ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 195 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे । (195)
होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि ॥208॥
अर्थ:
[यः] जो [निहतमोहग्रंथी] मोहग्रंथि को नष्ट करके, [रागप्रद्वेषौ क्षपयित्वा] रागद्वेष का क्षय करके, [समसुख दुःख:] समसुख-दुःख होता हुआ [श्रामण्ये भवेत्] श्रमणता (मुनित्व) में परिणमित होता है, [सः] वह [अक्षयं सौख्यं] अक्षय सौख्य को [लभते] प्राप्त करता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ दर्शनमोहग्रन्थिभेदात्किं भवतीति प्रश्ने समाधानं ददाति --
जो णिहदमोहगंठी यः पूर्वसूत्रोक्त-प्रकारेण निहतदर्शनमोहग्रन्थिर्भूत्वा रागपदोसे खवीय निजशुद्धात्मनिश्चलानुभूतिलक्षणवीतरागचारित्र-प्रतिबन्धकौ चरित्रमोहसंज्ञौ रागद्वेषौ क्षपयित्वा । क्व । सामण्णे स्वस्वभावलक्षणे श्रामण्ये । पुनरपि किंकृत्वा । होज्जं भूत्वा । किंविशिष्टः । समसुहदुक्खो निजशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नरागादिविकल्पोपाधि-रहितपरमसुखामृतानुभवेन सांसारिकसुखदुःखोत्पन्नहर्षविषादरहितत्वात्समसुखदुःखः । सो सोक्खं अक्खयं लहदि स एवंगुणविशिष्टो भेदज्ञानी सौख्यमक्षयं लभते । ततो ज्ञायते दर्शनमोहक्षयाच्चारित्रमोहसंज्ञ-रागद्वेषविनाशस्ततश्च सुखदुःखादिमाध्यस्थ्यलक्षणश्रामण्यययययेऽवस्थानं तेनाक्षयसुखलाभो भवतीति ॥२०८॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जो णिहदमोहगंठी] जो पहले (२०७वीं) गाथा में कही हुई पद्धति से दर्शन-मोह रूपी ग्रन्थि से रहित होकर [रागपदोसे खवीय] निज-शुद्धात्मा में निश्चल अनुभूति लक्षण वीतराग-चरित्र को रोकने वाले चारित्र-मोह नामक राग-द्वेष का क्षयकर । कहाँ राग-द्वेष का क्षय कर? [सामण्णे] स्व-स्वभाव (की प्रगटता) लक्षण श्रामण्य में उनका क्षय-कर । और भी क्या करके? [होज्जं] होकर । किस विशेषता वाला होकर? [समसुहदुक्खो] स्व-शुद्धात्मा के संवेदन से उत्पन्न, रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित, परम सुखरूपी अमृत के अनुभव से, सांसारिक सुख-दुःख से उत्पन्न हर्ष-विषाद रहित होने के कारण सुख-दुख में समता-भाव वाला होता है । [सो सोक्खं अक्खयं लहदि] वह इन गुणों से विशिष्ट भेद-ज्ञानी, अक्षय-सौख्य को प्राप्त करता है ।
इससे ज्ञात होता है कि दर्शनमोह के क्षय के पश्चात चारित्र-मोहरूप राग-द्वेष का विनाश होता है और उससे सुख-दुःख आदि में माध्यस्थ्य लक्षण श्रामण्य-मुनिपने में अवस्थान होता है उससे अक्षय-सुख की प्राप्ति होती है ॥२०८॥