ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 118 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
णरणारयतिरियसुरा जीवा खलु णामकम्मणिव्वत्ता । (118)
ण हि ते लद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि ॥128॥
अर्थ:
[नरनारकतिर्यक्सुराः जीवाः] मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूपजीव [खलु] वास्तव में [नामकर्म निर्वृत्ताः] नामकर्म से निष्पन्न हैं । [हि] वास्तव में [स्वकर्माणि] वे अपने कर्मरूप से [परिणममानाः] परिणमित होते हैं इसलिये [ते न लब्धस्वभावाः] उन्हें स्वभावकी उपलब्धि नहीं है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ कुतो मनुष्यादिपर्यायेषु जीवस्य स्वभावाभिभवो भवतीति निर्धारयति -
अमी मनुष्यादय: पर्याया नामकर्मनिर्वृत्त: सन्ति तावत्; न पुररेतावतापि तत्र जीवस्य स्वभावाभिभवोऽस्ति, यथा कनकबद्धमाणिक्यकङ्कणेषु माणिक्यस्य । यत्तत्र नैव जीव: स्वभावमुपलभते तत् स्वकर्मपरिणमनात् पय:पूरवत् । यथा खलु पय:पूर: प्रदेशस्वादाभ्यां पिचुमन्दचन्दनादिवनराजीं परिणमन्न द्रव्यत्वस्वादु-त्वस्वभावमुपलभते; तथात्मापि प्रदेश-भावाभ्यां कर्मपरिणमनान्नामूर्तत्वनिरुपरागविशुद्धिमत्त्वस्वभावमुपलभते ॥११८॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब यह निर्णय करते हैं कि मनुष्यादि पर्यायों में जीव के स्वभाव का पराभव किस कारण से होता है? --
प्रथम तो, यह मनुष्यादिपर्यायें नामकर्म से निष्पन्न हैं, किन्तु इतने से भी वहाँ जीव के स्वभाव का पराभव नहीं है; जैसे कनकबद्ध (सुवर्ण में जड़े हुये) माणिक वाले कंकणों में माणिक के स्वभाव का पराभव नहीं होता । जो वहाँ जीव स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता—अनुभव नहीं करता सो स्वकर्मरूप परिणमित होने से है, पानी के पूर (बाढ़) की भाँति । जैसे पानी का पूर प्रदेश से और स्वाद से निम्ब-चन्दनादिवनराजिरूप (नीम, चन्दन इत्यादि वृक्षों की लम्बी पंक्तिरूप) परिणमित होता हुआ (अपने) द्रवत्व और स्वादुत्वरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा भी प्रदेश से और भाव से स्वकर्मरूप परिणमित होने से (अपने) अमूर्तत्व और निरुपराग विशुद्धिमत्वरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता ॥११८॥