ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 111 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं । (111)
सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि ॥121॥
अर्थ:
इसप्रकर सद्भाव में अवस्थित द्रव्य द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय से सद्भाव निबद्ध और असद्भावनिबद्ध उत्पाद को हमेशा प्राप्त करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथद्रव्यस्य द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां सदुत्पादासदुत्पादौ दर्शयति --
एवंविहसब्भावे एवंविधसद्भावेसत्तालक्षणमुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं गुणपर्यायलक्षणं द्रव्यं चेत्येवंविधपूर्वोक्तसद्भावे स्थितं, अथवा एवंविहं सहावे इति पाठान्तरम् । तत्रैवंविधं पूर्वोक्तलक्षणं स्वकीयसद्भावे स्थितम् । किम् । दव्वं द्रव्यं कर्तृ । किं करोति । सदा लभदि सदा सर्वकालं लभते । किं कर्मतापन्नम् । पादुब्भावं प्रादुर्भावमुत्पादम् । कथंभूतम् । सदसब्भावणिबद्धं सद्भावनिबद्धमसद्भावनिबद्धं च । काभ्यां कृत्वा । दव्वत्थपज्जयत्थेहिं द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यामिति । तथाहि --
यथा यदा काले द्रव्यार्थिकनयेन विवक्षा क्रियते यदेवकटकपर्याये सुवर्णं तदेव कङ्कणपर्याये नान्यदिति, तदा काले सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादितिचेत् । द्रव्यस्य द्रव्यरूपेणाविनष्टत्वात् । यदा पुनः पर्यायविवक्षा क्रियते कटकपर्यायात् सकाशादन्यो यःकङ्कणपर्यायः सुवर्णसम्बन्धी स एव न भवति, तदा पुनरसदुत्पादः । कस्मादिति चेत् । पूर्वपर्यायस्यविनष्टत्वात् । तथा यदा द्रव्यार्थिकनयविवक्षा क्रियते य एव पूर्वं गृहस्थावस्थायामेवमेवं गृहव्यापारंकृतवान् पश्चाज्जिनदीक्षां गृहीत्वा स एवेदानीं रामादिकेवलिपुरुषो निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमात्मध्याने-नानन्तसुखामृततृप्तो जातः, न चान्य इति, तदा सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् ।पुरुषत्वेनाविनष्टत्वात् । यदा तु पर्यायनयविवक्षा क्रियते पूर्वं सरागावस्थायाः सकाशादन्योऽयंभरतसगररामपाण्डवादिकेवलिपुरुषाणां संबन्धी निरुपरागपरमात्मपर्यायः स एव न भवति, तदा पुनरसद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् । पूर्वपर्यायादन्यत्वादिति । यथेदं जीवद्रव्ये सदुत्पादा-सदुत्पादव्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु यथासंभवं ज्ञातव्यमिति ॥१११॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[एवंविहसब्भावे] इसप्रकार के सद्भाव में -
- सत्तालक्षण
- उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण और
- गुण-पर्याय लक्षण
वह इसप्रकार- जैसे
- जिससमय द्रव्यार्थिकनय से विवक्षा की जाती है तो कटक (कड़ा) पर्याय में जो स्वर्ण है वही कंकण पर्याय में है, दूसरा नहीं है; उससमय सद्भावनिबद्ध- विद्यमान वस्तु का ही उत्पाद है । (अविद्यमान नवीनपर्याय उत्पन्न होने पर भी) विद्यमानवस्तु का ही उत्पाद कैसे है? द्रव्य का द्रव्यरूप से अविनाशी होने के कारण विद्यमान वस्तु का ही उत्पाद है । और
- जब पर्याय (पर्यायार्थिकनय) से विवक्षा की जाती है, तब कटकपर्याय से भिन्न जो सुवर्ण सम्बन्धी कंकण पर्याय, वह होती ही नहीं है, तब फिर असत् का उत्पाद है । असत् पर्याय का उत्पाद कैसे है? पूर्व पर्याय का विनाश हो जाने के कारण असत् का उत्पाद है ।
- जब द्रव्यार्थिकनय से विवक्षा की जाती है तब पहले गृहस्थदशा में इस-इस प्रकार के गृह- व्यापार (घर-गृहस्थी के कार्यो) को करते थे, बाद में जिन-दीक्षा (मुनि-दीक्षा) ग्रहण कर, अब वे ही रामादि केवलीपुरुष, निश्चय रत्नत्रयस्वरूप उत्कृष्ट आत्मध्यान से अनन्तसुखरूपी अमृत से तृप्त हुये हैं और दूसरे नहीं; तब सद्भावनिबद्ध (विद्यमानता सहित) ही उत्पाद हुआ है । अविद्यमान नवीनपर्याय उत्पन्न होने पर भी विद्यमान का ही उत्पाद कैसे हुआ? पुरुष (जीव) रूप से नष्ट नहीं होने के कारण, विद्यमान का ही उत्पाद हुआ है । और
- जब पर्यायनय से विवक्षा की जाती है; तब पहले सराग-अवस्था से भिन्न यह भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि केवली-पुरुषों की उपराग-रहित वीतराग-परमात्म-पर्याय वही नहीं है; तब फिर असद्भावनिबद्ध-अविद्यमान का ही उत्पाद हुआ है । अविद्यमान का उत्पाद कैसे होता है? पहले की पर्याय से भिन्नता के कारण अविद्यमान का उत्पाद होता है ।