ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 202 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं । (202)
आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं ॥216॥
अर्थ:
(श्रामण्यार्थी) [बन्धुवर्गम् आपृच्छ्य] बंधु-वर्ग से विदा माँगकर [गुरुकलत्रपुत्रै: विमोचित:] बडों से, स्त्री और पुत्र से मुक्त किया हुआ [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारम् आसाद्य] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को अंगीकार करके........ ॥२०२॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ श्रमणोभवितुमिच्छन्पूर्वं क्षमितव्यं करोति -- 'उवठ्ठिदो होदि सो समणो' इत्यग्रे षष्ठगाथायां यद्वयाख्यानं तिष्ठतितन्मनसि धृत्वा पूर्वं किं कृत्वा श्रमणो भविष्यतीति व्याख्याति --
आपिच्छ आपृच्छय पृष्टवा । कम् । बंधुवग्गं बन्धुवर्गं गोत्रम् । ततः कथंभूतो भवति । विमोचिदो विमोचितस्त्यक्तो भवति । कैः कर्तृभूतैः । गुरुकलत्तपुत्तेहिं पितृमातृकलत्रपुत्रैः । पुनरपि किं कृत्वा श्रमणो भविष्यति । आसिज्ज आसाद्य आश्रित्य । कम् । णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमिति । अथ विस्तरः --
अहो बन्धुवर्ग-पितृमातृकलत्रपुत्राः, अयं मदीयात्मा सांप्रतमुद्भिन्नपरमविवेकज्योतिस्सन् स्वकीयचिदानन्दैकस्वभावं परमात्मानमेव निश्चयनयेनानादिबन्धुवर्गं पितरं मातरं कलत्रं पुत्रं चाश्रयति, तेन कारणेन मां मुञ्चत यूयमिति क्षमितव्यं करोति । ततश्च किं करोति । परमचैतन्यमात्रनिजात्मतत्त्वसर्वप्रकारोपादेय-रुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिसमस्तपरद्रव्येच्छानिवृत्तिलक्षणतपश्चरणस्वशक्त्यनवगूहनवीर्याचाररूपं निश्चयपञ्चाचारमाचारादिचरणग्रन्थकथिततत्साधकव्यवहारपञ्चाचारं चाश्रयतीत्यर्थः । अत्र यद्गोत्रादिभिःसह क्षमितव्यव्याख्यानं कृतं तदत्रातिप्रसंगनिषेधार्थम् । तत्र नियमो नास्ति । कथमिति चेत् । पूर्वकालेप्रचुरेण भरतसगररामपाण्डवादयो राजान एव जिनदीक्षां गृह्णन्ति, तत्परिवारमध्ये यदा कोऽपि मिथ्यादृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसर्गं करोतीति । यदि पुनः कोऽपि मन्यते गोत्रसम्मतं कृत्वा पश्चात्तपश्चरणं करोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति, कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादि-ममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति । तथाचोक्तम् -- ॥२१६॥
((जो सकलणयररज्जं पुव्वं चइऊण कुणइय ममत्तिं ।
सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ॥))
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[आपिच्छ] पूछकर । किसे पूछकर ? [बंधुवग्गं] बंधु समूह को - गोत्र वालों को पूछकर । उसके बाद कैसा होता है ? [विमोचिदो] विमोचित - त्यक्त होता है - छूटता है । किन कर्ताओं से छूटता है ? [गुरुकलत्तपुत्तेहिं] पिता, माता, स्त्री, पुत्रों से छूटता है । और भी क्या करके श्रमण होगा ? [असिज्ज] आश्रयकर श्रमण होगा । किसका आश्रयकर श्रमण होगा ? [णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं] ज्ञानाचार , दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार का आश्रय लेकर श्रमण होगा ।
अब इसका विस्तार करते हैं - अहो! बन्धु समूह, पिता, माता, स्त्री, पुत्र - यह मेरा आत्मा, अब प्रगट उत्कृष्ट भेदज्ञान ज्योतिवाला होता हुआ, निश्चयनय से अनादि बन्धु वर्ग पिता-माता, स्त्री, पुत्र रूप अपने ज्ञानानन्द एक स्वभावी परमात्मा का ही आश्रय लेता है, इस कारण तुम सब मुझे छोड़ो इसप्रकार क्षमाभाव करता है । उसके बाद और क्या करता है ? उत्कृष्ट चैतन्यमात्र अपने आत्मतत्त्व को सभी प्रकार से उपादेय रूप - ग्रहण करनेवाली (माननेवाली) रुचि, उसकी ही जानकारी और उसकी ही निश्चल अनुभूतिरूप दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, परद्रव्यों सम्बन्धी इच्छाओं से निवृत्ति लक्षण तपश्चरण - तपाचार और अपनी शक्ति को नहीं छिपाना - वीर्याचार इस रूप निश्चय पंचाचार तथा आचार आदि चरणानुयोग के ग्रन्थों में कहे गये उन निश्चय पंचाचार के साधक व्यवहार पंचाचार का आश्रय करता है - ऐसा अर्थ है ।
यहाँ जो गोत्र आदि के साथ क्षमाभाव का व्याख्यान किया है, वह अतिप्रसंग - अमर्यादा के निषेध के लिये किया है । वहाँ (क्षमाभाव का) नियम नहीं है । क्षमाभाव का नियम क्यों नहीं है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है - प्राचीन काल में अधिकतर भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि राजा जिन-दीक्षा ही ग्रहण करते हैं उनके परिवार में जब कोई भी मिथ्यादृष्टि होता है तब धर्म पर उपसर्ग करता है । और यदि कोई ऐसा मानता है कि गोत्र को प्रसन्नकर बाद में तपश्चरण करता हूँ, तो अधिकतर उसका यह तपश्चरण ही नहीं है; किसी भी प्रकार तपश्चरण ग्रहण करने पर भी, यदि गोत्र आदि में ममकार करता है, तो वह तपोधन (मुनि) ही नहीं है । वैसा ही कहा है - 'जो पहले सम्पूर्ण नगर व राज्य को छोड़कर बाद में ममत्व करता है, वह लिंगधारी (मुनि) विशेषरूप से संयम के सार से निस्सार (रहित) है ।'