ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 207 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता । (207)
सोच्चा सवदं किरियं उवट्ठिदो होदि सो समणो ॥221॥
अर्थ:
[परमेण गुरुणा] परम गुरु के द्वारा प्रदत्त [तदपि लिंगम्] उन दोनों लिंगों को [आदाय] ग्रहण करके, [सं नमस्कृत्य] उन्हें नमस्कार करके [सव्रतां क्रियां श्रुत्वा] व्रत सहित क्रिया को सुनकर [उपस्थित:] उपस्थित (आत्मा के समीप स्थित) होता हुआ [सः] वह [श्रमण: भवति] श्रमण होता है ॥२०७॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथैतलिङ्गद्वैतमादाय पूर्वं भाविनैगमनयेन यदुक्तंपञ्चाचारस्वरूपं तदिदानीं स्वीकृत्य तदाधारेणोपस्थितः स्वस्थो भूत्वा श्रमणो भवतीत्याख्याति --
आदाय तं पि लिंगं आदाय गृहीत्वा तत्पूर्वोक्तं लिङ्गद्वयमपि । क थंभूतम् । दत्तमिति क्रि याध्याहारः । के न दत्तम् । गुरुणा परमेण दिव्यध्वनिकाले परमागमोपदेशरूपेणार्हद्भट्टारकेण, दीक्षाकाले तु दीक्षागुरुणा । लिङ्गग्रहणानन्तरं तं णमंसित्ता तं गुरुं नमस्कृत्य, सोच्चा तदनन्तरं श्रुत्वा । काम् । किरियं क्रियांबृहत्प्रतिक्रमणाम् । किंविशिष्टम् । सवदं सव्रतां व्रतारोपणसहिताम् । उवट्ठिदो ततश्चोपस्थितः स्वस्थः सन् होदि सो समणो स पूर्वोक्तस्तपोधन इदानीं श्रमणो भवतीति । इतो विस्तरः --
पूर्वोक्त लिङ्गद्वय-ग्रहणानन्तरं पूर्वसूत्रोक्तपञ्चाचारमाश्रयति, ततश्चानन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपेण भावनमस्कारेण तथैव तद्गुणप्रतिपादकवचनरूपेण द्रव्यनमस्कारेण च गुरुं नमस्करोति । ततः परं समस्तशुभाशुभपरिणाम-निवृत्तिरूपं स्वस्वरूपे निश्चलावस्थानं परमसामायिकव्रतमारोहति स्वीकरोति । मनोवचनकायैःकृतकारितानुमतैश्च जगत्त्रये कालत्रयेऽपि समस्तशुभाशुभकर्मभ्यो भिन्ना निजशुद्धात्मपरिणतिलक्षणा या तु क्रिया सा निश्चयेन बृहत्प्रतिक्रमणा भण्यते । व्रतारोपणानन्तरं तां च शृणोति । ततो निर्विकल्पसमाधिबलेन कायमुत्सृज्योपस्थितो भवति । ततश्चैवं परिपूर्णश्रमणसामग्यां सत्यां परिपूर्ण-श्रमणो भवतीत्यर्थः ।।२०७।। एवं दीक्षाभिमुखपुरुषस्य दीक्षाविधानकथनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथासप्तकं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब, इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर, पहले भावि-नैगमनय से कहे गए पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर, उसके आधार से उपस्थित - स्वस्थ - स्वरूप-लीन होकर वह श्रमण होता है, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं --
[आदय तं पि लिंगं] उन पहले (२१९ व २२० गाथा में) कहे गये दोनों लिंगों को भी ग्रहण कर । कैसे दोनों लिंगो को ग्रहणकर ? [दत्तं] यह क्रिया अध्याहार है (प्रकरणानुसार ले लेना चाहिये) अर्थात् दिये गये दोनों लिंगों को ग्रहणकर । किसके द्वारा दिये गये उनको ग्रहणकर ? [गुरुणा परमेण] दिव्यध्वनि के समय परमागम के उपदेशरूप से अरहन्त भट्टारक-भगवान द्वारा तथा दीक्षा के समय दीक्षा गुरु द्वारा दिये गये उन लिंगों को ग्रहणकर । लिंग ग्रहण करने के बाद [तं णमंसित्ता] उन गुरु को नमस्कार कर [सोच्चा] उसके बाद सुनकर । किसे सुनकर? [किरियं] क्रिया अर्थात वृहत्-प्रतिक्रमण को सुनकर । किससे सहित उसे सुनकर ? [सवदं] सव्रत-व्रतारोपण सहित व्रहत प्रतिक्रमणरूप क्रिया को सुनकर । [उवट्ठिदो] और उसके बाद उपस्थित-स्वस्थ-अपने में लीन होता हुआ [होदि सो समणो] वह पहले कहा हुआ तपोधन-मुनि, अब श्रमण होता है ।
यहाँ उसका विस्तार करते हैं -
- पहले (२१९- २२० वीं गाथा में) कहे गये दोनों लिंगों को, ग्रहण करने के बाद
- पहले (२१६ वीं) गाथा में कहे गये पंचाचार का आश्रय लेते हैं,
- तदुपरान्त अनन्तज्ञानादि गुण-स्मरणरूप भावनमस्कार द्वारा और वैसे ही उन गुणों के प्रतिपादक वचनरूप द्रव्य नमस्कार द्वारा, गुरु को नमस्कार करते हैं ।
- उसके बाद सम्पूर्ण शुभ-अशुभ परिणामों से निवृत्ति रूप अपने स्वरूप में निश्चल अवस्थानमयी, परम सामायिक व्रत पर आरोहण करते हैं (परम सामायिक व्रत को स्वीकार करते हैं) ।
- मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा तीन-लोक और तीन-काल में भी, सम्पूर्ण शुभ-अशुभ कर्मों, से भिन्न अपने शुद्धात्मारूप परिणति लक्षण जो क्रिया, वह निश्चय से वृहत् प्रतिक्रमण कहलाती है; व्रतारोपण के बाद उसे सुनते हैं ।
- तत्पश्चात् निर्विकल्प-समाधि के बल से शरीर का त्यागकर- शरीर के प्रति मोह का त्याग कर, उपस्थित- स्वरूप लीन होते हैं ।
इसप्रकार दीक्षा के सम्मुख पुरुष के दीक्षा-विधान कथन की मुख्यता से पहले स्थल में सात गाथायें पूर्ण हुई ।