ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 214 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्हि दंसणमुहम्हि । (214)
पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ॥228॥
अर्थ:
[यः श्रमण:] जो श्रमण [नित्यं] सदा [ज्ञाने दर्शनमुखे] ज्ञान में और दर्शनादि में [निबद्ध:] प्रतिबद्ध [च] तथा [मूलगुणेषु प्रयत:] मूलगुणों में प्रयत (प्रयत्नशील) [चरति] विचरण करता है, [सः] वह [परिपूर्णश्रामण्य:] परिपूर्ण श्रामण्यवान् है ॥२१४॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ श्रामण्यपरिपूर्णकारणत्वात्स्वशुद्धात्मद्रव्ये निरन्तरमवस्थानं कर्तव्यमित्याख्याति --
चरदि चरति वर्तते । क थंभूतः । णिबद्धो आधीनः, णिच्चं नित्यं सर्वकालम् । सः क : क र्ता । समणो लाभालाभादिसमचित्तश्रमणः । क्व निबद्धः । णाणम्हि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतपरमागमज्ञाने तत्फलभूत-स्वसंवेदनज्ञाने वा, दंसणमुहम्हि दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्फलभूतनिजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूप-निश्चयसम्यक्त्वं वा तत्प्रमुखेष्वनन्तसुखादिगुणेषु । पयदो मूलगुणेसु य प्रयतः प्रयत्नपरश्च । केषु । मूलगुणेषु निश्चयमूलगुणाधारपरमात्मद्रव्ये वा । जो सो पडिपुण्णसामण्णो य एवंगुणविशिष्टश्रमणः सपरिपूर्णश्रामण्यो भवतीति । अयमत्रार्थः — निजशुद्धात्मभावनारतानामेव परिपूर्णश्रामण्यं भवतीति ॥२२८॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[चरदि] आचरण करते हैं-वर्तते हैं । कैसे आचरण करते हैं ? [णिबद्धो] आधीन [णिच्चं] नित्य-सर्वकाल-हमेशा आचरण करते हैं । आचरण करनेवाले वे कौन हैं? [समणो] लाभ-अलाभ आदि में समान चित्तवाले श्रमण । वे कहाँ निबद्ध-लीन हैं ? [णाणम्मि] वीतराग-सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये, परमागम के ज्ञान में अथवा उसके फलभूत स्वसंवेदन ज्ञान में, [दंसणमुहम्मि] दर्शन-तत्त्वार्थ श्रद्धान अथवा उसके फलभूत अपना शुद्धात्मा ही उपादेय-ग्रहण करने योग्य है- ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व, इनकी मुख्यता सहित अनन्त सुखादि गुणों में निबद्ध हैं । [पयदो मूलगुणेसु य] और प्रयत-प्रयत्नपर-प्रयत्नशील हैं । किनमें प्रयत्नशील हैं? मूलगुणों में अथवा निश्चय मूलगुणों के आधारभूत परमात्मद्रव्य में प्रयत्नशील हैं । [जो सो पडिपुण्णसामण्णो] जो इन गुणों से विशिष्ट श्रमण हैं, वे परिपूर्ण श्रामण्य हैं ।
यहाँ अर्थ यह है कि अपने शुद्धात्मा की भावना में लीन के ही, परिपूर्ण श्रमणता होती है ।