थे ऐसे अयोध्या नगरी में निवास करने वाले कुलों की संख्या कुछ अधिक सत्तर करोड़ थी ॥16॥ गृहस्थों के समस्त घर अत्यंत सफेद, नाना आकारों के धारक, अक्षीण खजानों से परिपूर्ण तथा रत्नों से युक्त थे ॥17॥ नाना प्रकार के अन्नों से परिपूर्ण नगर के बाह्य प्रदेश छोटे मोटे गोल पर्वतों के समान जान पड़ते थे और पक्के फरसों से युक्त भवनों की चौशालें अत्यंत सुखदायी थीं ॥18॥ उत्तमोत्तम बगीचों मध्य में स्थित, नाना प्रकार के फूलों से सुशोभित, उत्तम सीढ़ियों से युक्त एवं क्रीडा के योग्य अनेकों वापिकाएँ थीं ॥19॥ देखने के योग्य अर्थात् सुंदर-सुंदर गायों और भैंसों के समूह से युक्त वहाँ के कुटुंबी अत्यधिक सुख से सहित होने के कारण उत्तम देवों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥20॥ सेना के नायक स्वरूप जो सामंत थे वे लोकपालों के समान कहे गये थे तथा विशाल तेज के धारक राजा लोग महेंद्र के समान वैभव से युक्त थे ।।22।। अप्सराओं के समान संसार के सुख की भूमि स्वरूप अनेक सुंदरी स्त्रियाँ थीं, और इच्छानुकूल सुख के देने वाले अनेक उपकरण थे ॥22॥ जिस प्रकार पहले, चक्ररत्न को धारण करने वाले राजा हरिषेण के द्वारा यह भरत क्षेत्र परम शोभा को प्राप्त हुआ था उसी प्रकार यह भरत क्षेत्र राम के द्वारा परम शोभा को प्राप्त हुआ था ॥23।। अत्यधिक संपदा को धारण करने वाले भव्यजन जिनकी निरंतर पूजा करते थे ऐसे हजारों चैत्यालय श्री रामदेव ने निर्मित कराये थे । ॥24॥ देश, गाँव, नगर, वन, घर और गलियों के मध्य में स्थित सुखिया मनुष्य मंडल बाँध-बाँधकर सदा यह चर्चा करते रहते थे ॥25।। कि देखो यह समस्त साकेत देश, इस समय आश्चर्यकारी स्वर्ग लोक की उपमा प्राप्त करने के लिए उद्यत है ॥26।। जिस देश के मध्य में जिनका वर्णन करना शक्य नहीं है ऐसे ऊँचे ऊँचे भवनों से अयोध्यापुरी इंद्र की नगरी के समान सुशोभित हो रही है ॥27॥ वहाँ के बड़े-बड़े विद्यालयों को देखकर यह संदेह उत्पन्न होता था कि क्या ये तेज से आवृत देवों के क्रीड़ाचल हैं अथवा शरद् ऋतु के मेघों का समूह है ? ॥28।। इस नगरी का यह प्राकार समस्त दिशाओं को देदीप्यमान कर रहा है, अत्यंत ऊँचा है, समुद्र की वेदिका के समान है और बड़े-बड़े शिखरों से सुशोभित है ॥26॥ जिसने अपनी किरणों से आकाश को प्रकाशित कर रक्खा है तथा जिसका चिंतवन मन से भी नहीं किया जा सकता ऐसे सुवर्ण और रत्नों की राशि जैसी अयोध्या में थी वैसी तीनलोक में भी अन्यत्र उपलब्ध नहीं थी ॥30॥ जान पड़ता है कि पुण्यजनों के द्वारा भरी हुई यह शुभ और शोभायमान नगरी श्रीरामदेव के द्वारा मानो अन्य ही कर दी गई है ॥31॥ संप्रदाय वश सुनने में आता है कि स्वर्ग नाम का कोई सुंदर पदार्थ है सो ऐसा लगता है मानो उस स्वर्ग को लेकर ही राम-लक्ष्मण यहाँ पधारे हो ॥32॥ अथवा यह वही पहले की उत्तरकोशल पुरी है जो कि पुण्यहीन मनुष्यों के लिए अत्यंत दुर्गम हो गई है ॥32॥ ऐसा जान पड़ता है कि इस कांति को प्राप्त हुई यह नगरी श्री रामचंद्र के द्वारा इसी शरीर तथा स्त्री पशु और धनादि सहित लोगों के साथ ही साथ स्वर्ग भेज दी गई है ॥34॥
इस नगरी में यही एक सबसे बड़ा दोष दिखाई देता है जो कि महानिंदा और लज्जा का कारण है तथा सत्पुरुषों के अत्यंत दुःखपूर्वक छोड़ने के योग्य है ॥35।। वह दोष यह है कि विद्याधरों का राजा रावण सीता को हर ले गया था सो उसने अवश्य ही उसका सेवन किया होगा । अब वही सीता फिर से लाई गई है सो क्या राम को ऐसा करना उचित है ? ॥36।। अहो जनो ! देखो जब क्षत्रिय, कुलीन, ज्ञानी और मानी पुरुष का यह काम है तब अन्य पुरुष का क्या कहना है ॥37।। इस प्रकार क्षुद्र मनुष्यों के द्वारा प्रकट हुआ सीता का अपवाद, पूर्व कर्मोदय से लोक में सर्वत्र विस्तार को प्राप्त हो गया ॥38॥
अथानंतर स्वर्ग को लज्जा करने वाले इस नगर में रहता हुआ भरत इंद्र तुल्य भोगों से भी प्रीति को प्राप्त नहीं हो रहा था ॥36॥ वह यद्यपि डेढ़ सौ स्त्रियों का प्राणनाथ था तथापि निरंतर उस उन्नत राज्यलक्ष्मी के साथ द्वेष करता रहता था ॥40॥ वह ऐसे मनोहर क्रीड़ास्थल में जो कि छपरियों-अट्टालिकाओं, शिखरों और देहलियों की मनोहर कांति से युक्त, पंक्तिबद्ध रचित बड़े-बड़े महलों से सुशोभित था, जहाँ के फर्श नाना प्रकार के रंग-बिरंगे मणियों से बने हुए थे, जहाँ सुंदर सुंदर वापिकाएँ थीं, जो मोतियों की मालाओं से व्याप्त था, सुवर्ण जटित था, जहाँ वृक्ष फूलों से युक्त थे, जो अनेक आश्चर्यकारी पदार्थों से व्याप्त था, समयानुकूल मन को हरण करने वाला था, बांसुरी और मृदंग के बजने का स्थान था, सुंदरी स्त्रियों से युक्त था, जिसके समीप ही मदभीगे कपोलों से युक्त हाथी विद्यमान थे, जो मद की गंध से सुवासित था, घोड़ों की हिनहिनाहट से मनोहर था, जहाँ कोमल संगीत हो रहा था, जो रत्नों के प्रकाशरूपी पट से आवृत था, तथा देवों के लिए भी रुचिकर था, धैर्य को प्राप्त नहीं होता था। चकित चित्त का धारक भरत संसार से अत्यंत भयभीत रहता था। जिस प्रकार शिकारी से भय को प्राप्त हुआ हरिण सुंदर स्थानों में धैर्य को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार भरत भी उक्त प्रकार के सुंदर स्थानों में धैर्य को प्राप्त नहीं हो रहा था ॥41-46॥
वह सोचता रहता था कि मनुष्य पर्याय बड़े दुःख से प्राप्त होती है फिर भी पानी की बूंद के समान चंचल है, यौवन फेन के समूह के समान भंगुर तथा अनेक दोषों से संकट पूर्ण है ॥47॥ भोग अंतिम काल में विरस अर्थात् रस से रहित है, जीवन स्वप्न के समान है और भाई-बंधुओं का संबंध पक्षियों के समागम के समान है ॥48॥ ऐसा निश्चय करने के बाद भी जो मनुष्य मोक्ष-सुखदायी धर्म धारण नहीं करता है वह पीछे जरा से जर्जर चित्त हो शोकरूपी अग्नि से जलता रहता है ॥46॥ जो मूर्ख मनुष्यों को प्रिय है, अपवाद अर्थात् निंदा का कुलभवन है एवं संध्या के प्रकाश के समान विनश्वर है ऐसे नवयौवन में क्या राग करना है ? ॥50॥ जो अवश्य ही छोड़ने योग्य है, नाना व्याधियों का कुलभवन है, और रजवीर्य जिसका मूल कारण है ऐसे इस शरीर रूपी यंत्र में क्या प्रीति करना है ? ॥51॥ जिस प्रकार ईंधन से अग्नि नहीं तृप्त होती और जल से समुद्र नहीं तृप्त होता उसी प्रकार जब तक संसार है तब तक सेवन किये हुए विषयों से यह प्राणी तृप्त नहीं होता ॥52॥ जिसकी बुद्धि पाप में आसक्त हो रही है ऐसा पापी मनुष्य कुछ भी नहीं समझता है और लोभी मनुष्य पतंग के समान दारुण दुःख को प्राप्त होता है ॥53॥ जिनका आकार गलगंड के समान है तथा जिनसे निरंतर पसीना झरता रहता है, ऐसे स्तन नामक मांस के घृणित पिंडों में क्या प्रेम करना है ? ॥54॥ जो दाँतरूपी कीड़ों से युक्त है तथा जो तांबूल के रसरूपी रुधिर से सहित है ऐसे छुरी के छाप के समान जो मुखरूपी बिल है उसमें क्या शोभा है ? ॥55।। स्त्रियों की जो चेष्टा मानो वायु के दोष से ही उत्पन्न हुई है अथवा उन्माद-जनित है उसके विलासपूर्ण होने पर भी उसमें क्या प्रीति करना है ? ॥56॥ जो घर के भीतर की ध्वनि के समान है तथा जो मन के धैर्य में निवास करता है (रोदन पक्ष में मन के अधैर्य में निवास करता है) ऐसे संगीत तथा रोदन में कोई विशेषता नहीं दिखाई देती ॥57॥ जिनका शरीर अपवित्र वस्तुओं से तन्मय है तथा जो केवल चमड़े से आच्छादित हैं ऐसी स्त्रियों से उनकी सेवा करने वाले पुरुष को क्या सुख होता है ? ॥8॥ मूर्खमना प्राणी मलभूत घट के समान अत्यंत लज्जाकारी संयोग को प्राप्त हो ‘मुझे सुख हुआ है’ ऐसा मानता है ।।56।। अरे ! जो इच्छामात्र से उत्पन्न होने वाले स्वर्ग संबंधी भोगों के समूह से तृप्त नहीं होता उसे मनुष्य पर्याय के तुच्छ भोगों से कैसे तृप्ति हो सकती है ? ॥60॥ ईंधन बेचने वाला मनुष्य वन में तृणों के अग्रभाग पर स्थित ओस के कणों से तृप्ति को प्राप्त नहीं होता केवल श्रम को ही प्राप्त होता है ॥61॥ उस सौदास को तो देखो जो राजलक्ष्मी से तृप्त नहीं हुआ किंतु इसके विपरीत जिसने नरमांस-भक्षण जैसा अयोग्य कार्य किया ॥62॥ जिस प्रकार प्रवाह युक्त गंगा में मांस के लोभी काक, मृत हस्ती के शव को चींथते हुए तृप्त नहीं होते और अंत में महासागर में प्रविष्ट हो मृत्यु को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार संसार के प्राणी विषयों में तृप्त न हो अंत में भवसागर में डूबते हैं ॥63॥ हे आत्मन् ! मोहरूपी कीचड़ में फंसी यह तेरी प्रजारूपी मेंडकी लोभरूपी तीव्र सर्प के द्वारा ग्रस्त हो आज नरक रूपी बिल में ले जाई जा रही है ॥64।।
इस प्रकार विचार करते हुए उस शांतचित्त के धारक विरागी भरत की दीक्षा में विघ्न करने वाले बहुत से दिन व्यतीत हो गये ।।6।। जिस प्रकार समर्थ होने पर भी पिंजड़े में स्थित सिंह दुखी होता है उसी प्रकार भरत दीक्षा धारण करने में समर्थ होता हुआ भी सर्व दुःख को नष्ट करने वाले जिनेंद्र व्रत को नहीं प्राप्त होता हुआ दुःखी हो रहा था ॥66॥ भरत की माता केकया ने उसे रोकने के लिए राम-लक्ष्मण से याचना की सो अत्यधिक स्नेह के धारक राम-लक्ष्मण ने प्रशांत चित्त भरत को रोक कर इस प्रकार समझाया कि हे भाई ! दीक्षा के अभिलाषी पिता ने तुम्हीं को सकल पृथिवीतल का राजा स्थापित किया था ॥67-68॥ यतश्च पिता ने जगत का शासन करने के लिए निश्चय से आपका अभिषेक किया था इसलिए हम लोगों के भी आप हो स्वामी हो । अतः आप ही लोक का पालन कीजिये ॥66॥ यह सुदर्शन चक्र और ये विद्याधर राजा तुम्हारी आज्ञा के साधन हैं इसलिए पत्नी के समान इस वसुधा का उपभोग करो ।।70।। मैं स्वयं तुम्हारे ऊपर चंद्रमा के समान सफेद छत्र धारण करता हूँ, शत्रुघ्न चमर धारण करता है और लक्ष्मण तेरा मंत्री है ॥71। इस प्रकार कहने पर भी यदि तुम मेरी बात नहीं मानते हो तो मैं फिर उसी तरह हरिण की नाई आज वन में चला जाऊँगा ॥72।। राक्षस वंश के तिलक रावण को जीत कर हम लोग आपके दर्शन संबंधी सुख की तृष्णा से ही यहाँ आये हैं ॥73॥ अभी तुम इस निर्विघ्न विशाल राज्य का उपभोग करो पश्चात् हमारे साथ तपोवन में प्रवेश करना ।।74॥
विषय संबंधी आसक्ति से जिसका हृदय अत्यंत निःस्पृह हो गया था ऐसे भरत ने पूर्वोक्त प्रकार कथन करने में तत्पर एवं उत्तम हृदय के धारक राम से इस तरह कहा कि ॥75।। हे देव ! जिसे छोड़कर तथा उत्तम तप कर वीर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त हुए है मैं उस राज्यलक्ष्मी का शीघ्र ही त्याग करना चाहता हूँ॥76।। हे राजन् ! ये काम और अर्थ चंचल हैं, दुःख से प्राप्त होते हैं, अत्यंत मूर्ख जनों के द्वारा सेवित हैं तथा विद्वज्जनों के द्वेष के पात्र हैं ॥77॥ हे हलायुध ! ये नश्वर भोग स्वर्ग लोक के समान हों अथवा समुद्र की उपमा को धारण करने वाले हों तो भी मेरी इनमें तृष्णा नहीं है ॥78॥ हे राजन् ! जो अत्यंत भयंकर है, मृत्यु रूपी पाताल तक व्याप्त है, जन्म रूपी कल्लोलों से युक्त है, जिसमें रति और अरति रूपी बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, जो राग-द्वेष रूपी बड़े-बड़े मगर-मच्छों से सहित है एवं नाना प्रकार के दुःखों से भयंकर है, ऐसे इस संसाररूपी सागर को मैं व्रतरूपी जहाज पर आरूढ़ हो तैरना चाहता हूँ ॥76-80।। हे राजन् ! नाना योनियों में बार-बार भ्रमण करता हुआ मैं गर्भवासादि के दुःसह दुःख प्राप्त कर थक गया हूँ ॥1॥
इस प्रकार भरत के शब्द सुन जिनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त हो रहे थे, जो आश्चर्य को प्राप्त थे तथा जिनके स्वर कंपित थे ऐसे राजा बोले कि हे राजन् ! पिता का वचन अंगीकृत करो और लोक का पालन करो । यदि लक्ष्मी तुम्हें इष्ट नहीं है तो कुछ समय पीछे मुनि हो जाना ॥82-83॥ इसके उत्तर में भरत ने कहा कि मैंने पिता के वचन का अच्छी तरह पालन किया है, चिरकाल तक लोक की रक्षा की है, भोगसमूह का सम्मान किया है ।।84॥ परम दान दिया है, साधुओं के समूह को संतुष्ट किया है, अब जो कार्य पिता ने किया था वही करना चाहता हूँ ।।85॥ आप लोग मेरे लिए आज ही अनुमति क्यों नहीं देते हैं ? यथार्थ में उत्तम कार्य के साथ तो जिस तरह बने उसी तरह संबंध जोड़ना चाहिए ।।86।। हाथियों की भीड़ से भयंकर युद्ध में शत्रुसमूह को जीतकर नंद आदि पूर्व बलभद्र और नारायणों के समान आपने जो लक्ष्मी उपार्जित की है वह यद्यपि बहुत बड़ी है तथापि मुझे संतोष उत्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं है। जिस प्रकार गंगा नदी समुद्र को तृप्त करने में समर्थ नहीं है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी मुझे तृप्त करने में समर्थ नहीं है, इसलिए अब तो मैं यथार्थ मार्ग में ही प्रवृत्त होता हूँ ।।87-88॥ इस प्रकार कहकर तथा उनसे पूछकर तीव्र संवेग से युक्त भरत संभ्रम के साथ भरत चक्रवर्ती की नाई शीघ्र ही सिंहासन से उठ खड़ा हुआ ।।6।। अथानंतर मनोहर गति को धारण करने वाला भरत ज्यों ही वन को जाने के लिए उद्यत हुआ त्योंही लक्ष्मण ने स्नेह और संभ्रम के साथ उसे रोक लिया अर्थात् उसका हाथ पकड़ लिया ।।60॥ अपने हाथ से लक्ष्मण के करपल्लव को अलग करता हुआ भरत जब तक अविरल अश्रु वर्षा करने वाली माता को समझाता है तब तक राम की आज्ञा से, जिनकी लक्ष्मी के समान चेष्टाएँ थीं तथा जिनके नेत्र वायु से कंपित नील कमल के समान थे ऐसी भरत की स्त्रियाँ आकर उसके प्रति रोदन करने लगीं ॥61-62।। इसी बीच में शरीरधारिणी साक्षात् लक्ष्मी के समान सीता, उर्वी, भानुमती, विशल्या, सुंदरी, ऐंद्री, रत्नवती, लक्ष्मी, सार्थक नाम को धारण करने वाली गुणवती, कांता, बंधुमती, भद्रा, कौबेरी, नलकूबरा, कल्याणमाला, चंद्रिणी, मानसोत्सवा, मनोरमा, प्रियानंदा, चंद्रकांता, कलावती, रत्नस्थली, सुरवती, श्रीकांता, गुणसागरा, पद्मावती, तथा जिनका वर्णन करना अशक्य है ऐसी दोनों भाइयों की अन्य अनेक स्त्रियाँ वहाँ आ पहुँची ॥63-66। उन सब स्त्रियों का आकार मन को हरण करने वाला था, वे सब दिव्य वस्त्राभूषणों से सहित थी, अनेक शुभभावों के उत्पन्न होने की क्षेत्र थीं, स्नेह की वंशज थीं, समस्त कलाओं के समूह एवं फल के दिखाने में तत्पर थीं, घेरकर सब ओर खड़ी थीं, सुंदर चित्त की धारक थीं, लुभावने में उद्यत थीं, मनोहर शब्दों से युक्त थीं, तथा वायु से कंपित कमलिनियों के समूह के समान कांति की धारक थीं। उन सबने बड़े आदर के साथ भरत से कहा ॥17-66।। कि देवर ! हम लोगों पर एक बड़ी प्रसन्नता कीजिए। हम लोग आपके साथ मनोहर जलक्रीडा करना चाहती हैं ।।100॥ हे नाथ ! मन को खिन्न करने वाली अन्य चिंता छोड़िए, और अपनी भौजाइयों के समूह की यह प्रिय प्रार्थना स्वीकृत कीजिए ॥101॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि यद्यपि उन सब स्त्रियों ने भरत को घेर लिया था फिर भी उसका चित्त रंचमात्र भी विकार को प्राप्त नहीं हुआ । केवल दाक्षिण्य वश उसने उनकी प्रार्थना स्वीकृत कर ली ॥102॥
तदनंतर आज्ञा प्राप्त कर राम, लक्ष्मण और भरत की स्त्रियाँ शंका रहित हो परम आनंद को प्राप्त हुई ॥103।। तत्पश्चात् सुंदर चेष्टाओं से युक्त वे कमललोचना स्त्रियाँ भरत को घेरकर महारमणीय सरोवर में उतरी ॥104।। जिसका चित्त तत्त्व के चिंतन करने में लगा हुआ था तथा क्रीड़ा से निःस्पृह था ऐसा भरत केवल स्त्रियों के अनुरोध से ही जल के समागम को प्राप्त हुआ था अर्थात् जल में उतरा था ।।10।। स्त्रियों से घिरा हुआ विनयी भरत, सरोवर में पहुँचकर ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो झुंड का स्वामी गजराज ही हो ॥106।। अपनो विशाल कांति से जल को रंगीन करने वाले, चिकनाई से युक्त, सुंदर तथा सुगंधित तीन उपटन उस भरत की देह पर लगाये गये थे ॥107॥ उत्तम चेष्टाओं से युक्त एवं अतिशय मनोहर राजा भरत, कुछ क्रीड़ा कर तथा अच्छी तरह स्नान कर सरोवर से बाहर निकल आये ॥108।। तदनंतर कमल और नीलोत्पल आदि से जिसने अर्हंत भगवान की महापूजा की थी ऐसा भरत उन आदरपूर्ण स्त्रियों के समूह से अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।109।।
इसी बीच में महामेघ के समान त्रिलोकमंडन नाम का जो प्रसिद्ध गजराज था वह खंभे को तोड़कर अपने निवासगृह से बाहर निकल आया । उस समय वह महाभयंकर शब्द कर रहा था तथा मदजल से आकाश को वर्षायुक्त कर रहा था ।।110-111।। मेघ की सघन विशाल गर्जना के समान उसकी गर्जना सुनकर समस्त अयोध्यापुरी ऐसी हो गई मानो उसके समस्त लोग उन्मत्त ही हो गये हों ॥112॥ जिन्होंने भीड़ के कारण धक्का-मुक्की कर रक्खी थी, तथा जिनके कान और नेत्र भय से स्थिर थे ऐसे इधर-उधर दौड़ने का श्रम उठाने वाले महावतों से युक्त हाथियों से नगर के राजमार्ग भर गये थे ॥113॥ घोड़ों के वेग को ग्रहण करने वाले वे महाभयदायी मदोन्मत्त हाथी इच्छानुकूल दशों दिशाओं में बिखर गये― फैल गये ॥114॥ जिसके महाशिखर सुवर्ण तथा रत्नमय थे ऐसे पर्वत के समान विशाल गोपुर को तोड़कर वह त्रिलोकमंडन हाथी जिस ओर भरत विद्यमान था उसी ओर गया ॥115॥ तदनंतर जिनके नेत्र भय से व्याकुल थे और जो बहुत भारी बेचैनी से युक्त थीं ऐसी समस्त स्त्रियाँ रक्षा के निमित्त भरत के समीप उस प्रकार पहुँची जिस प्रकार कि किरणें सूर्य के समीप पहुँचती हैं ॥116।। उस गजराज को भरत के सन्मुख जाता देख, लोग चारों ओर 'हाय हाय' इस प्रकार जोर से विलाप करने लगे ॥117॥ पुत्र स्नेह में तत्पर माताएँ भी महा उद्वेग से सहित, परम शंका से युक्त तथा अत्यंत विह्वल हो उठीं ॥118।। उसी समय छल तथा महाविज्ञान से युक्त राम और लक्ष्मण, कमर कसकर भय से पीडित विद्याधर महावतों को दूर हटा उस अतिशय चपल गजराज को बलपूर्वक पकड़ने के लिए उद्यत हुए ॥116-120।। वह गजराज क्रोधपूर्वक उच्च चिंघाड़ कर रहा था, दुर्दर्शनीय था, प्रबल वेगशाली था और नागपाशों के द्वारा भी नहीं रोका जा सकता था ॥121॥
तदनंतर स्त्रीजनों के अंत में स्थित श्रीमान कमललोचन भरत को देखकर उस हाथी को अपने पूर्व भव का स्मरण हो आया ॥122॥ जिसे बहुत भारी उद्वेग उत्पन्न हुआ था ऐसा वह हाथी सूंड को शिथिल कर भरत के आगे विनय से बैठ गया ॥123।। भरत ने मधुर वाणी में उससे कहा कि अहो गजराज ! तुम किस कारण रोष को प्राप्त हुए हो ॥124॥ भरत के उक्त वचन सुन चैतन्य को प्राप्त हुआ गजराज अत्यंत शांतचित्त हो गया, उसकी चंचलता जाती रही और उसका दर्शन अत्यंत सौम्य हो गया ॥125।। उत्तमोत्तम स्त्रियों के आगे स्थित स्नेहपूर्ण भरत को वह हाथी इस प्रकार देख रहा था मानो स्वर्ग में अप्सराओं के समूह में बैठे हुए इंद्र को ही देख रहा हो ॥126॥
तदनंतर जो परिज्ञानी था, अत्यंत दीर्घ उच्छ्वास छोड़ रहा था ऐसा वह विकाररहित हाथी इस प्रकार की चिंता को प्राप्त हुआ ॥127॥ वह चिंता करने लगा कि यह वही है जो ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में चंद्रमा के समान शुक्ल शोभा को धारण करने वाला मेरा परम मित्र देव था ॥128॥ यह वहाँ से च्युत हो अवशिष्ट पुण्य के कारण उत्तम पुरुष हुआ और खेद है कि मैं निंदित कार्य करता हुआ इस तिर्यंच योनि में उत्पन्न हुआ हूँ ॥126॥ मैं कार्य-अकार्य के विवेक से रहित इस हस्ती पर्याय को कैसे प्राप्त हो गया ? अहो, इस पापपूर्ण चेष्टा को धिक्कार हो ॥130।। अब इस समय पूर्व भव की स्मृति को प्राप्त हो व्यर्थ ही क्यों संताप करूँ, अब तो वह कार्य करता हूँ कि जिससे आत्महित की प्राप्ति हो ॥131।। उद्वेग करना दुःख के छूटने का कारण नहीं है इसलिए मैं पूर्ण आदर के साथ वही उपाय करता हूँ जो दुःख के छूटने का कारण है ॥132।। इस प्रकार जिसे पूर्वभव का स्मरण हो रहा था, जो संसार के विषय में अत्यधिक वैराग्य को प्राप्त हुआ था, जिसकी आत्मा पापरूप चेष्टा से अत्यंत विमुख थी तथा जो पुण्य कर्म के संचय करने की चिंता से युक्त था ऐसा वह त्रिलोकमंडन हाथी भरत के आगे शांति से बैठ गया ॥133।। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! पूर्वभव में किये हुए अशुभकर्म पीछे चलकर उग्र संताप उत्पन्न करते हैं इसलिए हे भव्यजनो ! शुभ कार्य करो क्योंकि सूर्य के रहते हुए स्खलित होना उचित नहीं है ॥134॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में त्रिलोकमंडन हाथी के
क्षुभित होने का वर्णन करने वाला तेरासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥83॥