ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 126 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो । (126)
परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥136॥
अर्थ:
'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है' -- ऐसा निश्चय करनेवाला श्रमण (मुनि) यदि अन्य (दूसरे) रूप से परिणमित नहीं होता है, तो शुद्धात्मा को प्राप्त करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ सामान्यज्ञेयाधिकारसमाप्तौ पूर्वोक्तभेदभावनायाः शुद्धात्मप्राप्तिरूपं फलं दर्शयति —
कत्ता स्वतन्त्रः स्वाधीनः कर्ता साधको निष्पादकोऽस्मि भवामि । स कः । अप्प त्ति आत्मेति । आत्मेतिकोऽर्थः । अहमिति । कथंभूतः । एकः । कस्याः साधकः । निर्मलात्मानुभूतेः । किंविशिष्टः । निर्विकार-परमचैतन्यपरिणामेन परिणतः सन् । करणं अतिशयेन साधकं साधक तमं करणमुपक रणंक रणकारक महमेक एवास्मि भवामि । क स्याः साधकम् । सहजशुद्धपरमात्मानुभूतेः । केन कृत्वा । रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानपरिणतिबलेन । कम्मं शुद्धबुद्धैकस्वभावेन परमात्मना प्राप्यंव्याप्यमहमेक एव कर्मकारकमस्मि । फलं च शुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मनः साध्यं निष्पाद्यं निज-शुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपाभेदरत्नत्रयात्मकपरमसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादपरिणति-रूपमहमेक एव फलं चास्मि । णिच्छिदो एवमुक्तप्रकारेण निश्चितमतिः सन् समणो सुखदुःख-जीवितमरणशत्रुमित्रादिसमताभावनापरिणतः श्रमणः परममुनिः परिणमदि णेव अण्णं जदि परिणमति नैवान्यं रागादिपरिणामं यदि चेत्, अप्पाणं लहदि सुद्धं तदात्मानं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितत्वेन शुद्धंशुद्धबुद्धैकस्वभावं लभते प्राप्नोति इत्यभिप्रायो भगवतां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवानाम् ॥१३६॥
सूत्रेण पञ्चमस्थलं गतम् । इति सामान्यज्ञेयाधिकारमध्ये स्थलपञ्चकेन भेदभावना गता । इत्युक्त-प्रकारेण 'तम्हा तस्स णमाइं' इत्यादिपञ्चत्रिंशत्सूत्रैः सामान्यज्ञेयाधिकारव्याख्यानं समाप्तम् । इतऊर्ध्वमेकोनविंशतिगाथाभिर्जीवाजीवद्रव्यादिविवरणरूपेण विशेषज्ञेयव्याख्यानं करोति । तत्राष्टस्थलानिभवन्ति । तेष्वादौ जीवाजीवत्वकथनेन प्रथमगाथा, लोकालोकत्वकथनेन द्वितीया, सक्रियनिःक्रियत्व-व्याख्यानेन तृतीया चेति । 'दव्वं जीवमजीवं' इत्यादिगाथात्रयेण प्रथमस्थलम् । तदनन्तरं ज्ञानादि-विशेषगुणानां स्वरूपकथनेन 'लिंगेहिं जेहिं' इत्यादिगाथाद्वयेन द्वितीयस्थलम् । अथानन्तरं स्वकीय-स्वकीयविशेषगुणोपलक्षितद्रव्याणां निर्णयार्थं 'वण्णरस' इत्यादिगाथात्रयेण तृतीयस्थलम् । अथपञ्चास्तिकायकथनमुख्यत्वेन 'जीवा पोग्गलकाया' इत्यादिगाथाद्वयेन चतुर्थस्थलम् । अतः परं द्रव्याणांलोकाकाशमाधार इति कथनेन प्रथमा, यदेवाकाशद्रव्यस्य प्रदेशलक्षणं तदेव शेषाणामिति कथनरूपेण द्वितीया चेति 'लोगालोगेसु' इत्यादिसूत्रद्वयेन पञ्चमस्थलम् । तदनन्तरं कालद्रव्यस्याप्रदेशत्वस्थापनरूपेणप्रथमा, समयरूपः पर्यायकालः कालाणुरूपो द्रव्यकाल इति कथनरूपेण द्वितीया चेति 'समओ दु अप्पदेसो' इत्यादिगाथाद्वयेन षष्ठस्थलम् । अथ प्रदेशलक्षणकथनेन प्रथमा, तिर्यक्प्रचयोर्ध्वप्रचयस्वरूप-कथनेन द्वितीया चेति 'आगासमणुणिविट्ठं' इत्यादिसूत्रद्वयेन सप्तमस्थलम् । तदनन्तरं कालाणुरूपद्रव्यकाल-स्थापनरूपेण 'उप्पादो पद्धंसो' इत्यादिगाथात्रयेणाष्टमस्थलमिति विशेषज्ञेयाधिकारे समुदायपातनिका ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[कत्ता] स्वतन्त्र-स्वाधीन-कर्ता-साधना करने वाला-निष्पन्न करने वाला हूँ-होता हूँ । ऐसा करनेवाला वह कौन है? [अप्प त्ति] ऐसा करने वाला आत्मा ही है । आत्मा-इसका क्या अर्थ है? मैं ऐसा करने वाला हूँ- यह आत्मा का अर्थ है । मैं कैसा हूँ? मैं एक हूँ । मैं किसका साधक हूँ? मैं निर्मल आत्मानुभूति का साधक हूँ । साधना करने वाला मैं किस विशेषता वाला हूँ? विकार रहित परम चैतन्य परिणाम से परिणत होता हुआ मैं निर्मल आत्मानुभूति की साधना करनेवाला हूँ । [करणं] अतिशयरूप से-नियमरूप से साधक-साधकतम करण-उपकरण अर्थात् साधन, नियामक साधनरूप करण कारक मैं एक ही हूँ - होता हूँ । मैं ही करण-कारकरूप से किसका साधक हूँ? करण-कारकरूप से मैं सहज शुद्ध परमात्मा की अनुभूति का साधक हूँ । किसके द्वारा उसका साधक हूँ? रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञानरूप परिणति के बल से उस अनुभूति का साधक हूँ । [कम्मं] शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा द्वारा प्राप्त करने योग्य-व्याप्त होने योग्य मैं एक ही कर्म कारक हूँ । [फलं च] - और शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी परमात्मा का सिद्ध करने योग्य, रचने योग्य, स्वशुद्धात्मा की रुचि-जानकारी-निश्चल अनुभूति अर्थात् सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप अभेद रत्नत्रय स्वरूप परम समाधि -पूर्णस्वरूप लीनता से उत्पन्न सुखरूपी अमृतरस के आस्वादमयी परिणतिरूप मैं एक ही फल हूँ । [णिच्छिदो] इसप्रकार कही गई पद्धति से निश्चितमति- दृढ़ निश्चयी होता हुआ [समणो] सुख-दुःख, जीवन-मरण, शत्रु-मित्र आदि में समभावरूप से परिणत श्रमण-महामुनि [परिणमदि णेव अण्णं जदि] यदि अन्य रागादि परिणामरूप परिणमित नहीं होते हैं, [अप्पाणं लहदि सुद्धं] तो भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित होने के कारण शुद्ध-शुद्धबुद्ध एक-स्वभावी आत्मा को प्राप्त करते हैं - ऐसा भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव का अभिप्राय है ॥१३६॥
इसप्रकार एक गाथा द्वारा पाँचवा स्थल पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार 'सामान्य ज्ञेयाधिकार' के बीच पाँच स्थलों द्वारा (ग्यारह गाथाओं में निबद्ध) "सामान्य भेद-भावना" नामक दूसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार कहे गये प्रकार से तम्हा तस्स णमाइं इत्यादि ३५ गाथाओं द्वारा 'सामान्य-ज्ञेयाधिकार' नामक प्रथम अधिकार का व्याख्यान पूर्ण हुआ ।
इससे आगे १९ गाथाओं द्वारा जीव-अजीव द्रव्यादि विवरणरूप से विशेष-ज्ञेय-व्याख्यान करते हैं । वहाँ ८ स्थल हैं --
- वहाँ
- सबसे पहले जीव-अजीवत्व के कथनरूप पहली गाथा,
- लोक-अलोकत्व के कथनरूप दूसरी,
- सक्रिय-नि:क्रियत्व के कथनरूप तीसरी-
- उसके बाद ज्ञानादि विशेष गुणों के स्वरूप कथनरूप से लिंगेहिं जेहिं इत्यादि दो गाथाओं द्वारा दूसरा स्थल है।
- तदनन्तर अपने-अपने विशेष गुणों से उपलक्षित द्रव्यों के निर्णय के लिये 'वण्णरस' इत्यादि तीन गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल है।
- तत्पश्चात् पाँच अस्तिकायों के कथन की मुख्यता से जीवा पोग्गलकाया इत्यादि दो गाथाओं द्वारा चौथा स्थल है ।
- तदुपरान्त
- 'द्रव्यों का आधार लोकाकाश है' -- इस कथनरूप से पहली;
- जो आकाश द्रव्य का प्रदेशलक्षण है, वही शेष द्रव्यों का है इस कथनरूप से दूसरी
- उसके बाद
- काल द्रव्य के अप्रदेशत्व की स्थापना रूप से पहली,
- समयरूप पर्यायकाल, कालाणुरूप द्रव्यकाल-इस कथन रूप से दूसरी
- तदनन्तर
- प्रदेशलक्षण कथनरूप से पहली,
- तिर्यक्प्रचय और ऊर्ध्वप्रचय के स्वरूप कथनरूप से दूसरी
- तत्पश्चात् कालाणुरूप द्रव्यकाल की स्थापनारूप से उप्पादो पद्धंसो इत्यादि तीन गाथाओं द्वारा आठवां स्थल है
विशेष-ज्ञेयादिकार संज्ञक द्वितीयाधिकार का स्थल विभाजन | |||
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स्थल क्रम | प्रतिपादित विषय | कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ | कुल गाथाएँ |
प्रथम | जीवाजीवादि, लोकालोकत्व,सक्रिय-निष्क्रियत्व द्रव्य विवरण | 137 से 139 | 3 |
द्वितीय | ज्ञानादि विशेष गुणों का स्वरूप कथन | 140 से 141 | 2 |
तृतीय | विशेष गुणों द्वारा द्रव्यों का निर्णय | 142 से 144 | 3 |
चतुर्थ | पंचास्तिकाय | 145 से 146 | 2 |
पंचम | द्रव्यों का आधार लोकाकाश, आकाश का प्रदेश लक्षण | 147 से 148 | 2 |
षष्टम | काल द्रव्य का अप्रदेशत्व तथा पर्याय काल, द्रव्यकाल | 149 से 150 | 2 |
सप्तम | प्रदेशलक्षण, तिर्यक्प्रचय-ऊर्ध्वप्रचय लक्षण | 151 से 152 | 2 |
अष्टम | कालाणु रूप द्रव्य-काल व्याख्यान | 153 से 155 | 3 |
कुल 8 स्थल | कुल 19 गाथाएँ |