ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 177 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
फासेहिं पोग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं । (177)
अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥189॥
अर्थ:
[स्पर्शै:] स्पर्शों के साथ [पुद्गलाना बंध:] पुद्गलों का बंध, [रागादिभि: जीवस्य] रागादि के साथ जीव का बंध और [अन्योन्यम् अवगाह:] अन्योन्य अवगाह वह [पुद्गलजीवात्मक: भणित:] पुद्गलजीवात्मक बंध कहा गया है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ पूर्वनवतरपुद्गलद्रव्यकर्मणोः परस्परबन्धो, जीवस्य तु रागादिभावेन सह बन्धो, जीवस्यैव नवतर-द्रव्यकर्मणा सह चेति त्रिविधबन्धस्वरूपं प्रज्ञापयति --
फासेहिं पोग्गलाणं बंधो स्पर्शैः पुद्गलानां बन्धः । पूर्वनवतरपुद्गलद्रव्यकर्मणोर्जीवगतरागादिभावनिमित्तेन स्वकीयस्निग्धरूक्षोपादानकारणेन च परस्पर-स्पर्शसंयोगेन योऽसौ बन्धः स पुद्गलबन्धः । जीवस्स रागमादीहिं जीवस्य रागादिभिः । निरुपराग-परमचैतन्यरूपनिजात्मतत्त्वभावनाच्युतस्य जीवस्य यद्रागादिभिः सह परिणमनं स जीवबन्ध इति । अण्णोण्णस्सवगाहो पुग्गलजीवप्पगो भणिदो अन्योन्यस्यावगाहः पुद्गलजीवात्मको भणितः । निर्विकार-स्वसंवेदनज्ञानरहितत्वेन स्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वेषपरिणतजीवस्य बन्धयोग्यस्निग्धरूक्षपरिणामपरिणत-पुद्गलस्य च योऽसौ परस्परावगाहलक्षणः स इत्थंभूतबन्धो जीवपुद्गलबन्ध इति त्रिविधबन्धलक्षणं ज्ञातव्यम् ॥१८९॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[फासेहिं पोग्गलाणं बंधो] स्पर्शों से पुद्गलों का बन्ध । पहले के और नवीन पुद्गल द्रव्य-कर्मों का, जीवगत रागादि भावों के निमित्त से और अपने स्निग्ध और रूक्षरूप उपादान कारण से परस्पर- स्पर्श के संयोग द्वारा जो वह बन्ध है, वह पुद्गलबन्ध है । [जीवस्स रागमादीहिं] जीव का रागादि से । उपराग (मलिनता) रहित परम-चैतन्यरूप-निजात्मतत्त्व की भावना से च्युत जीव का, जो रागादि के साथ परिणमन है, वह जीवबन्ध है । [अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो] परस्पर का अवगाह पुद्गल-जीवात्मक कहा गया है । विकार रहित-स्वसंवेदन ज्ञान से रहित होने के कारण, स्निग्ध-रूक्ष के स्थानीय राग-द्वेष रूप परिणत जीव का और बन्ध योग्य स्निग्ध-रूक्ष परिणाम परिणत पुद्गल का, जो वह परस्पर अवगाह लक्षण बन्ध है, वह इसप्रकार का बंध जीव्-पुद्गल-बन्ध -- उभय-बंध कहलाता है -- इसप्रकार तीन प्रकार के बन्धों का लक्षण जानना चाहिये ॥१८९॥