ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 105 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
ण हवदि जदि सद्दव्वं असद्धुव्वं हवदि तं कहं दव्वं । (105)
हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ॥115॥
अर्थ:
यदि द्रव्य सत् नहीं होगा, तो निश्चित असत् होगा और जो असत् होगा, वह द्रव्य कैसे होगा? और यदि वह सत्ता से भिन्न है, तो भी द्रव्य कैसे होगा; इसलिये द्रव्य स्वयं ही सत्ता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ सत्तद्रव्योरनर्थान्तरत्वे युक्तिमुपन्यस्यति -
यदि हि द्रव्यं स्वरूपत एव सन्न स्यात्तदा द्वितयी गति: असद्वा भवति, सत्तत: पृथग्वा भवति । तत्रासद्भवद्ध्रौव्यस्यासंभवादात्मानमधारयद्द्रव्यमेवास्तं गच्छेत् ।
सत्तत: पृथग्भवत् सत्तमन्तरेणात्मानं धारयत्तवन्मात्रप्रयोजनां सत्तमेवास्तं गमयेत् । स्वरूपतस्तु सद्भवद्ध्रौव्यस्य संभवादात्मानं धारयद्द्रव्यमुद्गच्छेत् । सत्ततोऽपृथग्भूत्वाचात्मानं धारयत्तवन्मात्रप्रयोजनां सत्तमुद्गमयेत् ।
तत: स्वयमेव द्रव्यं सत्त्वेनाभ्युपगन्तव्यं, भावभाववतोरपृथक्त्वेनान्यत्वात् ॥१०५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
यदि द्रव्य स्वरूप से ही १सत् न हो तो दूसरी गति यह हो कि वह (१) २असत् होगा, अथवा (२) सत्ता से पृथक् होगा । वहाँ, (१) यदि वह असत् होगा तो, ध्रौव्य के असंभव के कारण स्वयं स्थिर न होता हुआ द्रव्य का ही ३अस्त हो जायेगा; और (२) यदि सत्ता से पृथक् हो तो सत्ता के बिना भी स्वयं रहता हुआ, इतना ही मात्र प्रयोजन वाली ४सत्ता को ही अस्त कर देगा ।
किन्तु यदि द्रव्य स्वरूप से ही सत् हो तो - (१) ध्रौव्य के सद्भाव के कारण स्वयं स्थिर रहता हुआ, द्रव्य उदित होता है, (अर्थात् सिद्ध होता है); और (२) सत्ता से अपृथक् रहकर स्वयं स्थिर (विद्यमान) रहता हुआ, इतना ही मात्र जिसका प्रयोजन है ऐसी सत्ता को उदित (सिद्ध) करता है ।
इसलिये द्रव्य स्वयं ही सत्त्व (सत्ता) है ऐसा स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि भाव और ५भाववान् का अपृथक्त्व द्वारा अनन्यत्व है ॥१०५॥
१सत् = मौजूद ।
२असत् = नहीं मौजूद ऐसा ।
३अस्त = नष्ट । (जो असत् हो उसका टिकना-मौजूद रहना कैसा? इसलिये द्रव्य को असत् मानने से, द्रव्य के अभाव का प्रसंग आता है अर्थात् द्रव्य ही सिद्ध नहीं होता) ।
४सत्ता का कार्य इतना ही है कि वह द्रव्य को विद्यमान रखे । यदि द्रव्य सत्ता से भिन्न रहकर भी स्थिर रहे तो फिर सत्ता का प्रयोजन ही नहीं रहता, अर्थात् सत्ता के अभाव का प्रसंग आ जायगा ।
५भाववान् = भाववाला । (द्रव्य भाववाला है और सत्ता उसका भाव है । वे अपृथक् हैं, इस अपेक्षा से अनन्य हैं । अपृथक्त्व और अन्यत्व का भेद जिस अपेक्षा से है उस अपेक्षा को लेकर विशेषार्थ आगामी गाथा में कहेंगे, उन्हें यहाँ नहीं लगाना चाहिये, किन्तु यहाँ अनन्यत्व को अपृथक्त्व के अर्थ में ही समझना चाहिये )।