ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 243 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज । (243)
जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ॥278॥
अर्थ:
[यदि] यदि [श्रमण:] श्रमण, [अन्यत् द्रव्यम् आसाद्य] अन्य द्रव्य का आश्रय करके [अज्ञानी] अज्ञानी होता हुआ, [मुह्यति वा] मोह करता है, [रज्यति वा] राग करता है, [द्वेष्टि वा] अथवा द्वेष करता है, तो वह [विविधै: कर्मभि:] विविध कर्मों से [बध्यते] बँधता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथानैकाग्र्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटयति -
यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति, सोऽवश्यं ज्ञेयभूतंद्रव्यमन्यदासीदति । तदासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानाद्भ्रष्ट: स्वयमज्ञानीभूतो मुह्यति वा, रज्यति वा, द्वेष्टि वा, तथाभूतश्च बध्यत एव, न तु विमुच्यते । अत अनैकाग्र्यस्य न मोक्षमार्गत्वं सिद्धय्येत् ॥२४३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब ऐसा दर्शाते हैं कि - अनेकाग्रता के मोक्षमार्गपना घटित नहीं होता (अर्थात् अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है ) :-
जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है, और उसका आश्रय करके, ज्ञानात्मक आत्मा के ज्ञान से भ्रष्ट वह स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है; और ऐसा (मोही रागी अथवा द्वेषी) होता हुआ बंध को ही प्राप्त होता है; परन्तु मुक्त नहीं होता ।
इससे अनेकाग्रता को मोक्षमार्गपना सिद्ध नहीं होता ॥२४३॥