ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 132 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
वण्णरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमादो । (132)
पुढवीपरियंतस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो ॥142॥
अर्थ:
सूक्ष्म से लेकर पृथ्वी पर्यन्त सर्व पुद्गल के वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श विद्यमान हैं; तथा जो शब्द है,वह पुद्गल की विविध प्रकार की पर्याय है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ मूर्तपुद्गलद्रव्यस्य गुणानावेदयति --
वण्णरसगंधफासा विज्जंते पोग्गलस्स वर्णरसगन्धस्पर्शा विद्यन्ते । कस्य । पुद्गलस्य । कथंभूतस्य । सुहुमादो पुढवीपरियंतस्स य
((पुढवी जलंच छाया चउरिंदियविसयकम्मपरमाणू ।
छव्विहभेयं भणियं पोग्गलदव्वं जिणवरेहिं ॥))
इति गाथाकथितक्रमेण परमाणुलक्षणसूक्ष्मस्वरूपादेः पृथ्वीस्कन्धलक्षणस्थूलस्वरूपपर्यन्तस्य च । तथाहि —यथानन्तज्ञानादिचतुष्टयं विशेषलक्षणभूतं यथासंभवं सर्वजीवेषु साधारणं तथा वर्णादिचतुष्टयं विशेष-लक्षणभूतं यथासंभवं सर्वपुद्गलेषु साधारणम् । यथैव चानन्तज्ञानादिचतुष्टयं मुक्तजीवेऽतीन्द्रियज्ञान-विषयमनुमानगम्यमागमगम्यं च, तथा शुद्धपरमाणुद्रव्ये वर्णादिचतुष्टयमप्यतीन्द्रियज्ञानविषयमनुमान-गम्यमागमगम्यं च । यथा वानन्तचतुष्टयस्य संसारिजीवे रागादिस्नेहनिमित्तेन कर्मबन्धवशादशुद्धत्वंभवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तेन द्वि-अणुकादिबन्धावस्थायामशुद्धत्वम् । यथावानन्तज्ञानादिचतुष्टयस्य रागादिस्नेहरहितशुद्धात्मध्यानेन शुद्धत्वं भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धगुणाभावे बन्धनेऽसति परमाणुपुद्गलावस्थायां शुद्धत्वमिति । सद्दो सो पोग्गलो यस्तु शब्दः स पौद्गलः । यथा जीवस्य नरनारकादिविभावपर्यायाः तथायं शब्दः पुद्गलस्य विभावपर्यायो, न चगुणः । कस्मात् । गुणस्याविनश्वरत्वात्, अयं च विनश्वरो । नैयायिकमतानुसारी कश्चिद्वदत्याकाश-गुणोऽयं शब्दः । परिहारमाह – आकाशगुणत्वे सत्यमूर्तो भवति । अमूर्तश्च श्रवणेन्द्रियविषयो नभवति, दृश्यते च श्रवणेन्द्रियविषयत्वम् । शेषेन्द्रियविषयः कस्मान्न भवतीति चेत् — अन्येन्द्रियविषयोऽन्येन्द्रियस्य न भवति वस्तुस्वभावादेव, रसादिविषयवत् । पुनरपि कतंभूतः । चित्तोचित्रः भाषात्मकाभाषात्मकरूपेण प्रायोगिकवैश्रसिकरूपेण च नानाप्रकारः । तच्च सद्दो खंधप्पभवो इत्यादिगाथायां पञ्चास्तिकाये व्याख्यातं तिष्ठत्यत्रालं प्रसङ्गेन ॥१४२॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[वण्णरसगंधफासा विज्जंते पोग्गलस्स] वर्ण, रस, गंध, स्पर्श विद्यमान हैं । ये किसके विद्यमान हैं? ये पुद्गल के विद्यमान हैं । ये कैसे पुद्गल के विद्यमान हैं? [सुहुमादो पुढवीपरियंतस्स य] पुद्गल द्रव्य को जिनेन्द्रदेव ने पृथ्वी, जल, छाया (नेत्र को छोड़कर) चार इन्द्रियों के विषय, कर्म और परमाणु- इसप्रकार छह भेद वाला कहा है । इस गाथा में कहे हुये क्रम से परमाणु लक्षण सूक्ष्म स्वरूप से पृथ्वी स्कन्ध लक्षण स्थूल स्वरूप वाले पुद्गल के विद्यमान है |
वह इसप्रकार- जैसे विशेषणभूत अनन्तज्ञानादि चतुष्टय यथासंभव सभी जीवों में साधारण हैं उसी-प्रकार विशेष लक्षणभूत वर्णादि चतुष्टय यथासंभव सभी पुद्गलों में साधारण हैं । और जैसे मुक्त जीव में अनन्तज्ञानादि चतुष्टय, अतीन्द्रिय-ज्ञान के विषय तथा अनुमानगम्य और आगमगम्य हैं उसीप्रकार शुद्ध परमाणु द्रव्य में वर्णादि चतुष्टय भी अतीन्द्रिय-ज्ञान के विषय तथा अनुमानगम्य और आगमगम्य हैं । जैसे संसारी जीव में रागादि स्नेह (स्निग्ध-चिकनाई) के निमित्त से, कर्मबन्ध के वश अनन्त चतुष्टय के अशुद्धता होती है, उसीप्रकार वर्णादि चतुष्टय के भी द्वयणुक आदि बंध की अवस्था में स्निग्ध-रूक्ष गुण के निमित्त से अशुद्धता होती है । तथा जैसे रागादि स्नेह रहित शुद्धात्मा के ध्यान से अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय के शुद्धता होती है, उसी प्रकार (बँधने योग्य) स्निग्ध गुण के अभाव में बन्धन नहीं होने पर, पुद्गल की परमाणु अवस्था में वर्णादि चतुष्टय के भी शुद्धता होती है । [सद्दो सो पोग्गलो] और जो शब्द है, वह पुद्गल है । जैसे जीव की मनुष्य नारक आदि विभाव पर्यायें हैं; उसीप्रकार यह शब्द पुद्गल की विभाव पर्याय है, गुण नहीं है । वह क्यों नहीं है? गुणों के अविनश्वरता-नित्यता-नष्ट नहीं होने से शब्द गुण नहीं है, यह नश्वर है-नष्ट होता है ।
नैयायिक मत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है- यह शब्द आकाश का गुण है । आचार्य उसका निराकरण करते हैं- आकाश का गुण होने पर वह अमूर्त (सिद्ध) होता है । और अमूर्त कर्णेन्द्रिय का विषय नहीं होता, परन्तु उसके कर्णेन्द्रिय की विषयता देखी जाती है ।
प्रश्न - वह शेष इन्द्रियों का विषय किस कारण-क्यों नहीं होता है ?
उत्तर - वस्तु के स्वभाव से ही रसादि विषयों के समान, किसी अन्य इन्द्रिय का विषय दूसरी अन्य इन्द्रिय का विषय नहीं होता है ।
वह शब्द भी कैसा है? [चित्तो] विविधप्रकार का- भाषात्मक, अभाषात्मक रूप से, कृत्रिम तथा स्वाभाविक रूप से अनेक प्रकार का है । और वह "शब्द स्कन्ध से उत्पन्न है- इत्यादि गाथा में 'पंचास्तिकाय' में कहा गया है; इसप्रकार यहाँ इस अतिप्रसंग से बस हो ॥१४२॥