ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 231 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधिं । (231)
जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो ॥265॥
अर्थ:
[यदि] यदि [श्रमण:] श्रमण [आहारे वा विहारे] आहार अथवा विहार में [देशं] देश, [कालं] काल, [श्रमं] श्रम, [क्षमां] क्षमता तथा [उपधिं] उपधि, [तान् ज्ञात्वा] इनको जानकर [वर्तते] प्रवर्ते [सः अल्पलेप:] तो वह अल्पलेपी होता है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथापवादनिरपेक्षमुत्सर्गं तथैवोत्सर्गनिरपेक्षमपवादं च निषेधयंश्चारित्ररक्षणाय व्यतिरेकद्वारेण तमेवार्थं द्रढयति --
वट्टदि वर्तते प्रवर्तते । स कः कर्ता । समणो शत्रुमित्रादिसमचित्तः श्रमणः । यदि किम् । जदि अप्पलेवी सो यदि चेदल्पलेपी स्तोकसावद्यो भवति । कयोर्विषययोर्वर्तते । आहारे व विहारे तपोधनयोग्याहारविहारयोः । किं कृत्वा पूर्वं । जाणित्ता ज्ञात्वा ।कान् । ते तान् कर्मतापन्नान्; देसं कालं समं खमं उवधिं देशं, कालं, मार्गादिश्रमं, क्षमांक्षमतामुपवासादिविषये शक्तिं , उपधिं बालवृद्धश्रान्तग्लानसंबन्धिनं शरीरमात्रोपधिं परिग्रहमिति पञ्च देशादीन् तपोधनाचरणसहकारिभूतानिति । तथाहि --
पूर्वकथितक्रमेण तावद्दुर्धरानुष्ठानरूपोत्सर्गे वर्तते;तत्र च प्रासुकाहारादिग्रहणनिमित्तमल्पलेपं द्रष्टवा यदि न प्रवर्तते तदा आर्तध्यानसंक्लेशेन शरीरत्यागं कृत्वा पूर्वकृतपुण्येन देवलोके समुत्पद्यते । तत्र संयमाभावान्महान् लेपो भवति । ततः कारणादपवाद-निरपेक्षमुत्सर्गं त्यजति, शुद्धात्मभावनासाधकमल्पलेपं बहुलाभमपवादसापेक्षमुत्सर्गं स्वीकरोति । तथैवच पूर्वसूत्रोक्तक्रमेणापहृतसंयमशब्दवाच्येऽपवादे प्रवर्तते तत्र च प्रवर्तमानः सन् यदि कथंचिदौषध-पथ्यादिसावद्यभयेन व्याधिव्यथादिप्रतीकारमकृत्वा शुद्धात्मभावनां न करोति तर्हि महान् लेपो भवति; अथवा प्रतीकारे प्रवर्तमानोऽपि हरीतकीव्याजेन गुडभक्षणवदिन्द्रियसुखलाम्पटयेन संयमविराधनां करोति तदापि महान् लेपो भवति । ततः कारणादुत्सर्गनिरपेक्षमपवादं त्यक्त्वा शुद्धात्मभावनारूपंशुभोपयोगरूपं वा संयममविराधयन्नौषधपथ्यादिनिमित्तोत्पन्नाल्पसावद्यमपि बहुगुणराशिमुत्सर्गसापेक्षम-पवादं स्वीकरोतीत्यभिप्रायः ॥२३१॥
एवं 'उवयरणं जिणमग्गे' इत्याद्येकादशगाथाभिरपवादस्य विशेष-विवरणरूपेण चतुर्थस्थलं व्याख्यातम् ।
इति पूर्वोक्तक्रमेण 'ण हि णिरवेक्खो चागो' इत्यादित्रिंशद्गाथाभिःस्थलचतुष्टयेनापवादनामा द्वितीयान्तराधिकारः समाप्तः । अतः परं चतुर्दशगाथापर्यन्तं श्रामण्यापरनामामोक्षमार्गाधिकारः कथ्यते । तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति । तेषु प्रथमतः आगमाभ्यासमुख्यत्वेन 'एयग्गगदो समणो' इत्यादि यथाक्रमेण प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयम् । तदनन्तरं भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूपमेवमोक्षमार्ग इति व्याख्यानरूपेण 'आगमपुव्वा दिट्ठी' इत्यादि द्वितीयस्थले सूत्रचतुष्टयम् । अतः परंद्रव्यभावसंयमकथनरूपेण 'चागो य अणारंभो' इत्यादि तृतीयस्थले गाथाचतुष्टयम् । तदनन्तरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपसंहारमुख्यत्वेन 'मुज्झदि वा' इत्यादि चतुर्थस्थले गाथाद्वयम् । एवंस्थलचतुष्टयेन तृतीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका । तद्यथा --
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब, अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग और उसीप्रकार उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद का निषेध करते हुये चारित्र की रक्षा के लिये व्यतिरेक द्वार से (नास्तिपरक शैली में), उसी अर्थ को दृढ़ करते हैं --
[वट्टदि] वर्तते हैं- प्रवृत्त होते हैं । वे कर्तारूप कौन वर्तते हैं? [समणो] शत्रु-मित्र आदि में समान मनवाले श्रमण-मुनिराज वर्तते हैं । यदि वे वर्तते हैं तो क्या होता है? [जदि अप्पलेवी सो] यदि वर्तते हैं तो अल्पलेपी-थोड़ा पाप होता है । किन विषयों में वर्तते हैं? [आहारे व विहारे] मुनिराज के योग्य आहार व विहार में वर्तते हैं । पहले क्या करके वर्तते हैं? [जाणित्ता] पहले जानकर वर्तते हैं । किन्हें जानकर वर्तते हैं? [ते] उन कर्मता को प्राप्त (कर्मकारक में प्रयुक्त) [देसं कालं समं खमं उवधिं] देश, काल, मार्ग आदि सम्बन्धी श्रम-क्षमता, उपवास आदि के विषय में शक्ति को, उपधि-बालक- वृद्ध-थके हुये-रोगी के शरीर मात्र उपधि-परिग्रह को- इसप्रकार मुनिराज के आचरण के सहकारीभूत, देश आदि पाँचों को जानकर आहार-विहार में वर्तते हैं ।
वह इसप्रकार- पहले (२६४ वीं गाथा में) कहे गये क्रम से, पहले दुर्धर अनुष्ठानरूप उत्सर्ग में वर्तते हैं और वहाँ प्रासुक आहार आदि ग्रहण करने के निमित्त से अल्पलेप- बन्ध देखकर यदि उनमें नहीं वर्तते हैं तो आर्तध्यानरूप संक्लेश द्वारा शरीर का त्याग करके पहले किये गये पुण्य से देवलोक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ संयम का अभाव होने से, महान लेप (अधिक बन्ध) होता है । इस कारण अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग छोड़ देते हैं और शुद्धात्मा की भावना का साधक थोड़ा लेप बहुत लाभरूप अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग स्वीकार करते हैं ।
और उसीप्रकर पहले (२६४ वीं) गाथा में कहे गये क्रम से अपह्रत संयम शब्द से कहने योग्य अपवाद में प्रवृत्त होते हैं और वहाँ प्रवर्तते हुये, यदि कथंचित् औषध-पथ्य आदि सावद्य पाप के भय से रोग सम्बन्धी कष्ट का प्रतिकार-निराकरण नहीं करके शुद्धात्मतत्त्व की भावना नहीं करते हैं तो महान लेप होता है, अथवा यदि प्रतिकार में प्रवृत्त होते हुये भी, हरीत की (हरड़) के ब्याज से-बहाने गुड़ खाने के समान इन्द्रिय की लम्पटता-आसक्ति से संयम की विराधना करते हैं, तो भी महान लेप होता है । इस कारण उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद छोड़कर, शुरद्धात्मा की भावनारूप अथवा शुभोपयोगरूप संयम की विराधना नहीं करते हुए, औषध- पथ्य आदि के कारण उत्पन्न अल्प पाप होते हुये भी, बहुगुण राशिरूप उत्सर्ग की सापेक्षतावाला अपवाद स्वीकर करते हैं- ऐसा अभिप्राय है ॥२६५॥
इसप्रकार उवयरणं जिणमग्गे इत्यादि ग्यारह गाथाओं द्वारा अपवाद के विशेष कथनरूप से चौथे स्थल का व्याख्यान पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार पहले कहे गये क्रम से ण हि णिरवेक्खो चागो- इत्यादि तीस गाथाओं द्वारा चार स्थलरूप से अपवाद नामक दूसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।
इसके आगे चौदह गाथाओं तक, श्रामण्य दूसरा नाम मोक्षमार्ग नामक तीसरा अन्तराधिकार कहते हैं । वहाँ चार स्थल हैं । उनमें सबसे पहले आगम-अभ्यास की मुख्यता से एयग्गगदो समणो इत्यादि यथाक्रम से पहले स्थल में चार गाथायें हैं । तदुपरान्त भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप ही मोक्षमार्ग है- इस व्याख्यानरूप से आगमपुव्वा दिट्ठी इत्यादि स्थल में चार गाथायें हैं । तदुपरान्त द्रव्य-भाव संयम कथनरूप से चागो य अणारंभो इत्यादि तीसरे स्थल में चार गाथायें है । तत्पश्चात् निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग के उपसंहार की मुख्यता से मुज्झदि वा इत्यादि चौथे स्थल में, दो गाथायें हैं ।
इसप्रकार चार स्थलों द्वारा तीसरे अन्तराधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।
तृतीय अन्तराथिकार का स्थल विभाजन (गाथा २६६ से २७९ पर्यन्त)
(अब मोक्षमार्ग नामक तीसरे अन्तराधिकार का चार गाथाओं में निबद्ध पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)
वह इसप्रकार-