ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 200 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । (200)
परिवज्जामि ममत्तिं उवट्ठिदो णिम्ममत्तम्हि ॥213॥
अर्थ:
[तस्मात्] ऐसा होने से (अर्थात् शुद्धात्मा में प्रवृत्ति के द्वारा ही मोक्ष होता होने से) [तथा] इस प्रकार [आत्मानं] आत्मा को [स्वभावेन ज्ञायकं] स्वभाव से ज्ञायक [ज्ञात्वा] जानकर [निर्ममत्वे उपस्थित:] मैं निर्ममत्व में स्थित रहता हुआ [ममतां परिवर्जयामि] ममता का परित्याग करता हूँ ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ 'उवसंपयामि सम्मंजत्तो णिव्वाणसंपत्ती' इत्यादि पूर्वप्रतिज्ञां निर्वाहयन् स्वयमपि मोक्षमार्गपरिणतिं स्वीकरोतीतिप्रतिपादयति --
तम्हा यस्मात्पूर्वोक्त शुद्धात्मोपलम्भलक्षणमोक्षमार्गेण जिना जिनेन्द्राः श्रमणाश्च सिद्धाजातास्तस्मादहमपि तह तथैव तेनैव प्रकारेण जाणित्ता ज्ञात्वा । कम् । अप्पाणं निजपरमात्मानम् । किंविशिष्टम् । जाणगं ज्ञायकं केवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वभावम् । केन कृत्वा ज्ञात्वा । सभावेण समस्त-रागादिविभावरहितशुद्धबुद्धैकस्वभावेन । पश्चात् किं करोमि । परिवज्जामि परि समन्ताद्वर्जयामि । काम् । ममत्तिं समस्तसचेतनाचेतनमिश्रपरद्रव्यसंबन्धिनीं ममताम् । कथंभूतः सन् । उवट्ठिदो उपस्थितः परिणतः । क्व । णिम्ममत्तम्हि समस्तपरद्रव्यममकाराहंकाररहितत्वेन निर्ममत्वलक्षणे परमसाम्याभिधाने वीतराग-चारित्रे तत्परिणतनिजशुद्धात्मस्वभावे वा । तथाहि --
अहं तावत्केवलज्ञानदर्शनस्वभावत्वेन ज्ञायकैक-टङ्कोत्कीर्णस्वभावः । तथाभूतस्य सतो मम न केवलं स्वस्वाम्यादयः परद्रव्यसंबन्धा न सन्ति, निश्चयेन ज्ञेयज्ञायकसंबन्धो नास्ति । ततः कारणात्समस्तपरद्रव्यममत्वरहितो भूत्वा परमसाम्यलक्षणे निज-शुद्धात्मनि तिष्ठामीति । किंच 'उवसंपयामि सम्मं' इत्यादिस्वकीयप्रतिज्ञां निर्वाहयन्स्वयमपि मोक्षमार्ग-परिणतिं स्वीकरोत्येवं यदुक्तं गाथापातनिकाप्रारम्भे तेन किमुक्तं भवति – ये तां प्रतिज्ञां गृहीत्वा सिद्धिंगतास्तैरेव सा प्रतिज्ञा वस्तुवृत्त्या समाप्तिं नीता । कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पुनर्ज्ञानदर्शनाधिकारद्वयरूप-ग्रन्थसमाप्तिरूपेण समाप्तिं नीता, शिवकुमारमहाराजेन तु तद्ग्रन्थश्रवणेन च । कस्मादिति चेत् । ये मोक्षंगतास्तेषां सा प्रतिज्ञा परिपूर्णा जाता, न चैतेषाम् । कस्मात् । चरमदेहत्वाभावादिति ॥२१३॥
एवंज्ञानदर्शनाधिकारसमाप्तिरूपेण चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[तम्हा] यत: पहले कहे हुये शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण मोक्षमार्ग से सामान्य-केवली, तीर्थंकर-केवली और मुनिराज सिद्ध हुये हैं ? इसलिये मैं भी [तह] वैसे ही उसी-प्रकार [जाणित्ता] जानकर । उसीप्रकार किसे जानकर ? [अप्पाणं] निज परमात्मा को उसीप्रकार जानकर । किस विशेषता वाले निज परमात्मा को जानकर ? [जाणगं] ज्ञायक--केवल-ज्ञान आदि अनन्त-गुण स्वभाव-वाले निज-परमात्मा को जानकर । उसे किसके द्वारा जानकर ? [सभावेण] सम्पूर्ण रागादि विभावों से रहित, शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव द्वारा ज्ञायक स्वभावी अपने परमात्मा को जानकर । जानने के बाद मैं क्या करता हूँ ? [परिवज्जामि] परि-समन्तात्--सब तरह से पूर्णरूप से, मैं छोड़ता हूँ । पूर्ण-रूप से किसे छोड़ता हूँ ? [ममत्तिं] सम्पूर्ण चेतन, अचेतन और मिश्र-रूप पर-द्रव्य सम्बन्धी ममता को, छोड़ता हूँ । कैसा होता हुआ मैं उसे छोड़ता हूँ ? [उवट्ठिदो] उपस्थित-- परिणमित होता हुआ, मैं उसे छोड़ता हूँ । कहाँ उपस्थित होता हुआ मैं उसे छोड़ता हूँ ? [णिम्ममत्तम्हि] सम्पूर्ण पर-द्रव्य सम्बन्धी ममकार-अहंकर से रहित होने के कारण, निर्ममत्व लक्षण परम-साम्य नामक वीतराग- चारित्र में अथवा उस वीतराग-चारित्र रूप परिणत निज शुद्धात्म स्वरूप में उपस्थित होता हुआ, मैं उसे छोड़ता हूँ ।
वह इसप्रकार, प्रथम तो मैं केवल-ज्ञान-दर्शन स्वभाव-रूप होने से, ज्ञायक एक टंकोत्कीर्ण स्वभाव हूँ । ऐसा होते हुए मेरा पर-द्रव्यों के साथ स्व-स्वामी आदि सम्बन्ध नहीं है, इतना मात्र ही नहीं है अपितु, निश्चय से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी नहीं है । इस कारण मैं सम्पूर्ण पर-द्रव्यों के प्रति ममत्व रहित होकर, परम-साम्य लक्षण अपने शुद्धात्मा में स्थित रहता हूँ ।
विशेष यह है कि 'उवसंपयामि सम्मं मैं साम्य का आश्रय ग्रहण करता हूँ' इत्यादि अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए स्वयं भी मोक्षमार्ग परिणति को स्वीकार करते हैं, ऐसा जो गाथा की पातनिका के प्रारम्भ में कहा था, उससे क्या कहा गया है ? (इस कथन का तात्पर्य यह है कि) जो उस प्रतिज्ञा को ग्रहण कर सिद्ध-मुक्तावस्था को प्राप्त हुए हैं, उनके द्वारा ही वह प्रतिज्ञा वस्तु-वृत्ति से -- वास्तव में पूर्ण की गई है । तथा 'कुंद-कुंद-आचार्य-देव' द्वारा ज्ञानाधिकर और दर्शनाधिकार -- इन दो अधिकार-रूप ग्रन्थ की समाप्ति रूप से वह समाप्त की गई है, और शिवकुमार महाराज द्वारा तो उस ग्रन्थ को सुनने रूप से, यह प्रतिज्ञा पूर्ण की गई है । इन रूपों में इनकी प्रतिज्ञा क्यों हुई है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो 'आचार्य' उत्तर देते हैं कि जो सिद्ध हुये हैं उनकी ये प्रतिज्ञा पूर्ण हुई, परन्तु उन 'कुंद-कुंद-आचार्य-देव' और 'शिवकुमार' महाराज की प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं हुई है । उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण क्यों नहीं हुई? चरम देहपने का -- उसी भव से मोक्ष जाने का अभाव होने से, उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं हुई है ॥२१३॥
इसप्रकर ज्ञानाधिकार और दर्शनाधिकार की पूर्णता-रूप से अन्तिम चौथे-स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुईं ।
इसप्रकार स्व-शुद्धात्मा की भावना-रूप मोक्षमार्ग द्वारा जो सिद्धि को प्राप्त हुए हैं और जो उसके आराधक हैं, उन्हें दर्शनाधिकार की अपेक्षा अन्तिम मंगल के लिए तथा ग्रन्थ की अपेक्षा मध्य मंगल के लिये, उस पद के अभिलाषी होकर नमस्कार करते हैं --