ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 208-209 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । (208)
खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥222॥
एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । (209)
तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥223॥
अर्थ:
[व्रतसमितीन्द्रियरोधः] व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, [लोचावश्यकम्] लोच, आवश्यक, [अचेलम्] अचेलपना, [अस्नानं] अस्नान, [क्षितिशयनम्] भूमिशयन, [अदंतधावनं] अदंतधोवन, [स्थितिभोजनम्] खड़े-खड़े भोजन, [च] और [एकभक्तं] एक बार आहार - [एते] ये [खलु] वास्तव में [श्रमणानां मूलगुणा:] श्रमणों के मूलगुण [जिनवरै: प्रज्ञप्ता:] जिनवरों ने कहे हैं; [तेषु] उनमें [प्रमत्त:] प्रमत्त होता हुआ [श्रमण:] श्रमण [छेदोपस्थापक: भवति] छेदोपस्थापक होता है ॥२०८-२०९॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथाविच्छिन्नसामायिकाधिरूढोऽपि श्रमण: कदाचिच्छेदोपस्थापनमर्हतीत्युपदिशति -
सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणैकमहाव्रतव्यक्तिवशेन हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरत्या-त्मकं पञ्चतयं व्रतं, तत्परिकरश्च पञ्चतयी समिति: पञ्चतय इन्द्रियरोधो लोच: षट्तयमाव-श्यकमचेलक्यमस्नानं क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तश्चैवं एते निर्विकल्प-सामायिकसंयमविकल्पत्वात् श्रमणानां मूलगुणा एव ।
तेषु यदा निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा केवल-कल्याणमात्रार्थिन: कुण्डलवलयांगुलीयादिपरिग्रह: किल श्रेयान्, न पुन: सर्वथा कल्याण-लाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवति ॥२०८-२०९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रत की व्यक्तियाँ (विशेष, प्रगटताएँ) होने से
- हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह की विरतिस्वरूप पाँच प्रकार के व्रत तथा
- उसकी परिकरभूत पाँच प्रकार की समिति,
- पाँच प्रकार का इन्द्रियरोध,
- लोच,
- छह प्रकार के आवश्यक,
- अचेलपना,
- अस्नान,
- भूमिशयन,
- अदंतधावन (दातुन न करना),
- खड़े-खड़े भोजन, और
- एक बार आहार लेना;