ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 196 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । (196)
समवट्ठिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ॥209॥
अर्थ:
[यः] जो [क्षपितमोहकलुषः] मोहमल का क्षय करके, [विषयविरक्त:] विषय से विरक्त होकर, [मन: निरुध्य] मन का निरोध करके, [स्वभावे समवस्थित:] स्वभाव में समवस्थित है, [सः] वह [आत्मानं] आत्मा का [ध्याता भवति] ध्यान करने वाला है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानमशुद्धत्वमात्मनो नावहतीति निश्चिनोति --
आत्मनो हि परिक्षपितमोहकलुषस्य तन्मूलपरद्रव्यप्रवृत्त्यभावाद्विषयविरक्तत्वं स्यात्; ततोऽधिकरणभूतद्रव्यान्तराभावादुदधिमध्यप्रवृत्तैकपोतपतत्रिण इव अनन्यशरणस्य मनसो निरोधः स्यात्; ततस्तन्मूलचंचलत्वविलयादनन्तसहजचैतन्यात्मनि स्वभावे समवस्थानं स्यात् । तत्तु स्वरूपप्रवृत्तानाकुलैकाग्रसंचेतनत्वात् ध्यानमित्युपगीयते । अतः स्वभावावस्थानरूपत्वेनध्यानमात्मनोऽनन्यत्वात् नाशुद्धत्वायेति ॥१९६॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जिसने मोहमल का क्षय किया है ऐसे आत्मा के, मोहमल जिसका मूल है ऐसी परद्रव्यप्रवृत्ति का अभाव होने से विषयविरक्तता होती है; (उससे अर्थात् विषय विरक्त होने से), समुद्र के मध्यगत जहाज के पक्षी की भाँति, अधिकरणभूत द्रव्यान्तरों का अभाव होने से जिसे अन्य कोई शरण नहीं रहा है ऐसे मन का निरोध होता है । (अर्थात् जैसे समुद्र के बीच में पहुँचे हुए किसी एकाकी जहाज पर बैठे हुए पक्षी को उस जहाज के अतिरिक्त अन्य किसी जहाज का, वृक्ष का या भूमि इत्यादि का आधार न होने से दूसरा कोई शरण नहीं है, इसलिये उसका उड़ना बन्द हो जाता है, उसी प्रकार विषयविरक्तता होने से मन को आत्मद्रव्य के अतिरिक्त किन्हीं अन्यद्रव्यों का आधार नहीं रहता इसलिये दूसरा कोई शरण न रहने से मन निरोध को प्राप्त होता है); और इसलिये (अर्थात् मन का निरोध होने से), मन जिसका मूल है ऐसी चंचलता का विलय होने के कारण अनन्तसहज-चैतन्यात्मक स्वभाव में समवस्थान होता है वह स्वभावसमवस्थान तो स्वरूप में प्रवर्तमान, अनाकुल, एकाग्र संचेतन होने से उसे ध्यान कहा जाता है ।
इससे (यह निश्चित हुआ कि) ध्यान, स्वभाव-समवस्थानरूप होने के कारण आत्मा से अनन्य होने से अशुद्धता का कारण नहीं होता ॥१९६॥
अब, सूत्र द्वारा ऐसा प्रश्न करते हैं कि जिनने शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है ऐसे सकलज्ञानी (सर्वज्ञ) क्या ध्याते हैं?