ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 220 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
ण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी । (220)
अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिदो ॥236॥
अर्थ:
[निरपेक्ष: त्याग: न हि] यदि निरपेक्ष (किसी भी वस्तु की अपेक्षारहित) त्याग न हो तो [भिक्षो:] भिक्षु के [आशयविशुद्धि:] भाव की विशुद्धि [न भवति] नहीं होती; [च] और [चित्ते अविशुद्धस्य] जो भाव में अविशुद्ध है उसके [कर्मक्षय:] कर्मक्षय [कथं नु] कैसे [विहित:] हो सकता है?
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथान्तरङ्गच्छेदप्रतिषेध एवायमुपधिप्रतिषेध इत्युपदिशति -
न खलु बहिरङ्गसंगसद्भावे तुषसद्भावे तण्डुलगताशुद्धत्वस्येवाशुद्धोपयोगरूपस्यान्तरङ्ग-च्छेदस्य प्रतिषेध:, तद्भावे च न शुद्धोपयोगमूलस्य कैवल्यस्योपलम्भ: ।
अतोऽशुद्धोपयोगरूपस्यान्तरंगच्छेदस्य प्रतिषेधं प्रयोजनमपेक्ष्योपधेर्विधीयमान: प्रतिषेधो-ऽन्तरंगच्छेदप्रतिषेध एव स्यात् ॥२२०॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, इस उपधि (परिग्रह) का निषेध वह अंतरंग छेद का ही निषेध है, ऐसा उपदेश करते हैं :-
जैसे छिलके के सद्भाव में चावलों में पाई जाने वाली (रक्ततारूप) अशुद्धता का त्याग (नाश, अभाव) नहीं होता, उसी प्रकार बहिरंग संग के सद्भाव में अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद का त्याग नहीं होता और उसके सद्भाव में शुद्धोपयोगमूलक कैवल्य (मोक्ष) की उपलब्धि नहीं होती । (इससे ऐसा कहा गया है कि) अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद के निषेधरूप प्रयोजन की उपेक्षा रखकर विहित (आदेश) किया जाने वाला उपधि का निषेध वह अन्तरंग छेद का ही निषेध है ॥२२०॥