ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 117 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण । (117)
अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ॥127॥
अर्थ:
[अथ] वहाँ [नामसमाख्यं कर्म] 'नाम' संज्ञावाला कर्म [स्वभावेन] अपने स्वभाव से [आत्मनः स्वभावं अभिभूय] जीव के स्वभाव का पराभव करके, [नरं तिर्यञ्चं नैरयिकं वा सुरं] मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव (-इन पर्यायों को) [करोति] करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ मनुष्यादिपर्यायाः कर्मजनिता इति विशेषेण व्यक्तीकरोति --
कम्मं कर्मरहितपरमात्मनो विलक्षणं कर्मकर्तृ । किंविशिष्टम् । णामसमक्खं निर्नामनिर्गोत्रमुक्तात्मनो विपरीतं नामेति सम्यगाख्या संज्ञा यस्यतद्भवति नामसमाख्यं नामकर्मेत्यर्थः । सभावं शुद्धबुद्धैकपरमात्मस्वभावं अह अथ अप्पणो सहावेण आत्मीयेन ज्ञानावरणादिस्वकीयस्वभावेन करणभूतेन अभिभूय तिरस्कृत्य प्रच्छाद्य तंपूर्वोक्तमात्मस्वभावम् । पश्चात्किं करोति । णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि नरतिर्यग्नारक-सुररूपं करोतीति । अयमत्रार्थः --
यथाग्निः कर्ता तैलस्वभावं कर्मतापन्नमभिभूय तिरस्कृत्य वर्त्याधारेण दीपशिखारूपेण परिणमयति, तथा कर्माग्निः कर्ता तैलस्थानीयं शुद्धात्मस्वभावं तिरस्कृत्य वर्तिस्थानीयशरीराधारेण दीपशिखास्थानीयनरनारकादिपर्यायरूपेण परिणमयति । ततो ज्ञायतेमनुष्यादिपर्यायाः निश्चयनयेन कर्मजनिता इति ॥११७॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[कम्मं] कर्म रहित परमात्मा से विलक्षण कर्मरूप कर्ता । कर्म किस विशेषता वाला है? [णामसमक्खं] नाम-रहित, गोत्र-रहित मुक्तात्मा से विपरीत 'नाम' ऐसा सम्यक् नाम है जिसका वह 'नाम' नामक कर्म -- नामकर्म है, ऐसा अर्थ है । [सभावं] शुद्ध-बुद्ध एक परमात्म-स्वभाव को, [अह] अब [अप्पणो सहावेण] अपने ज्ञानावरणादि अपने स्वभावरूप साधन द्वारा [अभिभूय] उस पूर्वोक्त आत्म-स्वभाव का तिरस्कार कर । बाद में क्या करता है? [णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि] मनुष्य, तिर्यंच, नारक और देवरूप करता है ।
यहाँ अर्थ यह है -- जैसे अग्निरूपी कर्ता, कर्मरूपी तैल के स्वभाव का तिरस्कार कर बत्ती के माध्यम से दीपशिखा - दीपक की लौ - ज्योतिरूप से परिणमन करता है, उसीप्रकार कर्माग्निरूपी कर्ता, तैल के स्थान पर शुद्धात्म-स्वभाव का तिरस्कार कर, बत्ती के स्थान पर शरीर के माध्यम से दीपशिखा के समान मनुष्य, नारक आदि पर्यायरूप परिणमन करता है । इससे ज्ञात होता है कि मनुष्यादि पर्यायें निश्चयनय से कर्म-जनित हैं ॥१२७॥