ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 242 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु । (242)
एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ॥277॥
अर्थ:
[यः तु] जो [दर्शनज्ञानचरित्रेषु] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [त्रिषु] इन तीनों में [युगपत्] एक ही साथ [समुत्थित:] आरूढ़ है, वह [ऐकाग्रत:] एकाग्रता को प्राप्त है । [इति] इस प्रकार [मत:] (शास्त्र में) कहा है । [तस्य] उसके [श्रामण्यं] श्रामण्य [परिपूर्णम्] परिपूर्ण है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ यदेव संयततपोधनस्य साम्यलक्षणं भणितं तदेव श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो भण्यत इति प्ररूपयति --
दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु दर्शनज्ञानचारित्रेषु त्रिषुयुगपत्सम्यगुपस्थित उद्यतो यस्तु कर्ता, एयग्गगदो त्ति मदो स ऐकाग्रयगत इति मतः संमतः, सामण्णं तस्स पडिपुण्णं श्रामण्यं चारित्रं यतित्वं तस्य परिपूर्णमिति । तथाहि — भावकर्मद्रव्य-कर्मनोकर्मभ्यः शेषपुद्गलादिपञ्चद्रव्येभ्योऽपि भिन्नं सहजशुद्धनित्यानन्दैकस्वभावं मम संबन्धि यदात्म-द्रव्यं तदेव ममोपादेयमितिरुचिरूपं सम्यग्दर्शनम्, तत्रैव परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, तस्मिन्नेव स्वरूपे निश्चलानुभूतिलक्षणं चारित्रं चेत्युक्तस्वरूपं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं पानकवदनेकमप्यभेदनयेनैकं यत् तत्सविकल्पावस्थायां व्यवहारेणैकाग्रयं भण्यते । निर्विकल्पसमाधिकाले तु निश्चयेनेति । तदेव च नामान्तरेण परमसाम्यमिति । तदेव परमसाम्यं पर्यायनामान्तरेण शुद्धोपयोगलक्षणः श्रामण्यापरनामामोक्षमार्गो ज्ञातव्य इति । तस्य तु मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वा-त्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन निर्णयो भवति । ऐकाग्रयं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वात् द्रव्यप्रधानेननिश्चयनयेन निर्णयो भवति । समस्तवस्तुसमूहस्यापि भेदाभेदात्मकत्वान्निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गद्वयस्यापिप्रमाणेन निश्चयो भवतीत्यर्थः ॥२७७॥
एवं निश्चयव्यवहारसंयमप्रतिपादनमुख्यत्वेन तृतीयस्थलेगाथाचतुष्टयं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
अब, संयत मुनिराज का जो यह साम्यलक्षण कहा है, वही श्रामण्य दूसरा नाम मोक्षमार्ग कहलाता है; ऐसा निरूपित करते हैं -
[दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु] जो कर्ता दर्शन-ज्ञान-चारित्र - तीनों में अच्छी तरह से उपस्थित-उद्यत हैं, [एयग्गगदो त्ति मदो] वे एकाग्रता को प्राप्त हैं- ऐसा माना गया है- स्वीकार किया गया है, [सामण्णं तस्स पडिपुण्णं] उनके श्रामण्य-चारित्र-यतिपना परिपूर्ण है ।
वह इसप्रकार- भावकर्म द्रव्यकर्म और नोकर्मों से तथा शेष पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों से भी भिन्न सहज-शुद्ध हूं हमेशा आनन्द एक स्वभावरूप मुझ सम्बन्धी जो आत्मद्रव्य है (मैं जो आत्मद्रव्य हूं), वही मुझे उपादेय है- ऐसी रुचिरूप सम्यग्दर्शन, उसकी ही विशेष जानकारीरूप सम्यग्ज्ञान और उसी स्वरूप में निश्चल अनुभूति लक्षण चारित्र- इसप्रकार कहे गये स्वरूपवाले जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों पानक (ठंडाई) के समान अनेक होने पर भी अभेदनय से एक हैं वे सविकल्प दशा में व्यवहार से एकाग्रता कहलाते हैं । वे ही विकल्परहित समाधि-स्वरूपलीनता के समय, निश्चय से एकाग्र कहलाते हैं । वही दूसरे नामों की अपेक्षा परम साम्य है । वही परम साम्य अन्य पर्याय नामों-दूसरे नामों की अपेक्षा शुद्धोपयोग लक्षण श्रामण्य, दूसरा नाम मोक्षमार्ग जानना चाहिये ।
उस मोक्षमार्ग का 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तीनों की एकरूपता मोक्षमार्ग है' -- इसप्रकार भेद स्वरूप होने से, पर्याय प्रधान व्यवहारनय से निर्णय होता है । 'एकाग्रता मोक्षमार्ग है' -- इसप्रकार अभेद स्वरूप होने से, द्रव्य प्रधान निश्चयनय से निर्णय होता है । समस्त वस्तु-समूह के ही भेदाभेदात्मक होने से निश्चय-व्यवहार- दोनों मोक्षमार्गों का प्रमाण से भी निश्चय होता है- ऐसा अर्थ है ॥२७७॥
इसप्रकार निश्चय-व्यवहार संयम के प्रतिपादन की मुख्यता से तीसरे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।
(अब मोक्षमार्ग के उपसंहार परक दो गाथाओं वाला चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)