ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 241 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो । (241)
समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥276॥
अर्थ:
[समशत्रुबन्धुवर्ग:] जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, [समसुखदुःख:] सुख और दुःख समान है, [प्रशंसानिन्दासम:] प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसको समता है, [समलोष्टकाचन:] जिसे लोष्ठ (मिट्टी का ढेला) और सुवर्ण समान है, [पुन:] तथा [जीवितमरणेसम:] जीवन-मरण के प्रति जिसको समता है, वह [श्रमण:] श्रमण है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथास्य सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यसंयतस्य कीदृग्ल-क्षणमित्यनुशास्ति -
संयम: सम्यग्दर्शनज्ञानपुर:सरं चारित्रं, चारित्रं धर्म:, धर्म: साम्यं, साम्यं मोहक्षोभविहीन: आत्मपरिणाम: । तत: संयतस्य साम्यं लक्षणम् । तत्र शत्रुबन्धुवर्गयो: सुखदु:खयो: प्रशंसा-निन्दयो: लोष्टकाञ्चनयोर्जीवितमरणयोश्च समम् अयं मम परोऽयं स्व:, अयमाह्लादोऽयं परिताप:, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिञ्चित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारण-मयमत्यन्तविनाश इति मोहाभावात् सर्वत्राप्यनुदितरागद्वेषद्वैतस्य, सततमपि विशुद्धदृष्टिज्ञप्ति-स्वभावमात्मानमनुभवत:, शत्रुबन्धुसुखदु:खप्रशंसानिन्दालोष्टकाञ्चनजीवितमरणानि निर्वि-शेषमेव ज्ञेयत्वेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्यत्किलसर्वत: साम्यं तत्सिद्धागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मकज्ञानयौगपद्यस्य संयतस्य लक्षणमालक्षणीयम् ॥२४१॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्व के युगपत्पने का तथा आत्मज्ञान का युगपत्पना जिसे सिद्ध हुआ है ऐसे इस संयत का क्या लक्षण है सो कहते हैं :-
संयम, सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है; चारित्र धर्म है; धर्म साम्य है; साम्य मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम है । इसलिये संयत का, साम्य लक्षण है ।
वहाँ,
- शत्रु-बंधुवर्ग में,
- सुख-दुःख में,
- प्रशंसा-निन्दा में,
- मिट्टी के ढेले और सोने में,
- जीवित-मरण में
- यह मेरा पर (शत्रु) है, यह स्व (स्वजन) है;
- यह आह्लाद है, यह परिताप है,
- यह मेरा उत्कर्षण (कीर्ति) है, यह अपकर्षण (अकीर्ति) है,
- यह मुझे अकिंचित्कर है, यह उपकारक (उपयोगी) है,
- यह मेरा स्थायित्व है, यह अत्यन्त विनाश है