ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 234 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि । (234)
देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु ॥268॥
अर्थ:
[साधु:] साधु [आगमचक्षु:] आगमचक्षु (आगमरूप चक्षु वाले) हैं, [सर्वभूतानि] सर्वप्राणी [इन्द्रिय चक्षूंषि] इन्द्रिय चक्षु वाले हैं, [देवा: च] देव [अवधिचक्षुषः] अवधिचक्षु हैं [पुन:] और [सिद्धा:] सिद्ध [सर्वत: चक्षुषः] सर्वत:चक्षु (सर्व ओर से चक्षु वाले अर्थात् सर्वात्मप्रदेशों से चक्षुवान्) हैं ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
इह तावद्भगवन्त: सिद्धा एव शुद्धज्ञानमयत्वात्सर्वतश्चक्षुष:, शेषाणि तु सर्वाण्यपि भूतानि मूर्तद्रव्यावसक्तदृष्टित्वादिन्द्रियचक्षूंषि, देवास्तु सूक्ष्मत्वविशिष्टमूर्तद्रव्यग्राहित्वादवधिचक्षुष:, अथ च तेऽपि रूपिद्रव्यमात्रदृष्टत्वेनेन्द्रियचक्षुभ्योऽविशिष्यमाणा इन्द्रियचक्षुष एव ।
एवममीषु समस्तेष्वपि संसारिषु मोहोपहततया ज्ञेयनिष्ठेषु सत्सु ज्ञाननिष्ठत्वमूलशुद्धात्म-तत्त्वसंवेदनसाध्यं सर्वतश्चक्षुस्त्वं न सिद्धय्येत् ।
अथ तत्सिद्धये भगवन्त: श्रमणा आगमचक्षुषो भवन्ति । तेन ज्ञेयज्ञानयोरन्योन्यसंवलेना-शक्यविवेचनत्वे सत्यपि स्वपरविभागमारचय्य निर्भिन्नमहामोहा: सन्त: परमात्मानमवाप्य सततं ज्ञाननिष्ठा एवावतिष्ठन्ते । अत: सर्वमप्यागमचक्षुषैव मुमुक्षूणां द्रष्टव्यम् ॥२३४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, मोक्षमार्ग पर चलनेवालों को आगम ही एक चक्षु है ऐसा उपदेश करते हैं :-
प्रथम तो, इस लोक में
- भगवन्त सिद्ध ही शुद्ध-ज्ञान-मय होने से सर्वत: चक्षु हैं, और
- शेष सभी जीव, मूर्त-द्रव्यों में ही उनकी दृष्टि लगने से इन्द्रिय-चक्षु हैं ।
- देव सूक्ष्मत्व-विशिष्ट मूर्त-द्रव्यों को ग्रहण करते हैं इसलिये वे अवधि-चक्षु हैं; अथवा वे भी, मात्र रूपी-द्रव्यों को देखते हैं इसलिये उन्हें इन्द्रिय-चक्षु वालों से अलग न किया जाये तो, इन्द्रिय-चक्षु ही हैं ।
अब, उस (सर्वत:चक्षुपने) की सिद्धि के लिये भगवंत श्रमण आगम-चक्षु होते हैं । यद्यपि ज्ञेय और ज्ञान का पारस्परिक मिलन हो जाने से उन्हें भिन्न करना अशक्य है (अर्थात् ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात न हों ऐसा करना अशक्य है) तथापि वे उस आगम-चक्षु से स्व-पर का विभाग करके, महा-मोह को जिनने भेद डाला है ऐसे वर्तते हुए परमात्मा को पाकर, सतत ज्ञान-निष्ठ ही रहते हैं ।
इससे (यह कहा जाता है कि) मुमुक्षुओं को सब कुछ आगम-रूप चक्षु द्वारा ही देखना चाहिये ॥२३४॥