ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 237 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु । (237)
सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ॥271॥
अर्थ:
[आगमेन] आगम से, [यदि अपि] यदि [अर्थेषु श्रद्धानं नास्ति] पदार्थों का श्रद्धान न हो तो, [न हि सिद्धति] सिद्धि (मुक्ति) नहीं होती; [अर्थान् श्रद्धधानः] पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी [असंयत: वा] यदि असंयत हो तो [न निर्वाति] निर्वाण को प्राप्त नहीं होता ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटयति -
श्रद्धानशून्येनागमजनितेन ज्ञानेन, तदविनाभाविना श्रद्धानेन च संयमशून्येन, न तावत्सिद्धय्यति ।
तथाहि - आगमबलेन सकलपदार्थान् विस्पष्टं तर्कयन्नपि, यदि सकलपदार्थज्ञेयाकार-करम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं न तथा प्रत्येति, तदा यथोदितात्मन: श्रद्धानशून्यतया यथोदितमात्मानमननुभवन् कथं नाम ज्ञेयनिमग्नो ज्ञानविमूढो ज्ञानी स्यात् । अज्ञानिनश्च ज्ञेय-द्योतको भवन्नप्यागम: किं कुर्यात् । तत: श्रद्धानशून्यादागमान्नास्ति सिद्धि: ।
किंच - सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽप्यनुभवन्नपि, यदि स्वस्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति तदानादिमोहरागद्वेषवासनोपजनितपरद्रव्यचङ्क्रमणस्वै- रिण्याश्चिद्वृत्ते: स्वस्मिन्नेव स्थानान्निवसिननि:कम्पैकतत्त्वमूर्च्छितचिद्वृत्त्यभावात्कथं नाम संयत: स्यात् । असंयतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा किं कुर्यात् । तत: संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धि: ।
अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतैव ॥२३७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि - आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व के अयुगपत्पने को मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता :-
आगमबल से सकल पदार्थों की विस्पष्ट तर्कणा करता हुआ भी यदि जीव सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होने वाला विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा को उस प्रकार से प्रतीत नहीं करता तो यथोक्त आत्मा के श्रद्धान से शून्य होने के कारण जो यथोक्त आत्मा का अनुभव नहीं करता ऐसा वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ़ जीव कैसे ज्ञानी होगा? (नहीं होगा, वह अज्ञानी ही होगा ।) और अज्ञानी को ज्ञेयद्योतक होने पर भी, आगम क्या करेगा? (आगम ज्ञेयों का प्रकाशक होने पर भी वह अज्ञानी के लिये क्या कर सकता है?) इसलिये श्रद्धानशून्य आगम से सिद्धि नहीं होती ।
और, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हुआ विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा का श्रद्धान करता हुआ भी, अनुभव करता हुआ भी यदि जीव अपने में ही संयमित होकर नहीं रहता, तो अनादि मोहरागद्वेष की वासना से जनित जो परद्रव्य में भ्रमण उसके कारण जो स्वैरिणी (स्वच्छाचारिणी, व्यभिचारिणी) है ऐसी चिद्वृत्ति (चैतन्य की परिणति) अपने में ही रहने से, वासनारहित निष्कंप एक तत्त्व में लीन चिद्वृत्ति का अभाव होने से, वह कैसे संयत होगा? (नहीं होगा, असंयत ही होगा) और असंयत को, यथोक्त आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान या यथोक्त आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान क्या करेगा? इसलिये संयमशून्य श्रद्धान से या ज्ञान से सिद्धि नहीं होती ।
इससे आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व के अयुगपत्पना को मोक्षमार्गपने घटित नहीं होता ॥२३७॥