ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 227 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा । (227)
अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥258॥
अर्थ:
[यस्य] आत्मा [अनेषण:] जिसका आत्मा एषणारहित है (अर्थात् जो अनशनस्वभावी आत्मा का ज्ञाता होने से स्वभाव से ही आहार की इच्छा से रहित है) [तत् अपि तप:] उसे वह भी तप है; (और) [तत्यत्येषका:] उसे प्राप्त करने के लिये (अनशन स्वभाव वाले आत्मा को परिपूर्णतया प्राप्त करने के लिये) प्रयत्न करने वाले [श्रमणा:] श्रमणों के [अन्यत् भैक्षम्] अन्य (स्वरूप से पृथक्) भिक्षा [अनेषणम्] एषणारहित (एषणदोष से रहित) होती है; [अथ] इसलिए [ते श्रमणा:] वे श्रमण [अनाहारा:] अनाहारी हैं।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ युक्ताहारविहार: साक्षादनाहारविहार एवेत्युपदिशति -
स्वयमनशनस्वभावत्वादेषणादोषशून्यभैक्ष्यत्वाच्च युक्ताहार:, साक्षादनाहार एव स्यात् । तथाहि - यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमवबुद्धय्यमानस्य सकलाशनतृष्णाशून्यत्वात्स्वयमनशन एव स्वभाव:, तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात्, इति कृत्वा ये तं स्वयमनशनस्वभावं भावयन्ति श्रमणा: तत्प्रतिषिद्धयेचैषणादोषशून्यमन्यद्भैक्षं चरन्ति, ते किलाहरन्तोऽप्यनाहरन्त एव युक्ताहारत्वेन स्वभावपरभावप्रत्ययबन्धाभावात्साक्षाद-नाहारा एव भवन्ति । एवं स्वयमविहारस्वभावत्वात्समितिशुद्धविहारत्वाच्च युक्तिविहार: साक्षा-दविहार एव स्यात् इत्यनुक्तमपि गम्येतेति ॥२२७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी (-अनाहारी और अविहारी) ही है ऐसाउपदेश करते हैं :-
- स्वयं अनशन स्वभाव वाला होने से (अपने आत्मा को स्वयं अनशन स्वभाव वाला जानने से) और
- एषणादोषशून्य भिक्षा वाला होने से,
- आत्मा को स्वयं अनशन स्वभाव भाते हैं (समझते हैं, अनुभव करते हैं) और
- उसकी सिद्धि के लिये (पूर्ण प्राप्ति के लिये) एषणादोषशून्य ऐसी अन्य (पररूप) भिक्षा आचरते हैं;
इस प्रकार (जैसे युक्ताहारी साक्षात् अनाहारी ही है, ऐसा कहा गया है उसी प्रकार),
- स्वयं अविहारस्वभाव वाला होने से और
- समितिशुद्ध (इर्यासमिति से शुद्ध ऐसे) विहार वाला होने से