ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 205-206 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । (205)
रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं ॥219॥
मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहिं । (206)
लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेण्हं ॥220॥
अर्थ:
[यथाजातरूपजातम्] जन्मसमय के रूप जैसा रूप-वाला, [उत्पाटितकेशश्मश्रुकं] सिर और दाढी-मूछ के बालों का लोंच किया हुआ, [शुद्धं] शुद्ध (अकिंचन), [हिंसादितः रहितम्] हिंसादि से रहित और [अप्रतिकर्म] प्रतिकर्म (शारीरिक श्रंगार) से रहित - [लिंगं भवति] ऐसा (श्रामण्य का बहिरंग) लिंग है ।
[मूर्च्छारम्भवियुक्तम्] मूर्च्छा (ममत्व) और आरम्भ रहित, [उपयोगयोगशुद्धिभ्यांयुक्तं] उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त तथा [न परापेक्षं] पर की अपेक्षा से रहित -- ऐसा [जैनं] जिनेन्द्रदेव कथित [लिंगम्] (श्रामण्य का अंतरंग) लिंग है [अपुनर्भवकारणम्] जो कि मोक्ष का कारण है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैतस्य यथाजातरूपधरत्वस्यासंसारानभ्यस्तत्वेनात्यन्तमप्रसिद्धस्याभिनवाभ्यास कौशलोपलभ्यमानाया: सिद्धेर्गमकं बहिरङ्गान्तरङ्गलिङ्गद्वैतमुपदिशति -
आत्मनो हि तावदात्मना यथोदितक्रमेण यथाजातरूपधरस्य जातस्यायथाजातरूपधरत्व-प्रत्ययानां मोहरागद्वेषादिभावानां भवत्येवाभाव:, तदभावात्तु तद्भावभाविनो निवसनभूषण-धारणस्य मूर्धजव्यञ्जनपालनस्य सकिंचनत्वस्य सावद्ययोगयुक्तत्वस्य शरीरसंस्कारकरणत्वस्य चाभावाद्यथाजातरूपत्वमुत्पाटितकेशश्मश्रुत्वं शुद्धत्वं हिंसादिरहितत्वमप्रतिकर्मत्वं च भवत्येव, तदेतद्बहिरंगं लिंगम् ।
तथात्मनो यथाजातरूपधरत्वापसारिता यथाजातरूपधरत्वप्रत्ययमोहरागद्वेषादिभावानाम-भावादेव तद्भावभाविनो ममत्वकर्मप्रक्रमपरिणामस्य शुभाशुभोपरक्तोपयोगतत्पूर्वकतथाविध-योगाशुद्धियुक्तत्वस्य परद्रव्यसापेक्षत्वस्य चाभावान्मूर्च्छारम्भवियुक्तत्वमुपयोगयोगशुद्धियुक्त-त्वमपरापेक्षत्वं च भवत्येव, तदेतदन्तरंगं लिंगम् ॥२०५-२०६ ॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
प्रथम तो अपने से, यथोक्तक्रम से यथाजातरूपधर हुए आत्मा के अयथाजात-रूपधरपने के कारणभूत मोह-राग-द्वेषादिभावों का अभाव होता ही है; और उनके अभाव के कारण, जो कि उनके सद्भाव में होते हैं ऐसे
- वस्त्राभूषण का धारण,
- सिर और दाढ़ी-मूछों के बालों का रक्षण,
- सकिंचनत्व,
- सावद्ययोग से युक्तता तथा
- शारीरिक संस्कार का करना,
- जन्मसमय के रूप जैसा रूप,
- सिर और दाढ़ी-मूछ के बालों का लोच,
- शुद्धत्व,
- हिंसादिरहितता तथा
- अप्रतिकर्मत्व (शारीरिक श्रृंगार-संस्कार का अभाव) होता ही है ।
और फिर, आत्मा के यथाजात-रूपधरपने से दूर किया गया जो अयथाजात-रूपधरपना, उसके कारणभूत मोह-राग-द्वेषादिभावों का अभाव होने से ही जो उनके सद्भाव में होते हैं ऐसे जो
- ममत्व के और कर्मप्रक्रम के परिणाम,
- शुभाशुभ उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक तथाविध योग की अशुद्धि से युक्तता तथा
- पर-द्रव्य से सापेक्षता; इस (तीनों) का अभाव होता है;
- मूर्छा और आरम्भ से रहितता,
- उपयोग और योग की शुद्धि से युक्तता तथा
- पर की अपेक्षा से रहितता होती ही है ।
अब इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर पहले भावि नैगमनय से कहे गये पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर उसके आधार से उपस्थित स्वस्थ-स्वरूप लीन होकर वह श्रमण होता है ऐसा प्रसिद्ध करते हैं -