ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 229 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । (229)
चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥260॥
अर्थ:
[खलु] वास्तव में [सः भक्त:] वह आहार (युक्ताहार) [एक:] एक बार [अप्रतिपूर्णोदर:] ऊनोदर [यथालब्ध:] यथालब्ध (जैसा प्राप्त हो वैसा), [भैक्षाचरणेन] भिक्षाचरण से, [दिवा] दिन में [न रसापेक्षः] रस की अपेक्षा से रहित और [न मधुमास:] मधु-मांस रहित होता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ युक्ताहारस्वरूपं विस्तरेणोपदिशति -
एककाल एवाहारो युक्ताहार:, तावतैव श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरस्य धारणत्वात् । अनेककालस्तु शरीरानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्त:, शरीरानुराग-सेवकत्वेन न च युक्तस्य । अप्रतिपूर्णोदर एवाहारो युक्ताहार: तस्यैवाप्रतिहतयोगत्वात् । प्रति-पूर्णोदरस्तु प्रतिहतयोगत्वेन कथंचित् हिंसायतनीभवन् न युक्त:, प्रतिहतयोगत्वेन न च युक्तस्य ।
यथालब्ध एवाहारो युक्ताहार: तस्यैव विशेषप्रियत्वलक्षणानुरागशून्यत्वात् । अयथालब्धस्तु विशेषप्रियत्वलक्षणानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्त:, विशेषप्रियत्वलक्षणानुरागसेवकत्वेन न च युक्तस्य । भिक्षाचरणेनैवाहारो युक्ताहार:, तस्यैवारम्भशून्यत्वात् । अभैक्षाचरणेन त्वारम्भसंभवात्प्रसिद्धहिंसायतनत्वेन न युक्त:, एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तर-शुद्धित्वान्न च युक्तस्य ।
दिवस एवाहारो युक्ताहार:, तदेव सम्यगवलोकनात् । अदिवसे तु सम्यगलोकनाभावाद-निवार्यहिंसायतनत्वेन न युक्त:, एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य ।
अरसापेक्ष एवाहारो युक्ताहार:, तस्यैवान्त:शुद्धिसुन्दरत्वात् । रसापेक्षस्तु अन्तरशुद्धया प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्त:, अन्तरशुद्धिसेवकत्वेन न च युक्तस्य ।
अमधुमांस एवाहारो युक्ताहार:, तस्यैवाहिंसायतनत्वात् । समधुमांसस्तु हिंसायतनत्वान्न युक्त: । एवंविधाहारसेवनव्यक्तान्तरशुद्धित्वान्न च युक्तस्य । मधुमांसमत्र हिंसायतनोपलक्षणं, तेन समस्तहिंसायतनशून्य एवाहारो युक्ताहार: ॥२२९॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब युक्ताहार का स्वरूप विस्तार से उपदेश करते हैं :-
- एक बार आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि उतने से ही श्रामण्य पर्याय का सहकारी कारणभूत शरीर टिका रहता है । ( एक से अधिक बार आहार लेना युक्ताहार नहीं है, ऐसा निम्नानुसार दो प्रकार से सिद्ध होता है :- )
- शरीर के अनुराग से ही अनेक बार आहार का सेवन किया जाता है, इसलिये अत्यन्तरूप से हिंसायतन किया जाता हुआ युक्त (योग्य) नहीं है; (अर्थात् वह युक्ताहार नहीं है); और
- अनेक बार आहार का सेवन करने वाला शरीरानुराग से सेवन करने वाला होने से वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है (अर्थात् वह युक्ताहार नहीं है ।)
- अपूर्णोदर आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही प्रतिहत योग रहित है । (पूर्णोदर आहार युक्ताहार नहीं है, यह निम्नलिखित दो प्रकार से सिद्ध होता है)
- पूर्णोदर आहार तो प्रतिहत योग वाला होने से कथंचित् हिंसायतन होता हुआ युक्त (योग्य) नहीं है; और
- पूर्णोदर आहार करने वाला प्रतिहत योग वाला होने से वह आहार युक्त (योगी) का आहार नहीं है ।
- यथालब्ध आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही (आहार) विशेषप्रियतास्वरूप अनुराग से शून्य है ।
- अयथालब्ध आहार तो विशेषप्रियतास्वरूप अनुराग से सेवन किया जाता है, इसलिये अत्यन्तरूप से हिंसायतन किया जाने के कारण युक्त (योग्य) नहीं है; और
- अयथालब्ध आहार का सेवन करने वाला विशेषप्रियतास्वरूप अनुराग द्वारा सेवन करनेवाला होने से वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है ।
- भिक्षाचरण से आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही आरंभशून्य है।
- अभिक्षाचरण से (भिक्षाचरण रहित) आहार में आरम्भ का सम्भव होने से हिंसायतनत्व प्रसिद्ध है, अत: वह आहार युक्त (योग्य) नहीं है; और
- ऐसे आहार के सेवन में (सेवन करने वाले की) अंतरंग अशुद्धि व्यक्त (प्रगट) होने से वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है।
- दिन का आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि वही सम्यक् (बराबर) देखा जा सकता है ।
- अदिवस (दिन के अतिरिक्त समय में) आहार तो सम्यक् नहीं देखा जा सकता, इसलिये उसके हिंसायतनपना अनिवार्य होने से वह आहार युक्त (योग्य) नहीं है; और
- ऐसे आहार के सेवन में अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होने से आहार युक्त (योगी) का नहीं है ।
- रस की अपेक्षा से रहित आहार ही युक्ताहार है । क्योंकि वही अन्तरंग शुद्धि से सुन्दर है ।
- रस की अपेक्षा वाला आहार तो अन्तरंग अशुद्धि द्वारा अत्यन्तरूप से हिंसायतन किया जाने के कारण युक्त (योग्य) नहीं है; और
- उसका सेवन करने वाला अन्तरंग अशुद्धि पूर्वक सेवन करता है इसलिये वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है ।
- मधु-मांस रहित आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि उसी के हिंसायतनपने का अभाव है ।
- मधु-मांस सहित आहार तो हिंसायतन होने से युक्त (योग्य) नहीं है; और
- ऐसे आहार से सेवन में अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होने से वह आहार युक्त (योगी) का नहीं है । यहाँ मधु-मांस हिंसायतन का उपलक्षण है इसलिये (मधु-मांस रहित आहार युक्ताहार है इस कथन से ऐसा समझना चाहिये कि) समस्त हिंसायतनशून्य आहार ही युक्ताहार है ॥२२९॥