ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 20 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं । (20)
जम्हा अदिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं ॥21॥
अर्थ:
[केवलज्ञानिन:] केवलज्ञानी के [देहगतं] शरीर-सम्बन्धी [सौख्यं] सुख [वा पुन: दुःखं] या दुःख [नास्ति] नहीं है, [यस्मात्] क्योंकि [अतीन्द्रियत्व जातं] अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है [तस्मात् तु तत् ज्ञेयम्] इसलिये ऐसा जानना चाहिये ॥२०॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथातीन्द्रियत्वादेव शुद्धात्मन: शारीरं सुखदु:खं नास्तीति विभावयति -
यत एव शुद्धात्मनो जातवेदस एव कालायसगोलोत्कूलितपुद्गलाशेषविलासकल्पो नास्तीन्द्रियग्रामस्तत एव घोरघनघाताभिघातपरम्परास्थानीयं शरीरगतं सुखदु:खं न स्यात् ॥२०॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब अतीन्द्रियता के कारण ही शुद्ध-आत्मा के (केवली भगवान के) शारीरिक सुख-दुःख नहीं है यह व्यक्त करते हैं :-
जैसे अग्नि को लोह-पिण्ड के तप्त पुद्गलों का समस्त विलास नहीं है (अर्थात् अग्नि लोहे के गोले के पुद्गलों के विलास से-उनकी क्रियासे- भिन्न है) उसी प्रकार शुद्ध आत्मा के (अर्थात् केवलज्ञानी भगवान के) इन्द्रिय-समूह नहीं है; इसीलिये जैसे अग्नि को घन के घोर आघातों की परम्परा नहीं है (लोहे के गोले के संसर्ग का अभाव होने पर घन के लगातार आघातों की भयंकर मार अग्नि पर नहीं पड़ती) इसी प्रकार शुद्ध आत्मा के शरीर सम्बन्धी सुख दुःख नहीं हैं ॥२०॥