ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 187 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । (187)
तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ॥199॥
अर्थ:
[यदा] जब [आत्मा] आत्मा [रागद्वेषयुत:] रागद्वेषयुक्त होता हुआ [शुभे अशुभे] शुभ और अशुभ में [परिणमित] परिणमित होता है, तब [कर्मरज:] कर्मरज [ज्ञानावरणादिभावै:] ज्ञानावरणादिरूप से [तं] उसमें [प्रविशति] प्रवेश करती है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ किंकृतं पुद्गलकर्मणां वैचित्र्यमिति निरूपयति -
अस्ति खल्वात्मन: शुभाशुभपरिणामकाले स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यकर्मपुद्गलपरिणाम:, नवघनाम्बुनो भूमिसंयोगपरिणामकाले समुपात्तवैचित्र्यान्यपुद्गलपरिणामवत् । तथाहि - यथा यदा नवघनाम्बुभूमिसंयोगेन परिणमति तदान्ये पुद्गला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यै: शाद्वल-शिलीन्ध्रशक्रगोपादिभावै: परिणमन्ते, तथा यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृत: शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशन्त: कर्मपुद्गला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यै-र्ज्ञानावरणादिभावै: परिणमन्ते । अत: स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं, न पुनरात्मकृतम् ॥१८७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जैसे नये मेघजल के भूमिसंयोगरूप परिणाम के समय अन्य पुद्गलपरिणाम स्वयमेव वैचित्र को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार आत्मा के शुभाशुभ परिणाम के समय कर्मपुद्गलपरिणाम वास्तव में स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं । वह इस प्रकार है कि—जैसे, जब नया मेघजल भूमिसंयोगरूप परिणमित होता है तब अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली, कुकुरमुत्ता (छत्ता, mushroom), और इन्द्रगोप (carnelian, बीर-बहूटी गहरे लाल रंग की होती है) आदिरूप परिणमित होता है, इसी प्रकार जब यह आत्मा रागद्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभभावरूप परिणमित होता है, तब अन्य, योगद्वारों में प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं ।
इससे (यह निश्चित हुआ कि) कर्मों की विचित्रता (विविधता) का होना स्वभावकृत है, किन्तु आत्मकृत नहीं ॥१८७॥
अब ऐसा समझाते हैं कि अकेला ही आत्मा बंध है --