ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 124 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
णाणं अट्ठवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्धं । (124)
तमणेगविधं भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा ॥134॥
अर्थ:
अर्थ विकल्प (स्व-पर पदार्थों का भिन्नतापूर्वक एक साथ अवभासन-जानना) ज्ञान है; जीव के द्वारा जो किया जा रहा है,वह कर्म है और वह अनेक प्रकार का है; तथा सुख-दुःख को कर्मफल कहा गया है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपमुप-वर्णयति -
अर्थविकल्पस्तावत् ज्ञानम् । तत्र क: खल्वर्थ:, स्वपरविभागेनावस्थितं विश्वं, विकल्प-स्तदाकारावभासनम् ।
यस्तु मुकुन्दहृदयाभोग इव युगपदभासमानस्वपराकारोऽर्थविकल्पस्तद् ज्ञानम् ।
क्रियमाणमात्मना कर्म, क्रियमाण: खल्वात्मा प्रतिक्षणं तेन तेन भावेन भवताय: तद्भाव: स एव कर्मात्मना प्राप्यत्वात् । तत्त्वेकविधमपि द्रव्यकर्मोपाधिसन्निधिसद्भावासद्भावाभ्या-मनेकविधम् । तस्य कर्मणो यन्निष्पाद्यं सुखदु:खं तत्कर्मफलम् । तत्र द्रव्यकर्मोपाधिसान्निध्यासद्भावात्कर्म तस्य फलमनाकुलत्वलक्षणं प्रकृतिभूतं सौख्यं, यत्तु द्रव्यकर्मोपाधिसान्निध्य-सद्भावात्कर्म तस्य फलं सौख्यलक्षणाभावाद्विकृतिभूतं दु:खम् ।
एवं ज्ञानकर्मकर्मफलस्वरूपनिश्चय: ॥१२४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
प्रथम तो, अर्थविकल्प वह ज्ञान है । वहाँ, अर्थ क्या है ? स्व-पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व वह अर्थ है । उसके आकारों का अवभासन वह विकल्प है । और दर्पण के निज विस्तार की भाँति (अर्थात् जैसे दर्पण के निज विस्तार में स्व और पर आकार एक ही साथ प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार) जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थविकल्प वह ज्ञान है ।
जो आत्मा के द्वारा किया जाता है वह कर्म है । प्रतिक्षण उस-उस भाव से होता हुआ आत्मा के द्वारा वास्तव में किया जानेवाला जो उसका भाव है वही, आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है । और वह (कर्म) एक प्रकार का होने पर भी, द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के सद्भाव और असद्भाव के कारण अनेक प्रकार का है ।
उस कर्म से उत्पन्न किया जानेवाला सुख-दुःख वह कर्मफल है । वहाँ, द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के असद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्वलक्षण प्रकृतिभूत सुख है; और द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के सद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल विकृति- (विकार) भूत दुःख है, क्योंकि वहाँ सुख के लक्षण का अभाव है ।
इस प्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफल का स्वरूप निश्चित हुआ ॥१२४॥