ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 129 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
उप्पादट्ठिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स । (129)
परिणामा जायंते संघादादो व भेदादो ॥139॥
अर्थ:
पुद्गल-जीवात्मक लोक में परिणमन से संघात और भेद से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होते हैं ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ क्रियाभावतद्भावविशेषं निश्चिनोति -
क्रियाभाववत्त्वेन केवलभाववत्त्वेन च द्रव्यस्यास्ति विशेष: । तत्र भाववन्तौ क्रियावन्तौ च पुद्गलजीवौ परिणामाद्भेदसंघाताभ्यां चोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववन्त्येव परिणामादेवोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वादिति निश्चय: ।
तत्र परिणाममात्रलक्षणो भाव:, परिस्पन्दनलक्षणा क्रिया । तत्र सर्वाण्यपि द्रव्याणि परिणामास्वभावात्वात् परिणामेनोपात्तन्वयव्यतिरेकाण्यवतिष्ठमानोत्पद्यमानभज्यमानानि भाववन्ति भवन्ति ।
पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्वभावात्वात्परिस्पन्देन भिन्ना: संघातेन संहता: पुनर्भेदेनोत्पद्य-मानावतिष्ठमानभज्यमाना: क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात्परि-स्पन्देन नूतनकर्मनोकर्मपुद्गलेभ्यो भिन्नास्तै: सह संघातेन, संहता: पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठ-मानभज्यमाना: क्रियावन्तश्च भवन्ति ॥१२९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
कोई द्रव्य भाव तथा क्रिया वाले होने से और कोई द्रव्य केवल भाव वाले होने से,—इस अपेक्षा से द्रव्य के भेद होते है । उसमें पुद्गल तथा जीव (१) भाववाले तथा (२) क्रियावाले हैं, क्योंकि (१) परिणाम द्वारा तथा (२) संघात और भेद के द्वारा वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । शेष द्रव्य तो भाववाले ही हैं, क्योंकि वे परिणाम के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं, टिकते है और नष्ट होते हैं;—ऐसा निश्चय है ।
उसमें, 'भाव' का लक्षण परिणाममात्र है; और 'क्रिया' का लक्षण परिस्पंद (कम्पन) है । वहाँ समस्त ही द्रव्य भाव वाले हैं, क्योंकि परिणामस्वभाव वाले होने से परिणाम के द्वारा अन्वय और व्यतिरेकों को प्राप्त होते हुए वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । पुद्गल तो (भाववाले होने के अतिरिक्त) क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंद स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा पृथक् पुद्गल एकत्रित हो जाते हैं, इसलिये और एकत्रित मिले हुए पुद्गल पुन: पृथक् हो जाते हैं, इसलिये (इस अपेक्षा से) वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । तथा जीव भी भाववाले होने के अतिरिक्त क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पन्दन स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा नवीन कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलों से भिन्न जीव उनके साथ एकत्रित होने से और कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलों के साथ एकत्रित हुए जीव बाद में पृथक् होने से (इस अपेक्षा से) वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं ॥१२९॥