ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 11 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं ॥11॥
अर्थ:
[धर्मेण परिणतात्मा] धर्म से परिणमित स्वरूप वाला [आत्मा] आत्मा [यदि] यदि [शुद्धसंप्रयोगयुक्त:] शुद्ध उपयोग में युक्त हो तो [निर्वाणसुख] मोक्ष सुख को [प्राप्नोति] प्राप्त करता है [शुभोपयुक्त: च] और यदि शुभोपयोग वाला हो तो [स्वर्गसुखम्] स्वर्ग के सुख को (बन्ध को) प्राप्त करता है ॥११॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ चारित्रपरिणामसंपर्कसम्भवतो: शुद्धशुभपरिणामयोरुपादानहानाय फलमालोचयति-
यदायमात्मा धर्मपरिणतस्वभाव: शुद्धोपयोगपरिणतिमुद्वहति तदा नि:प्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणसमर्थचारित्र: साक्षान्मोक्षमवाप्नोति । यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभो-पयोगपरिणत्या संगच्छते तदा सप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थ: कथंचिद्विरुद्ध-कार्यकारिचारित्र: शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदु:खमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति । अत: शुद्धोपयोग उपादेय: शुभोपयोगो हेय: ॥११॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब जिनका चारित्र परिणाम के साथ सम्पर्क (सम्बन्ध) है ऐसे जो शुद्ध और शुभ (दो प्रकार के) परिणाम हैं उनके ग्रहण तथा त्याग के लिये (शुद्ध परिणाम के ग्रहण और शुभ परिणाम के त्याग के लिये) उनका फल विचारते हैं :-
जब यह आत्मा धर्म-परिणत स्वभाव वाला होता हुआ शुद्धोपयोग परिणति को धारण करता है-बनाये रखता है तब, जो विरोधी शक्ति से रहित होने के कारण अपना कार्य करने के लिये समर्थ है ऐसा चारित्रवान होने से, (वह) साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करता है; और जब वह धर्मपरिणत स्वभाव वाला होने पर भी शुभोपयोग परिणति के साथ युक्त होता है तब जो *विरोधी शक्ति सहित होने से स्वकार्य करने में असमर्थ है और कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है ऐसे चारित्र से युक्त होने से, जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्य पर डाल दिया जावे तो वह उसकी जलन से दुःखी होता है, उसी प्रकार वह स्वर्ग सुख के बन्ध को प्राप्त होता है, इसलिये शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है ।
*दान, पूजा, पंच-महाव्रत, देवगुरुधर्म प्रति राग इत्यादिरूप जो शुभोपयोग है वह चारित्रका विरोधी है इसलिये सराग (शुभोपयोगवाला) चारित्र विरोधी शक्ति सहित है और वीतरग चारित्र विरोधी शक्ति रहित है